क्या है समान नागरिक संहिता (यूनिफॉर्म सिविल कोड)? चुनावी जुमला या सच में बनेगा क़ानून?

देश में समान नागरिक संहिता ज़रूरी है, पर क्या इस क़वायद का हश्र भी सीएए एनआरसी क़ानूनों जैसा होगा? फिर से लोकसभा चुनाव सामने हैं, फिर से समान नागरिक संहिता का मुद्दा गरमाने की कोशिशें शुरू हो गईं हैं। शुरुआत ख़ुद प्रधानमंत्री मोदी ने भोपाल में अपने भाषण से शुरू की है- मुस्लिम बहनों का दर्द दूर करने की हुंकार भरी है। बावजूद इसके कि ख़ुद मोदी सरकार द्वारा गठित लॉ कमीशन ने 2018 में समान नागरिक संहिता पर ही अपनी 185 पन्नों की रिपोर्ट पर कहा था कि वह अभी न तो ज़रूरी है ना वांछनीय। यहाँ अपनी बात की शुरुआत में ही साफ़ कर दूँ कि मैं समान नागरिक संहिता के समर्थन में हूँ। समान नागरिक संहिता अपने मूल रूप में धार्मिक अधिकारों का नहीं जेंडर जस्टिस का मामला है और इसे लागू होना ही चाहिए। दुनिया के तमाम इस्लामिक देशों तक में शरिया नहीं, उनके बनाये यूनिफार्म सिविल कोड लागू हैं। ऐसे ही अमेरिका, कनाडा और तमाम यूरोपियन देशों में भी उनके नागरिक किसी भी धर्म के हों- एक ही यूनिफार्म सिविल कोड के अंदर आते हैं। सो इस सवाल को धार्मिक स्वतंत्रता का सवाल बनाने की कोशिश विशुद्ध बेईमानी है- ऐसी बेईमानी जिसमें दोनों पक्षों का फ़ायदा है- यूनिफार्म सिविल कोड यानी समान नागरिक संहिता को जेंडर जस्टिस के झूठ में लपेट सांप्रदायिक ध्रुवीकरण की कोशिश करने वालों का भी और जेंडर जस्टिस को एकदम ग़ायब कर इसे धार्मिक आज़ादी पर हमला बताने वालों की भी। समान नागरिक संहिता पर देश के पुरखों की भी हमेशा से यही राय रही है- संविधान सभा में भारी बहसों के बाद संविधान के चौथे, नीति निर्देशक तत्वों वाले भाग में अनुच्छेद 44 साफ़ साफ़ कहता है कि राज्य भारत के राज्य क्षेत्र में नागरिकों के लिये एक समान नागरिक संहिता को सुरक्षित करने का प्रयास करना। भारतीय संविधान के निर्माताओं का ये सपना था कि विवाह, तलाक़, बच्चों को गोद लेने, और विरासत माने संपत्ति के अधिकार जैसे सवालों पर तमाम धर्मों के अपने निजी पर्सनल कोड्स माने विधि संहिताओं को हटा कर एक समान नागरिक संहिता लागू की जाए। पर इसका कारण क्या है? सिर्फ़ मुस्लिम समाज में बहुविवाह की आज़ादी छीन लेना? कैसे छीन पायेंगे जब तमाम हिंदुओं की दो शादियाँ भी इस देश में खुला राज रही हैं, केंद्रीय मंत्रियों जैसे रामविलास पासवान और भाजपा सांसद जैसे धर्मेंद्र के बहुविवाह कौन नहीं जानता? पर आज तक ऐसा नहीं हो सका क्योंकि भारत जैसे विविधताओं वाले देश में समान नागरिक संहिता बनाना बेहद मुश्किल है। क्यों मुश्किल है? क्योंकि देश में धार्मिक अंतर छोड़िए ही, एक ही धर्म की विवाह से लेकर बच्चों को गोद लेने और विरासत की परंपराओं में इतने अंतर हैं कि यूनिफार्म सिविल कोड बनाने के बारे में सोचना तक दुशवार हो जाता है। एक छोटा उदाहरण देखिए- हिंदू कोड बिल केआर मुताबिक़ करीबी रिश्तों में शादी नहीं की जा सकती। पर दक्षिण भारत के तमाम हिंदू समुदायों में मामा भांजी की शादी की सिर्फ़ प्रथा ही नहीं है बल्कि यह बहुत आम बात भी है। यूनिफार्म सिविल कोड में इसको कहाँ रखेंगे? या हिंदू कोड बिल के तहत अनडिवाइडेड हिंदू परिवार (HUF- हिंदू अनडिवाइडेड परिवार माने संयुक्त परिवार) टैक्स एक्सेंपटेड इकाई है।यूनिफार्म सिविल कोड में इसका क्या होगा? या दक्षिणपंथियों के आजकल के सबसे बड़े हथियारों में से एक लव जिहाद का ही? समान नागरिक संहिता अपने मूल रूप में ही विवाह से धार्मिक कोड माने धार्मिक संहिताएँ ग़ायब कर देगी? फिर क्या होगा? यूँ तो अभी भी स्पेशल मैरिज ऐक्ट अंतरधार्मिक विवाहों की इजाज़त देता ही है पर समान नागरिक संहिता लागू हो गई तो वह ऐक्ट ही बेमानी हो जाएगा- फिर लव जिहाद चिल्लाने वाले क्या करेंगे? मसला सिर्फ़ धार्मिक रीतिरिवाज़ों तक भी सीमित नहीं था- जनजातीय क्षेत्रों से लेकर तमाम राज्यों तक में निजी जीवन के तमाम पहलुओं में बड़े अंतर हैं, इतने बड़े कि समान नागरिक संहिता बनाने की कोई कोशिश आज तक उन्हें हल नहीं कर पाई: जैसे मेघालय समेत कुछ इलाक़ों में संपत्ति का मैट्रिलीनियल हस्तांतरण? समान नागरिक संहिता उसे कैसे हल करेगी? ऐसे तमाम मुद्दे थे जिनकी जटिलताओं की वजह से समान नागरिक संहिता मूल अधिकारों में रखी जाएगी या नीति निर्देशक सिद्धांतों में इस पर अंत में मतदान की नौबत आई- और फ़ैसला 5-4 से नीति निर्देशक सिद्धांतों में रखने का हुआ। मूल अधिकार समिति के अध्यक्ष कौन थे? सरदार वल्लभ भाई पटेल जिन्होंने साफ़ कहा कि समान नागरिक संहिता की क़वायद मूल अधिकारों के दायरे से बाहर की है! दरअसल समान नागरिक संहिता छोड़िए ही- सिर्फ़ हिंदू धर्म की निजी रीतिरिवाजों में इतने क्षेत्रीय अंतर हैं कि बड़ी बहसों के बाद भी हिंदू कोड बिल को कई हिस्सों में तोड़ के पास करना पड़ा था- हिंदू मैरिज ऐक्ट, हिंदू सक्सेशन एक्ट, हिंदू माइनॉरिटी एंड गार्डियनशिप एक्ट और हिंदू एडॉप्शंस एंड मेंटेन्स ऐक्ट! इसमें भी हिंदू सक्सेशन ऐक्ट में तब बेटियों को विरासत में बराबर का हक़दार नहीं बनाया जा सका था- उन्हें यह हक़ 2005 में कांग्रेस के नेतृत्व वाली यूपीए सरकार में मिला। बहुएँ आज भी इस हक़ से ख़ारिज हैं! तो ये जो भी यूनिफार्म सिविल कोड बनेगा- वह इन सारे मुद्दों पर क्या रुख़ लेगा? और यहाँ फिर से लॉ कमीशन की 2018 की रिपोर्ट पर ध्यान जाना चाहिए- समान नागरिक संहिता को इस वक़्त न ज़रूरी न वांछनीय बताते हुए भी कमीशन ने सिफ़ारिश की थी कि तमाम धर्मों की अपनी संहिताओं में मौजूद भेदभावकारी और पूर्वाग्रह भरी बातों का अध्ययन कर उन्हें हटा देना चाहिए और ख़ासतौर पर विवाह और तलाक़ के मामलों में सभी धर्मों के पर्सनल कोड्स समान किए जाने चाहिए। फिर से, मैं इस बात से एकदम सहमत हूँ। पर यह किया कैसे जाएगा? कुछ चीजें तो आसान हैं- जैसे शादी के लिए समान उम्र निर्धारित करना। पर कुछ इससे बहुत ज़्यादा जटिल हैं। उदाहरण के लिए तलाक़ के मामलों में इस्लाम में स्त्रियों के लिए मेहर का प्रावधान है- जो उनकी आर्थिक और सामाजिक सुरक्षा की बड़ी गारंटी है ही भारत में मौजूद लगभग सभी धर्मों में स्त्रियों के लिए सबसे बेहतर प्राविधानों में से भी है। क्या यूनिफ़ॉर्म सिविल कोड में सभी धर्मों में मेहर का प्राविधान अनिवार्य किया जाएगा? आप मेहर को जो चाहे कह लें- कोई और नाम दे दें तो भी? ऐसे ही उत्तराधिकार संबंधी क़ानूनों का के करेंगे? क्या सभी धर्मों बेटियों के साथ साथ बहुओं को भी उत्तराधिकार में बराबरी का हक़ दिया जाएगा? दिक़्क़त यह है कि इस सरकार की तमाम नीतियों और फ़ैसलों की ही तरह इस फ़ैसले में भी गंभीर सोच विचार की जगह तात्कालिक राजनैतिक फ़ायदों की तलाश ही दिखती है- और इसीलिए मुझे सीएए एनआरसी की ही तरह इसके भी कहीं न पहुँचने की आशंका भी है। याद दिला दूँ कि सीएए और एनआरसी दोनों संसद द्वारा 2019 में ही पारित हो जाने के बाद भी आज तक लागू नहीं किए जा सके हैं क्योंकि सरकार ने आज तक इसके नियम ही नहीं बनाये हैं!

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