इजराइल फिलिस्तीन विवाद का इतिहास: 1917 मे शुरुआत से 1948 नकबा तक। Israel Palestine Conflict Explained

100 साल से ऊपर के हो गये इज़राइल फ़िलिस्तीन विवाद की कहानी।

ये कहानी शुरू हुई थी 2 नवम्बर 1917 को जब ब्रिटेन के तत्कालीन विदेश सचिव आर्थर बालफ़ौर

ने ब्रिटिश जेविश कम्युनिटी के प्रतीकात्मक अध्यक्ष लायोनेल वॉल्टर रोथस्चिल्ड को एक पत्र लिखा- सिर्फ़ ६७ शब्दों का एक पत्र। पर इन 67 शब्दों को दुनिया का इतिहास बदल देना था था। लाखों लोगों की जान लेने वाले एक अंतहीन युद्ध की शुरुआत करना था।

आज भी बालफ़ौर डिक्लेरेशन नाम से जाने जाने वाले इस पत्र में बाल्फ़ोर ने फ़िलिस्तीन में जेविश लोगों के राष्ट्रीय घर “the establishment in Palestine of a national home for the Jewish people” और उसे हासिल करने के लिए ब्रिटेन की प्रतिबद्धता का वादा किया था! and to facilitating “the achievement of this object”.

आसान भाषा में एक यूरोपीय देश यहूदियों के लिए एक एशिया के उस इलाक़े में एक नया देश बनाने का वादा कर रहा था जहां पहले ही अरब रहते थे और उनकी आबादी 85% से ज़्यादा थी! फिर ब्रिटेन के इस दावे को बाक़ी यूरोपियन ताक़तों ने भी मान लिया और 1923 में फिलिस्तीन में ब्रिटिश मैंडेट की स्थापना हुई जो इजराइल की स्थापना माने 1948 तक चला! इस पूरे दौर में ब्रिटेन ने यूरोपीय यहूदी समुदायों के बड़े पैमाने पर फिलिस्तीन में पलायन को प्रोत्साहित किया। याद रखें कि यही यूरोप में नाज़ीवाद के उभार का भी दौर है जिसके निशाने पर यहूदी सबसे पहले थे। सो तमाम सारे यहूदियों को भागना भी पड़ा। इसी बीच फ़िलिस्तीन के असल बहुसंख्यक निवासी- अरब मुस्लिम- अपने ही देश की डेमोग्राफी माने जनसांख्यिकी बदलते देख रहे थे और गंभीर रूप से चिंतित थे!

इसके ख़िलाफ़ ग़ुस्सा भड़कना ही था, सो भड़का भी! और आख़िर में1936 में अरब विद्रोह के रूप में सामने आया जो  1939 तक चला।

अप्रैल 1936: जी हाँ, ये असल शुरुआत थी इस लड़ाई की। नई नई अरब नेशनल कमेटी ने ब्रिटिश उपनिवेशवाद और बढ़ते यहूदी पलायन के ख़िलाफ़ फ़िलिस्तीनियों से हड़ताल करने, टैक्स जमा करना बंद करने और यहूदी उत्पादों का बहिष्कार करने का आह्वान किया था। माने इस लड़ाई की शुरुआत एकदम अहिंसक थी! असल में गांधीवादी कहिए! असहयोग, हड़ताल, विदेशी उत्पादों का बहिष्कार और टैक्स न भरना! सब के सब गांधीवादी तरीक़े ही हैं!

पर फिर वही! अंग्रेज ठहरे अंग्रेज- जलियाँवाला बाग वाले ही तो! उन्होंने छह महीने की हड़ताल को बेरहमी से कुचला- बड़े स्तर पर लोगों को गिरफ़्तार किया- और बिना अदालती कार्रवाई के ही सजा के बतौर उनके घर गिराये! बुलडोजर राज! इज़राइल आज भी घर गिराने को अपनी बड़ी रणनीति बना कर रखता है!

ख़ैर, विद्रोह कुचल तो दिया गया पर फ़िलिस्तीनियों ने हार नहीं मानी। 1937 में विरोध की दूसरी लहर उठी- इस बार फ़िलिस्तीनी किसान मोर्चे पर थे जिन्होंने ब्रिटिश फ़ौजों और उपनिवेशवाद को निशाना बनाया! 1939 आते आते ब्रिटेन ने फिलिस्तीन में 30,000 से ज़्यादा सैनिक उतार दिये थे। वे गाँवों पर हवाई बमबारी कर रहे थे, कर्फ्यू लगा रहे थे, बिना वजह लोगों को गिरफ़्तार कर रहे थे और उन्हें मार भी रहे थे!

इसी के साथ वे सैटलर यहूदी समुदाय में एक हथियारबंद काउंटर इंसर्जेंसी मिलिशिया भी तैयार कर रहे थे जिसका नाम था स्पेशल नाईट स्क्वाड्स! इज़राइल की स्थापना के पहले यीशुव नाम से जाने जानी वाली इस आबादी में यही स्पेशल स्क्वाड धीरे धीरे उनके हथियारबंद मिलिशिया हगुना माने हिब्रू में रक्षा में बदला जो आज की इज़राइली डिफेंस फ़ोर्सेज़ का आधार बना। अरब विद्रोह के इन तीन सालों में ब्रिटिश उपनिवेशवादियों और उनके यहूदी समर्थकों ने 5,000 फ़िलिस्तीनियों की हत्या कर दी थी, 15,000 से 20,000 बुरी तरह से घायल थे और 5,600 से ज़्यादा जेल में!

ख़ैर, फिर विश्व युद्ध शुरू हो गया और दुनिया उधर उलझ गई। युद्ध ख़त्म होने के बहुत पहले से ही यहूदियों पर नाज़ियों के निर्मम अत्याचारों की बातें सामने आने लगी थीं पर जर्मनी की अंतिम पराजय के साथ कंसंट्रेशन कैंप्स से लेकर गैस चैंबर्स तक के राज खुले तो दुनिया हिल गई! यहूदियों के लिए सहानुभूति भी खूब बढ़ी। बहुत सारे यहूदी भाग के फ़िलिस्तीन पहुँचे। 1947 आते आते यहूदी फ़िलिस्तीन की कुल आबादी का 33 प्रतिशत हो चुके थे- 1920 में 8% से भी कम से ये भारी बढ़त थी। पर चूँकि ज़्यादातर भाग के आये थे तो उनके पास ज़मीनें बहुत कम थीं- आबादी 33% लेकिन ज़मीन सिर्फ़ 6 प्रतिशत।

ख़ैर, इसी माहौल में यूनाइटेड नेशंस ने Resolution 181 पेश किया जिसके तहत अब इलाक़े का अरब और यहूदी राष्ट्र राज्यों में बंटवारा होना था। फ़िलिस्तीनियों ने ये प्रस्ताव अस्वीकार कर दिया क्योंकि इस प्रस्ताव में आबादी के सिर्फ़ 33% और सिर्फ़ 6% ज़मीन पर क़ाबिज़ यहूदियों को फ़िलिस्तीन की 56% जमीन दी जा रही थी, वह भी सबसे उपजाऊ तटीय इलाक़ों वाली! याद रहे कि इस वक़्त भी अरब मुस्लिम फ़िलिस्तीनी देश की आबादी का 67% हिस्सा थे और फिलिस्तीन की कुल 94% जमीन उनकी थी!

और फिर वह हुआ जिसके बाद इस विवाद को रक्तरंजित भी होना था और इसके हाल होने की सारी संभावनाएँ खत्म हो जानीं थीं!

1948 में हुआ अल नक़बा- या फ़िलिस्तीन में फ़िलिस्तीनियों की एथनिक क्लींजिंग! कितनी बड़ी विडंबना है कि हिटलर और मुसोलिनी की इसी एथनिक क्लींजिंग से बच के आये यहूदी यह कर रहे थे!

ख़ैर- तो 14 मई 1948 को ब्रिटिश मैंडेट ख़त्म होने के पहले ही जियोनिस्ट मिलिशिया फ़िलिस्तीनी अरबों पर बड़े हमले की, उनके गाँव घर शहर तबाह करने की योजना बना चुका था। पहला बड़ा हमला अप्रैल 1948  में जेरूसलम के पास दैर यासिन पर हुआ जिसमें उन्होंने 100 से ज़्यादा फ़िलिस्तीनी नागरिकों को बेरहमी से मार दिया- इनमें दर्जनों बच्चे भी शामिल थे! फिर तो बस तबाही चलती रही- 1947 से 1949 तक इस मिलिशिया ने 500 से ज़्यादा फ़िलिस्तीनी गाँव, क़स्बे और शहर पूरी तरह से तबाह कर दिये था- इसीलिए फ़िलिस्तीनी इसे नक़बा कहते हैं जिसका मतलब होता है कैटोस्ट्रॉफ़ी यानी पूरी तबाही!

इस पूरे ऑपरेशन में 15,000 से ज़्यादा फ़िलिस्तीनी मारे गये थे और यहूदी सुप्रीमेसिस्ट ताक़तों ने फ़िलिस्तीन की 78% ज़मीन क़ब्जा कर ली थी। बाक़ी बची 22% वही है जिनका और भी कम हो गया हिस्सा आज वेस्ट बैंक और गाजा हैं!

इस नक़बा यानी तबाही में 750,000 से ज़्यादा फ़िलिस्तीनियों को अपना घर छोड़ के भागना पड़ा, माने वे विस्थापन के शिकार हुए! उनके 60 लाख से ज़्यादा वंशज आज भी फ़िलिस्तीन, लेबनान, सीरिया, जॉर्डन और इजिप्ट में बिखरे हुए 58 शरणार्थी शिविरों में रहते हैं जिनकी हालत बहुत ख़राब है।

इसी सब के बीच 15 मई 1948, को इज़राइल ने अपनी स्थापना की घोषणा कर दी। अगले दिन अरब इज़राइल युद्ध शुरू हो गया जो जनवरी 1949 में इज़राइल और इजिप्ट, लेबनान, जॉर्डन और सीरिया के बीच युद्ध विराम होने तक चलता रहा।

उसी साल दिसंबर यानी  दिसंबर 1948 में संयुक्त राष्ट्र संघ ने Resolution 194 पारित किया जो फ़िलिस्तीन छोड़ भागने को मजबूर हुए अरबों को वापस लौटने का अधिकार देता है। ये और बात कि इज़राइल इसे मानता नहीं। उल्टा उसने अपना आलिया सिस्टम बनाया हुआ है जिसके तहत वो दुनिया में कहीं भी रह रहे, किसी भी देश के नागरिक यहूदी को इज़राइल में आकर बस जाने और नागरिकता ले लेने की अनुमति देता है।

और इस तरह डेमोग्राफी और भी बदलता रहता है। तो यह है इस विवाद के शुरुआत की कहानी- अल नक़बा तक की कहानी। माने तबाही की कहानी।

कल इसके आगे की सुनाता हूँ।

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