एक दिन थे जब हम जवाबी हम जवाबी कव्वालियाँ सुनने घर से भागा करते थे.. और ये वो दिन थे कि कव्वालियाँ आज सी न हुआ करती थीं.. कि जब कव्वाल बोल उठाते थे तो साँस थम सी जाया करती थी कि अब के आनेवाले लफ्ज़ कितने मायने सीने में छुपाये होंगे..
ये वो दिन थे की खबर ही नहीं होती थी की कब सुनने वाले जाने अनजाने, चाहे अनचाहे खेमों में बँट जाया करते थे.. कि हम इस कव्वाल के साथ और तुम उस के. और अब तो ये सोचना भी मुश्किल होता है कि कभी बँटना भी इतना खूबसूरत अहसास हो सकता है.
और ये वो दिन थे कि सांसों का थमना हिन्दुस्तान पाकिस्तान के क्रिकेट मैचों की बपौती ना थी. कि तमाम खूबसूरती के बाद भी अपना गुट हल्का पड़ता सा लगे तो साँसे थमने सी लगती थीं.
और बीच बीच में अशआर होते थे.. और जवाबी कव्वाल की तरफ से आने वाले उनके जवाब.. कि कितनी फलसफाना बातें किताबें पढ़ के नहीं बल्कि उन मजलिसों से यूँ ही सीख लीं..
ये वो भी दिन थे के कव्वालियाँ सुनने को बंद सभागारों में नहीं जाना होता था. टिकेट नहीं खरीदने होते थे. और तो और तब कव्वालियाँ सुनने के लिए बुद्धिजीवी होना, या कमअसकम दिखना कोई जरूरी शर्त नहीं होती थी. जब कोई लफ्ज़ समझ ना आये तो बगल वाले से पूछ लेना बहुत आम था ना के कोई शर्मिंदगी का बायस.
और फिर ये हुआ के वो दिन कहीं खो गए. और वो कव्वालियाँ भी. और वो कसबे भी शायद.
शुक्रिया उन दोस्तों का जिनकी फेसबुक पे जवाबी क़व्वाली सी जुगलबंदी ने कुछ यादें लौटा दीं. कि जैसे बहुत पुरानी किताब से बहुत पुराना फूल मिल जाए कोई..
शुक्रिया अरुण भाई, शुक्रिया अजंता जी
ये वो दिन थे की खबर ही नहीं होती थी की कब सुनने वाले जाने अनजाने, चाहे अनचाहे खेमों में बँट जाया करते थे.. कि हम इस कव्वाल के साथ और तुम उस के. और अब तो ये सोचना भी मुश्किल होता है कि कभी बँटना भी इतना खूबसूरत अहसास हो सकता है.
और ये वो दिन थे कि सांसों का थमना हिन्दुस्तान पाकिस्तान के क्रिकेट मैचों की बपौती ना थी. कि तमाम खूबसूरती के बाद भी अपना गुट हल्का पड़ता सा लगे तो साँसे थमने सी लगती थीं.
और बीच बीच में अशआर होते थे.. और जवाबी कव्वाल की तरफ से आने वाले उनके जवाब.. कि कितनी फलसफाना बातें किताबें पढ़ के नहीं बल्कि उन मजलिसों से यूँ ही सीख लीं..
ये वो भी दिन थे के कव्वालियाँ सुनने को बंद सभागारों में नहीं जाना होता था. टिकेट नहीं खरीदने होते थे. और तो और तब कव्वालियाँ सुनने के लिए बुद्धिजीवी होना, या कमअसकम दिखना कोई जरूरी शर्त नहीं होती थी. जब कोई लफ्ज़ समझ ना आये तो बगल वाले से पूछ लेना बहुत आम था ना के कोई शर्मिंदगी का बायस.
और फिर ये हुआ के वो दिन कहीं खो गए. और वो कव्वालियाँ भी. और वो कसबे भी शायद.
शुक्रिया उन दोस्तों का जिनकी फेसबुक पे जवाबी क़व्वाली सी जुगलबंदी ने कुछ यादें लौटा दीं. कि जैसे बहुत पुरानी किताब से बहुत पुराना फूल मिल जाए कोई..
शुक्रिया अरुण भाई, शुक्रिया अजंता जी
samar ji hamare yahan is trh ki parmpra rahi hai. yah bhi ek trika hai kavita ke prti ruchi paida krne ka. aap ko achha lga . isse badhkar aur kya ho skta hai.
ReplyDeletemera ek blog hai kabhi dekhiyega---
www.samvadi.blogspot.com