मेकोंग नदी के तट पर मनवर क्यूँ बहती है आँखों में?


मेकोंग .... मनवर.. मनोरमा...

वतन से हजारों मील दूर इस नदी किनारे जेहन में यादों का समंदर उमड़ पड़ा है. नदी के किनारे यादों का समन्दर. यादें भी अजब होती हैं, बेहद दिलचस्प. नहीं आतीं तो नहीं आतीं और आतीं हैं तो बस.

मेकोंग! दुनिया की १२वीं सबसे बड़ी नदी. चीन, बर्मा, लाओस, थाईलैंड, विएतनाम और कम्बोडिया से होके बहने वाली. एक नदी जिसका नाम गंगा से निकला है (ख़ास तौर पे थाईलैंड में). बहुत बरस से जानता था इस नदी के बारे में और मेकोंग रिवर कमीशन के बारे में भी. आज सोचता हूँ कि फिर इस नदी का कोई ख्याल दिल में कभी क्यूँ नहीं आया?

पर मनवर की भी याद कहाँ आई थी बरसों से. १९९२ में बाबा गए तो गाँव छूटा, और गाँव छूटा तो मनवर भी कहीं पीछे छूट गयी. मनवर से अपना कोई ख़ास रिश्ता भी नहीं था और होता भी तो कौन याद करता है एक ऐसी छोटी सी नदी को?

पर आज यहाँ कम्बोडिया की राजधानी में मेकोंग नदी के किनारे मनवर की याद आई तो बेतरह आई. और ये भी की मनवर से एक रिश्ता तो था. उस दादी की यादों का रिश्ता जिसे कभी नहीं देखा. जो पापा के डेढ़ साल पूरा करते करते चली गयी. और उस दादा का रिश्ता जिसने फिर कभी शादी नहीं की. बावजूद इसके कि दादा बहुत जवान थे और रिश्तों की कमी ना थी. और बावजूद इसके भी कि दादा के मना करने पे दबे मुह आवाजें भी उठीं थीं. और ये भी कि उन आवाज़ों का ज़वाब दादा ने यह कह के दिया था कि ठीक अब कभी घर की देहरी(दहलीज के लिए अवधी शब्द)के अन्दर कदम नहीं रखूँगा. और नहीं रखा.

और ये रिश्ता की दादा के चेहरे पे जब कभी मुस्कराहट दिखी तो मनवर के किनारे दिखी. और दादा के मुह से जब भी दादी का नाम सुना तो मनवर के साथ सुना. ( ये और बात है कि बहुत कम सुना).

दादी मेकोंग के बारे में कुछ नहीं जानती थी. ये भी नहीं कि ये सात देशों में बहने वाली नदी है. और ये भी नहीं कि कुछ लोग इसे माँ खोंग कहते हैं. मेकोंग पे कितने सारे बांध हैं और दादी ने जिंदगी में कोई बांध नहीं देखा. (या शायद देखा हो. गाँव के पीछे बहने वाले भगाने ताल पर हर साल एक बंधा बांधते थे गाँव के लोग कि असाढ़ की बारिश गाँव में ना घुसे. बशर्त ये कि आप उसे बाँध कह सकें)

मेकोंग तो खैर बहुत दूर है पता नहीं दादी ने कभी गंगा भी देखी या नहीं गीत भले ही गाती रही हो. सारी उम्र. सुनते हैं कि दादी कि आवाज़ बहुत अच्छी थी. कि शादी ब्याह से ले के सोहर तक गानों में रंग नहीं पड़ता था अगर टेक दादी ना उठाये. दादी के गानों में गंगा होगी, सरयू होगी पर दिल में हमेशा मनवर रही.

या सच में? दादी पली बढ़ी तो घाघरा किनारे थीं. गाँव भटपुरवा तहसील एवं पोस्ट विशेषरगंज. मनवर तो उनको शादी के बाद ही मिली. (बेहतर है वरना स्त्रियों का तो सबकुछ छिनता ही है शादियों में, परिवार, सहेलियां, गाँव घर और ऊपर से दहेज़). तो फिर दादी ये घाघरा से मनवर खेमे में कब चली आई? और आयीं तो अपनी इच्छा से या फिर ससुराल कि मजबूरियों से? मेरी दादी ने पता नहीं मनवर को अपनी मर्जी से चुना था या नहीं,या मनवर थोप दी थी उनके बाप दादाओं ने उनपे.पर ये पता है कि भटपुरवा से बड़हर खुर्द के अपने सफ़र में उन्हें मनवर से मुहब्बत तो हो गयी थी. ये पता नहीं कि सहेली जैसी या माँ जैसी बावजूद इसके कि दादी मनवर को कहती तो माँ ही रही.

और इसीलिए सोचता हूँ कि क्या मेकोंग किनारे की औरतों को भी अपनी नदी बदलनी पड़ती होगी? कैसा लगता होगा उन्हें? और अगर नदी बदलनी पड़ती होगी तो क्या सात देशों के सफ़र तक? और ये कि नदी हमेशा औरतों को ही क्यूँ बदलनी पड़ती है?

कि फिर मनवर दादी के लिए नदी से माँ में कब तब्दील हो गयी? मनवर माई. और ये भी कि क्या मेकोंग भी लोगों के लिए माँ होगी? सात देशों के लोगों के लिए? और फिर ये की नदी को माँ कहने पे गंगा का ही ख़याल क्यूँ आता है? कि पंडित नेहरु जैसे (स्वघोषित) समाजवादी और धर्मनिरपेक्ष व्यक्ति ने अपनी राख डालने के लिए गंगा ही क्यूँ चुनी? मनवर क्यूँ नहीं? या ठीक है मनवर बहुत छोटी बहुत नामालूम सी नदी है पर फिर नर्मदा, कावेरी, गोदावरी, यमुना कोई और नदी क्यों नहीं? कि क्या नदियों के अन्दर भी हम इंसानों सी गैरबराबरी होती है?

बखैर. आज याद आता है कि मनवर को देख के दादा कि आँखों में एक चमक उठती थी. शायद दादी क़ी यादों की चमक. और तब ये लगता है कि नदियाँ सिर्फ माएं नहीं प्रेमिकाएं भी हो सकती हैं. और तब लगता है कि ये ये नदियों को मूरत बनाने वाले लोग अच्छे लोग नहीं है. क्यूंकि मूरतें माओं की बनती हैं प्रेमिकाओं की नहीं. और ये लोग सिर्फ मूरत गढ़ते हैं, रिश्ता मार देते हैं.

और मेरी दादी की मनवर अचानक मनोरमा में तब्दील होने लगती है. शंख और घडियालों के साथ. आरती के थालों के साथ. और फिर वो मनोरमा महोत्सव मनाने लगते हैं.

पर आज, वतन से इतनी दूर मुझे मनवर से अपना रिश्ता साफ़ समझ आ रहा है. और ये भी कि मेरी दादी का रिश्ता मनवर से था मनोरमा से नहीं. और ये कि माँ से प्यार करते हैं, पूजा नहीं. और ये भी कि जो लोग ये पूजा का नाटक शुरू करते हैं वो मेरी दादी कि मनवर माई के दुश्मन हैं. केसरिया कपड़ों में.

पर इस बार लौटूंगा तो मैं दादी की, अपनी, मनवर के पास वापस लौटूंगा. इस वादे के साथ कि उसे इन गेरुआ कपड़ों और इस नए नाम के शिकंजे से आजाद करना है. कि वो मेरी दादी कि माँ हो या दादा कि प्रेमिका, है तो मनवर ही, मनोरमा नहीं.

शुक्रिया मेकोंग.

Comments

  1. हाँ दोस्त ! सच है ये माँ से प्यार करते हैं, पूजा नहीं. और ये भी जो भी लोग पूजा का नाटक करते हैं वो सिर्फ मनवर के ही नहीं हम सबके भी दुश्मन हैं.

    ReplyDelete
  2. बहुत सुन्दर प्रसंग....नदी की तरह ही प्रवाहमय भाषा भी ...!
    पंकज झा.

    ReplyDelete
  3. अच्छा है दोस्त , यद्यपि कुछ गडड मड्ड लगा . भावुकता में स्वाभाविक है ऐसा होना . पर अपने पोस्ट्स में तो आप काफी कठोर लगे, जैसा मैंने थोड़ा बहुत देखा . क्या मनवर के जज्बे से बदलाव का काम नहीं चल सकता ?

    ReplyDelete
  4. मेकोंग .... मनवर.. मनोरमा...
    के भांति आप भी अपने अलरव बहाव को बनाये रखिये...सुन्दर वर्णन...

    ReplyDelete

Post a Comment