बहुत पहले लिखी थी ये कविता. १९९६ में इलाहाबाद विश्वविद्यालय में प्रवेश लेने के कुछ ही समय बाद. मैं घर आ रहा था और मेरा घर अयोध्या से सिर्फ २८ किलोमीटर दूर है.
फैजाबाद पंहुचा तो पता चला कि अयोध्या 'सील' हो गयी थी. और शहरों(वस्तुतः कस्बों से)से अलग है अयोध्या. कर्फ्यू कम ही लगता हैं यहाँ, वजह साफ़ कि अन्दर के बाशिंदे ज्यादातर भले लोग है.इतिहास गवाह है कि अयोध्या फैजाबाद नामक जुड़वाँ शहरों में १९९२ के पहले कभी कोई दंगा नहीं हुआ. बाद में भी सिर्फ एक, और वह भी बाहर से आये 'कारसेवकों' ने किया.
तो कर्फ्यू की जरूरत पड़ती नहीं यहाँ तो बस शहर 'सील'हो जाता है. सारी सीमायें बंद. कोई गाडी कोई व्यक्ति इधर से उधर नहीं जायेगा. और ये 'बाहरी' लोग नहीं आयेंगे तो अमन चैन सलामत रहेगा. साल तो नहीं याद पर सावन मेले का समय था जब फंसा था उस बरस. आखिरी २८ किलोमीटर के लिए दो दिन फैजाबाद में इन्तेजार करने के बाद इलाहाबाद लौट गया था. इतना दुखी था कि रास्ते में ननिहाल पड़ता है, सुल्तानपुर, वहां भी नहीं रुका.
वापसी की उसी ट्रेन यात्रा में लिखी हुई कविता थी ये. आज याद आयी तो लगा कि आस्थाओं से लबालब इस निर्मम समय से इस कविता को भी जूझना चाहिए.
क्षमा करना माँ
कभी नहीं लगे तुम्हारे राम
श्रद्धा के काबिल..
तुम व्रत रख रख के दोहरी होती रही
हम बच्चों के लिए..
परिवार के लिए..
और मैं देखता रहा था तुम्हे
हंसने और रोने के बीच की किसी जगह से..
चाहा कई बार
कि बताऊँ तुम्हे
कितने निरर्थक हैं
तुम्हारे सारे उपवास..
क्या असीसेगा तुम्हारी इच्छाओं को
तुम्हारे सपनों को
वो
जो नहीं दे सका स्नेह अपनी पत्नी को
पर फिर लगा माँ
कि तुम माँ हो.
राम को दूँ या ना दूँ
तुम्हारा सम्मान परे है
किसी भी प्रश्न से!
नहीं पूछा फिर ये सवाल
कभी
कि क्यूँ इतनी श्रद्धा है तुम्हे राम में
माँ?
पर फिर एक दिन याद आया
माँ
कि प्रश्नों के परे तुम हो
तुम्हारा सम्मान है..
राम नहीं.
तो माँ
आज कहने दो
कि कभी नहीं लगे
तुम्हारे राम श्रद्धा के काबिल..
यूँ तो सीता की अग्नि परीक्षा
से
शम्बूक वध तक
ढेरों कारण हो सकते थे
हैं
पर माँ
राम से नफ़रत की मेरी वजह
बहुत छोटी थी.
कि मैं इलाहाबाद में पढता था
राम अयोध्या में रहते थे..
और अयोध्या मेरे घर के रास्ते में..
सिर्फ २८ किलोमीटर दूर बाकी रह जाता था घर
माँ
राम के इस घर से
पर कितनी बार
कितनी तो बार
जब भी मुझे आना होता था अपने घर
तुम्हारे पास
अपने पास
राम का ये घर
अड़ जाता था मेरे घर के रास्ते
अपनी तमाम बंदूकों
संगीनों
और वर्दियों के साथ!
फैजाबाद पंहुचा तो पता चला कि अयोध्या 'सील' हो गयी थी. और शहरों(वस्तुतः कस्बों से)से अलग है अयोध्या. कर्फ्यू कम ही लगता हैं यहाँ, वजह साफ़ कि अन्दर के बाशिंदे ज्यादातर भले लोग है.इतिहास गवाह है कि अयोध्या फैजाबाद नामक जुड़वाँ शहरों में १९९२ के पहले कभी कोई दंगा नहीं हुआ. बाद में भी सिर्फ एक, और वह भी बाहर से आये 'कारसेवकों' ने किया.
तो कर्फ्यू की जरूरत पड़ती नहीं यहाँ तो बस शहर 'सील'हो जाता है. सारी सीमायें बंद. कोई गाडी कोई व्यक्ति इधर से उधर नहीं जायेगा. और ये 'बाहरी' लोग नहीं आयेंगे तो अमन चैन सलामत रहेगा. साल तो नहीं याद पर सावन मेले का समय था जब फंसा था उस बरस. आखिरी २८ किलोमीटर के लिए दो दिन फैजाबाद में इन्तेजार करने के बाद इलाहाबाद लौट गया था. इतना दुखी था कि रास्ते में ननिहाल पड़ता है, सुल्तानपुर, वहां भी नहीं रुका.
वापसी की उसी ट्रेन यात्रा में लिखी हुई कविता थी ये. आज याद आयी तो लगा कि आस्थाओं से लबालब इस निर्मम समय से इस कविता को भी जूझना चाहिए.
क्षमा करना माँ
कभी नहीं लगे तुम्हारे राम
श्रद्धा के काबिल..
तुम व्रत रख रख के दोहरी होती रही
हम बच्चों के लिए..
परिवार के लिए..
और मैं देखता रहा था तुम्हे
हंसने और रोने के बीच की किसी जगह से..
चाहा कई बार
कि बताऊँ तुम्हे
कितने निरर्थक हैं
तुम्हारे सारे उपवास..
क्या असीसेगा तुम्हारी इच्छाओं को
तुम्हारे सपनों को
वो
जो नहीं दे सका स्नेह अपनी पत्नी को
पर फिर लगा माँ
कि तुम माँ हो.
राम को दूँ या ना दूँ
तुम्हारा सम्मान परे है
किसी भी प्रश्न से!
नहीं पूछा फिर ये सवाल
कभी
कि क्यूँ इतनी श्रद्धा है तुम्हे राम में
माँ?
पर फिर एक दिन याद आया
माँ
कि प्रश्नों के परे तुम हो
तुम्हारा सम्मान है..
राम नहीं.
तो माँ
आज कहने दो
कि कभी नहीं लगे
तुम्हारे राम श्रद्धा के काबिल..
यूँ तो सीता की अग्नि परीक्षा
से
शम्बूक वध तक
ढेरों कारण हो सकते थे
हैं
पर माँ
राम से नफ़रत की मेरी वजह
बहुत छोटी थी.
कि मैं इलाहाबाद में पढता था
राम अयोध्या में रहते थे..
और अयोध्या मेरे घर के रास्ते में..
सिर्फ २८ किलोमीटर दूर बाकी रह जाता था घर
माँ
राम के इस घर से
पर कितनी बार
कितनी तो बार
जब भी मुझे आना होता था अपने घर
तुम्हारे पास
अपने पास
राम का ये घर
अड़ जाता था मेरे घर के रास्ते
अपनी तमाम बंदूकों
संगीनों
और वर्दियों के साथ!
समाजशास्त्र की एक बेहतरीन व्याख्या है यह कविता...
ReplyDeleteबहुत बधाई समर भाई...
@ शेष-- शुक्रिया अरविन्द भाई.. वैसे ये जरूर कहूँगा की मेरा ज्यादातर लेखन समाजशास्त्रीय होता है. इस कविता जैसी वैयक्तिक रचनाएं कम ही कर पाया मैं.
ReplyDeleteआपने इसे भी समाजशास्त्र से जोड़ के मुझे अद्भुत बल दे दिया है.. बहुत नवाजिश.
मेरे तो बहुत से दोस्त छीन लिए थे बचपन, में इस झमेले ने... एक समय था जब इसकी वजह से कितने दोस्तों की दोस्ती में दरार आ गयी थी. वो जो एक टिफिन में खाना खाते थे, उस समय खिंचे-खिंचे से रहने लगे और घर से बाहर निकलने में डर लगने लगा... भला वो आस्था कैसी जो डर और नफ़रत फैलाए.
ReplyDeleteदोस्त छिनने से भी ज्यादा दर्द वाली एक बात होती है मुक्ति-- ये की इस झमेले की वजह से कितने बच्चों की और मजहब वालों से दोस्ती ही नहीं हुई.. ये पोस्ट उन तमाम दोस्तियों के नाम जो हुई ही नहीं!
ReplyDeleteबहुत अच्छी लगी कविता समर, बधाई !
ReplyDeleteशुक्रिया मनोज भाई!
ReplyDeleteभईया कविता तो है ये बेहतरीन . मुझे जो सबसे पहली चीज़ इसको पढ़ के याद आ रही है वो है , कैफ़ी आज़मी की नज़्म - दूसरा वनवास , हालाँकि कोई ज्यादा समानता है नहीं दोनों में. ये कविता उस नज़्म की सीक्वेल जैसी है.
ReplyDeletemai bhi sahmat hu samar bhaiya aapke vicharo se...nice poetry.
ReplyDeleteभाई सुन्दर कविता है
ReplyDeletenihaayati gatiyaa kavita hai mitra ...
ReplyDeleteKartik JNU इतनी घटिया कि आपको अपना बहुमूल्य समय निकाल कर कमेन्ट करना पड़ गया. Lolz.
ReplyDeletebahut achhi kavita... samar bhaiya...
ReplyDeleteLoved it.
ReplyDeleteसमर भैय्या लाजवाब कविता है/
ReplyDeleteहक़ीक़त के बिल्कुल क़रीब/
We are all migrants ! there is always something or the other that stands between us and our home !
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