[जनसत्ता में २६ अक्टूबर २०१० को स्मृति पर्व के दंश शीर्षक से प्रकाशित.]
मुस्कराहटें अनमोल होती हैं. ख़ासतौर पर वैसी, जैसी राष्ट्रमंडल खेलों के आयोजन के बाद दिल्ली के हुक्मरानों के चेहरे पर खिली हैं. वैसे उनके चेहरों से छलक पड़ती खुशी बिलकुल वाजिब है. आखिर को टूटते घरों, ढहते पुलों, अधूरी तैयारियों के बीच खेलों का सफल आयोजन कर उन्होंने राष्ट्र का गौरव पुनर्स्थापित किया है. क्या यह किसी चमत्कार से कम है? और गौरव भी तो उनके सामने स्थापित करना था जो आज भी हमें मदारियों, संपेरों और जादूगरों से ज्यादा कुछ नहीं समझते और जिनके देशों में आज भी हमारे ऊपर नस्ली हमले होते रहते हैं.
तो बस, हुक्मरानों ने पानी की तरह पैसा बहाया और राष्ट्रगौरव बहाल किया. क्या हुआ कि उनकी मुस्कुराहटों पर खरबों खर्च हो गए. राष्ट्रसम्मान की कुछ तो कीमत होती है. हाँ, इन खेलों के सफलतम के साथ भ्रष्टतम भी होने की खबरों ने इस ख़ुशी को जरा कम कर दिया. मध्वर्गीय नैतिकता इन खबरों से इतना आहत हुई की खबरी चैनलों से लेकर अखबार तक भ्रष्टाचार की जाँच की मांग करने लगे और आखिर में सरकार को हामी भरनी ही पडी. ये एक अच्छी खबर थी(बशर्ते यह जांच किसी नतीजे पर पंहुचे और दोषियों को सजा मिले.)
पर इस खबर का एक दूसरा पहलू भी है. हमारी संवेदनाओं के भोंथरे होते जाने का पहलू. एक कड़वा सच कि बाजार कैसे हमारे अन्दर की इंसानियत को ख़तम कर रहा है. वह भी इतने सलीके से कि हमें पता भी नहीं चलता कि हम कब ऐसी मशीन बन जाते हैं जिसे पैसे के अलावा कुछ नहीं दिखता. संवेदनाएं बची होतीं तो हमें नजर आता कि राष्ट्रमंडल खेलों की कीमत सिर्फ पैसों में नहीं लगी है. इन खेलों के आयोजन की कीमत, रोजगार छिनने से लेकर जान जाने तक, इस शहर के गरीबों से वसूली गयी है.
रेहड़ीपटरी मजदूरों के राष्ट्रीय संगठन 'नेशनल अलायंस ऑफ़ स्ट्रीट वेंडर्स ऑफ़ इंडिया' ( (नासवी) के अध्ययन के मुताबिक विदेशी आँखों से दिल्ली की 'बदसूरत' तस्वीर छिपाने के लिए एक लाख रेहड़ीपटरी कामगारों को जबरिया दिल्ली से बाहर निकाल दिया गया. नासवी के अध्यक्ष अरविन्द सिंह के मुताबिक अगर इसमें अन्य अतिगरीबों को जोड़ लिया जाय तो यह संख्या २.७५ लाख पंहुच जाती है.
दिल्ली से जबरन निकाल दिए गए ये लोग जीतेजागते लोग थे. ये हमारी तरह इसी देश के नागरिक हैं. भारत के संविधान द्वारा प्रदत्त कहीं भी बसने का अधिकार इनका भी उतना ही है जितना 'माननीयों' का. फिर भी जिनके घर (सरकारी भाषा में झुग्गी-झोपड़ियाँ) बेमुरव्वती से तोड़ दिए गए जबकी रईसों के अनिधकृत कब्जे वाली सैनिक फार्म्स जैसी रिहायशें लोकतंत्र को मुह चिढाती यूँ ही खड़ी हैं.
पर फिर भी यह लोग किसी संवेदना का हिस्सा नहीं बने. भ्रष्टाचार के खिलाफ उठ रही तमाम आवाज़ों में इनके लिए न्याय की मांगे शामिल नहीं हुईं. १० दिन के खेलों के लिए बेघर कर दिए गए इन लोगों के संख्या २ लाख के ऊपर है. फिर से, यह संख्या भी सिर्फ आंकड़ा नहीं है. ये घर इंसानी रिश्तों की गर्माहट से भरे और घरों से अलग नहीं थे. इनमे भी बेटे को बड़ा साहब बनाने के सपने देखती हुई माँ की ऑंखें थी, और गली में क्रिकेट खेलते हुए एक दिन सचिन बनने के ख्वाब थे. अमीर घरों से इन घरों का एक और रिश्ता था . घरेलू काम करने वाली बाई, ड्राइवर, सिक्यूरिटी गार्ड, यानी की 'माननीयों' को अपने सपनों के पीछे भागने का समय और सहूलियत देने वाले लोग ज्यादातर इन्ही घरों से आते हैं. और फिर भी, इन घरों के टूटने पर किसी के मन में कुछ नहीं टूटा, कुछ नहीं बिखरा.
अब इनमे उन लगभग एक लाख मजदूरों को जोड़िये जिनसे लगभग यातानाशिविर की स्थितियों में काम करवाया गया और नासवी के मुताबिक न्यूनतम वेतन के आधे से भी कम भुगतान किया गया. यह भी, की खेलों से जुड़े कार्यस्थलों पर हुई कमसेकम ६५ श्रमिकों की मौत मे किसी एक पर भी जाँच नहीं की गयी. बात बात पर आहत हो जाने वाली मध्यवर्गीय नैतिकता इस मुहिम के लिए सरकार द्वारा दमनकारी पुलिसबल के भारी उपयोग पर आहत नहीं हुई. इस पर भी नहीं कि दक्षिणी दिल्ली के सरोजनीनगर बाजार को रेहड़ीपटरी वालों से खाली करने की मुहीम के दौरान गिरफ्तार किये गए ओमप्रकाश आर्य की पुलिस हिरासत में दी गयी यातनाओं को सह न पाने की वजह से आये हृदयाघात से मृत्यु हो गयी और तमाम विरोध प्रदर्शनों के बावजूद इस मामले में कोई ऍफ़आईआर तक दर्ज नहीं की गयी.
आखिर को राष्ट्र के सम्मान का मामला था. और सम्मान के लिए बलिदान तो देने ही पड़ते हैं. अब क्या करें की बलि सिर्फ गरीबों की चढ़ती. हमारी तो पुरानी परंपरा भी है. पुल बनाने से पहले नरबली देने की. अंग्रेज बहादुर तक निभाते थे. उनके राज और अपनी सौभाग्यमयी गुलामी के इस महान स्मृतिपर्व पर हम इससे बेहतर और करते भी क्या?
बेहतरीन!! शायद ये सच है की नैतिकता का पतन इस स्तर तक पहुँच गया है, जहाँ पर दिखावे के लिए मानवीय भावनाओं और मूल्यों की बलि देना एक परंपरा बन चुकी है. एक ऐसी परंपरा जो कि शायद पुल बनाने से पहले जानवारों कि बलि देने से भी ज्यादा खतरनाक है. रस्ष्ट्र गौरव कि कीमत में भी मोल टोल का जुगाड़ होता तो शायद ७०,००० करोर कि क़ुरबानी न देनी पड़ती!!!
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