आखेटक आस्थाओं का आर्तनाद

आखेटक आर्तनाद नहीं करते, आर्तनाद तो बस शिकार के हिस्से में आता है. पर फिर, कुछ बड़े आखेटक हुए. पूर्वी उत्तर प्रदेश (और हिन्दी पट्टी के कुछ अन्य क्षेत्रों में भी) में मशहूर कहावत जबरा मारे पर रोवे ना दे अंदाज वाले. रोये तो और मारेंगे की खांटी लोकतान्त्रिक धमकी के सहारे वे बेचारे शिकार के हिस्से से रोना भी छीन लेते थे.

पर फिर उनसे भी बड़े आखेटक पैदा हुए. ये आखेटक शिकार करने के बाद खुद ही आर्तनाद करने लगते थे. अरण्यरोदन की परम्परा के बहुत आगे वाला आर्तनाद. ये गाँवगाँव, शहर शहर घूम कर विलाप करते थे. ये बताते थे की कैसे इनके साथ अत्याचार हुआ है. अत्याचार भी कोई ऐसा वैसा नहीं वरन अव्वल दर्जे का. कि कैसे ५००० साल से स्थापित इनकी प्रभुता के खिलाफ आवाजें खड़ी होने लगीं हैं और जब ये आखेटक बेचारे इन आवाजों को गुजरात और उडीसा जैसे प्रयोगों से दबाते हैं तो इनके खिलाफ मुक़दमे होने लगते हैं. घोर कलयुग..

ये आखेटक कोई सामान्य आखेटक नहीं थे. इनके हाथ में धर्म की ध्वजा थी, राम इनके दिल में नहीं बल्कि मुँह में होते थे (और हिन्दीपट्टी की सामुदायिक स्मृति के मुताबिक जिसके मुह में राम हो उसके बगल में छूरी होने की संभावना काफी बढ़ जाती है.) इन आखेटकों की एक और खासियत थी. इनका आर्तनाद अक्सर हमले के बहुत पहले ही शुरू हो जाता था. ये कुछ करने के बरसों पहले से चिल्लाने लगते थे. ये जनता का दुःख जानने के पहले ही उसके कारणों की तलाश (वास्तविकता में इजाद करने में) लग जाते थे और सफलतापूर्वक ढूंढ भी लेते थे. अब इसमें इनकी क्या गलती कि इनकी समझदारी में दुःख कोई भी हो ‘अन्यों’ यानी की दूसरों की ही वजह से होता था.

हद तो यह थी कि बार्बरिक जातीय भेदभाव से लेकर सती प्रथा तक समस्या कोई भी हो, इनका विश्लेषण बस एक ही कारण तक पंहुचता था. बुराई जो भी हो दूसरों की वजह से है. अब क्या हुआ कि पति की मृत्यु के बाद पत्नी को उसी की चिता पर जिन्दा जला देने वाली ‘महान’ और ‘शास्त्रसम्मत’ सतीप्रथा की शुरुआत होने तक तो ‘अन्य’ पैदा भी नहीं हुए थे. क्या हुआ कि गलती से किसी दलित की कानों में वेदवाक्य पड़ जाने की सजा कानों में पिघला शीशा डालना निर्धारित करने वाली ‘स्मृतियों’ के समय तक दुनिया में कोई और धर्मग्रन्थ लिखा ही नहीं गया था. क्या हुआ कि ‘ब्राहमण’ रावण का वध करने के बाद प्रायश्चित करने पर मजबूर होने वाले इनके मर्यादा पुरुषोत्तम को शम्बूकवध करने पर कोई प्रायश्चित करने की जरूरत नहीं पडी. (वैसे शातिर तो ये इतने थे कि उस ज़माने में कोई ‘अन्य’ मिलते तो शम्बूकवध की जिम्मेदारी उन पर डालते इन्हें कतई देर ना लगती पर बेचारे!)

इन आखेटकों की एक और खूबी थी शब्दों से खेलना. ये कभी ‘अन्य’ को उसके नाम से संबोधित नहीं करते थे. उनके लिए ये हमेशा नए शब्द गढते थे जैसे कि यवन या म्लेच्छ. और इन शब्दों को गढ़ते हुए ये ख्याल रखते थे कि इन शब्दों में एक खास किस्म की नफ़रत हो. वैसी नफ़रत नहीं जो साफ़ साफ़ दिखे बल्कि वैसी जो धीरे धीरे रगों में उतर जाय, खून में घुल जाने वाले जहर की तरह. ये शब्द गढ़ लेने के बाद ये उनका इतना इस्तेमाल करते थे कि ये शब्द अकेले इंसानों की रगों में उतरने के बाद धीरे धीरे समाज के खून में घुल जाएँ.

कमाल की बात ये थी कि ये आखेटक इन शब्दों का इस्तेमाल हमेशा आर्तनाद करते हुए करते थे. जैसे की ये कि इन म्लेच्छों के आने के पहले इस देश में कोई पर्दा प्रथा नहीं थी, और पर्दा तो इनसे ‘हमारी स्त्रियों’ की सुरक्षा के लिए अस्तित्व में आया है. आर्तनाद करने के तुरंत बाद ये आखेटक अतीतजीवी वीरबालक मुद्रा में परकाया प्रवेश कर जाते थे कि हमारे समाज में तो स्त्रियां कितनी स्वतंत्र थीं. कि इनके पास तो गार्गी, मैत्रेयी, अपाला और लोपामुद्रा जैसी महान महिलायें थीं और यहाँ तक कि गार्गी ने तो शास्त्रार्थ में याज्ञंवल्क्य को पराजित भी किया था. पर ऐसी महान परम्परा वाले आखेटकों से यह पूछते ही कि, उसके बाद क्या हुआ भगवन, आर्तनादी चुप्पी के सिवा कुछ नहीं मिलता.

यह अतीतजीवी कभी नहीं बता सकते कि पराजय के बाद याज्ञंवल्क्य ने कहा कि ‘हे दुष्ट स्त्री अब इसके बाद शब्द भी बोला तो तुम्हारा सर खंड खंड (हिन्दी में टुकड़े टुकड़े) हो जायेगा!’ और बस, उत्तर वैदिक काल से लेकर २००० वर्षों तक स्त्रियों का जिक्र मर्यादा पुरुषोत्तम के लिए लिखे गए रामचरित मानस में वर्णित ‘ढोल गंवार सूद पशु नारी/ ये सब ताडन के अधिकारी’ परंपरा में ही हुआ. पर फिर, इसका भी दोष दूसरों यानी कि ‘अन्य’ के ही सिरमाथे.

खैर, आखेटक आस्था के यह महान आर्तनादी अलम्बरदार फिर से काम पर लग गए हैं. कि भाई आतंकवाद को भगवा आतंकवाद क्यूँ कहा जा रहा है? कि आतंकवाद को धर्म से जोड़ना गलत है और यह इनके महान हिन्दू धर्म को बदनाम करने कि साजिश है और वगैरह वगैरह. अब इसका क्या कि इन्होने सारी जिंदगी इस्लामिक आतंकवाद शब्दयुग्म का ही प्रयोग किया और खूब धडल्ले से किया? इसका क्या कि ऐसे भी कई आतंकवादी कृत्य जो इनके किये थे (जैसे मालेगाँव और कोटा) उसके लिए इनके आर्तनाद की ही वजह से कुछ निर्दोष ‘अन्यों’ को सजा भी मिल चुकी.

खैर, आखेटक आस्था के यह महान आर्तनादी अलम्बरदार फिर से काम पर लग गए हैं. कि भाई आतंकवाद को भगवा आतंकवाद क्यूँ कहा जा रहा है? कि आतंकवाद को धर्म से जोड़ना गलत है और यह इनके महान हिन्दू धर्म को बदनाम करने कि साजिश है और वगैरह वगैरह. अब इसका क्या कि इन्होने सारी जिंदगी इस्लामिक आतंकवाद शब्दयुग्म का ही प्रयोग किया और खूब धडल्ले से किया? इसका क्या कि ऐसे भी कई आतंकवादी कृत्य जो इनके किये थे (जैसे मालेगाँव और कोटा) उसके लिए इनके आर्तनाद की ही वजह से कुछ निर्दोष ‘अन्यों’ को सजा भी मिल चुकी.

तो बस आजकल ये आर्तनादी आखेटक घूम घूम कर विलाप कर रहे हैं. एक दिन तो इनको ‘भगवा आतंकवाद’ के नाम पर इनके धर्म को बदनाम करने की ‘सरकारी साजिश’ के खिलाफ इन्होने राष्ट्रव्यापी धरना दे डाला. अब इसका क्या करें कि उस दिन के सामूहिक विलाप में ‘सुदर्शनिया’ खोजों का सुर मिल जाने पर जो भाव उत्पन्न हुआ वह अद्भुत रूप से जुगुप्साजनक था. फिर इस जुगुप्सा में बेचारगी का भाव मिलते हुए दिखा जब सारे बाँध तोड़ बहता हुआ इनका दर्द जुबान पर आया कि आज इनकी ५००० साल की प्रभुता के खिलाफ जो लोग खड़े हुए हैं वह अन्य नहीं वरन वही लोग हैं जिनको इन आर्तनादियों ने ५००० साल से बलपूर्वक पददलित कर रखा था. जैसे कि यह चाहते थे कि इनके धर्म द्वारा घृणित करार दिए गए लोग इनका दिया तमगा सारी जिंदगी स्वीकार कर रखें.

बस इसीलिए इस बार इन आखेटकों का आर्तनादी अरण्यरोदन इनके बेईमान सच की ईमानदार अभिव्यक्ति के रूप में दिख रहा है कि इनकी ‘सामजिक समरसता’ का ‘सामजिक क्रांति’ की ताकतें कैसे विसर्जन कर रही हैं.

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