हमारा शहीद भगत सिंह 'आर्यवीर' नहीं है.

[२३ मार्च २०११ को 'स्मृतियों की ताकत' शीर्षक से जनसत्ता में प्रकाशित]


'राजघाट' सब जानते हैं, फिरोजशाह कोटला मैदान भी. पर इनदोनो मशहूर जगहों से जरा सा आगे बढ़ते ही आईटीओ के ठीक पहले पड़ने वाले 'शहीद भगत सिंह पार्क' को कम ही लोग जानते होंगे. उससे भी कम लोग जानते होंगे कि नामों की राजनीति करने वाले इन वक्तों में यह सिर्फ एक और नाम नहीं है वरन भारत राष्ट्र के इतिहास का एक मीलपत्थर है, इस देश की धर्मनिरपेक्ष आत्मा का एक तीर्थस्थल. यही वह जगह है, जहां सितंबर 1928 में हिंदुस्तान सोशलिस्ट रिपब्लिकन एसोसिएशन की वह स्थापना बैठक हुई थी, जिसमें चंद्रशेखर आजाद को नेतृत्व और भगतसिंह को विचारधारात्मक नेतृत्व सौंपा गया था। राष्ट्र-निर्माताओं की स्मृतियों से जुड़ी इन दो जगहों में से एक की प्रसिद्धि (जो जरूरी भी है वाजिब भी) और एक की गुमनामी अकारण नहीं है. दरअसल, यह अंतर हमारे राष्ट्र और इतिहास-बोध, दोनों के सामने एक ठिठका हुआ सवाल खड़ा करता है।

साफ़ है कि स्मृतियों के सम्मान का मसला उतना भी सीधा और आसान नहीं होता जितना ''महान लोगों की तुलना में गुमनाम लोगों की स्मृतियों को सम्मान देना बहुत कठिन है'' कहते हुए प्रख्यात दार्शनिक वाल्टर बेंजामिन ने सोचा होगा. यहां मसला सिर्फ महानता का नहीं है। आखिरकार भगतसिंह और उनके साथी अपनी महानता में किसी से कम नहीं हैं। मसला है सत्ता के लिए स्मृतियों की उपादेयता का। शासक वर्गों के लिए वैसी स्मृतियों का कोई मोल नहीं होता, जिन्हें वह अपना हित साधने के लिए इस्तेमाल न कर सके।

भगतसिंह की स्मृति एक ऐसी ही स्मृति है, जो काम आने की जगह उनके खिलाफ खड़ी हो जाती है। जैसे कि 1928 की उस बैठक में उन्होंने साथियों के साथ मिल कर तय किया था कि उनके संगठन का लक्ष्य सिर्फ आजादी नहीं, बल्कि समाजवाद है। और यह भी कि उन्होंने अपनी मां को एक खत में लिखा था कि ‘यकीनन एक दिन भारत आजाद होगा, पर मुझे डर है कि तब गोरे साहबों की खाली की हुई कुर्सियों पर भूरे साहब काबिज हो जाएंगे।’ उन्हें पता था कि मालिक बदलने से गुलामी खत्म नहीं हो जाती। यह भी कि इस मुल्क की आजादी जाति और धर्म आधारित भेदभावों पर टिके हुए इस समाज के बर्बर और पूर्व-आधुनिक बुनियादी ढांचे को ध्वस्त किये बिना हासिल नहीं की जा सकती। उनका ‘अछूत समस्या’ पर लिखा गया लेख यहां खत्म होता है कि अगर हमने आजादी का राजनीतिक लक्ष्य जाति-प्रथा और धार्मिक कट्टरपंथ को खत्म करने वाली एक सामाजिक क्रांति के बिना पा भी लिया, तो वह क्रांति न स्थायी होगी न अंतिम। उनका यह कथन उन्हें जोतिबा और बाबासाहेब आंबेडकर के साथ खड़ा कर देता है।

और यही वह चीज है, जो उन्हें सत्ता के लिए अप्रासंगिक बना देती है.शायद कहने की जरूरत ही नहीं है, कि आजादी की लड़ाई के वक्त बुने गए सपनों को बेच कर खा गए सत्ता वर्ग के लिए जोतिबा और बाबा साहब के साथ खड़ा होना सिर्फ अप्रासंगिक होना ही नहीं शत्रु होना भी है.

पर शासकवर्ग की दिक्कत यह है कि देश की आमजनता के दिलों में बसे भगत सिंह को वह चाह कर भी ख़ारिज नहीं कर सकता. हाँ, वह उनके विचारों की ताकत से सहमा जरूर रहता है. और तब सत्ता उनसे लड़ने के लिए अपना सबसे कारगर हथियार इस्तेमाल करती है. हज़ार बार बोल कर झूठ को सच बनाने का यह गोएबल्सिया हथियार स्मृतियों की चोरी के भी काम आता है और इसी से सत्ता अपनी गरिमा, ताकत और यहाँ तक की कमजोरियों के साथ खड़े मानवीय भगत सिंह के असली चेहरे को चुरा कर उन्हें एक महामानव की मूर्ति के रूप में गढ़ना शुरू कर देती है. धीरे धीरे भगत सिंह का हैट केसरिया पगड़ी में बदलने लगता है, और उनके सिर्फ मूंछ वाले चेहरे की जगह धीरे धीरे एक पूरी दाढ़ी वाला आदमी लेने लगता है.

यह वह जगह है जहाँ भगत सिंह की स्मृतियाँ चुराने की सत्ता की कोशिश (लगभग) सफल हो जाती है. केसरिया पगड़ी और दाढ़ी वाला यह आदमी अब हमारा भगत सिंह नहीं रह जाता, वरन हुक्मरानों के काम आने वाला एक 'प्रतीक' बन जाता है. अशफाक उल्लाह खान का दोस्त, अपनी फांसी के बस चंद रोज पहले 'मैं नास्तिक क्यों हूँ' जैसा लेख लिखने वाला, अमृत छकने से इनकार करने वाला, और समाजवादी भगत अचानक से 'आर्यवीर शहीद भगत सिंह' में बदलने लगता हैं. (शुक्र है कि सांस्कृतिक राष्ट्रवादी हिन्दी में 'शहीद' का सही और सादा अनुवाद उन्हें आज भी नहीं मिला है). सोचिये कि 'हम में से जो लोग संपूर्ण स्वतंत्रता के लिए काम करते हैं, वे धर्म को मानसिक गुलामी मानते हैं' कहने वाला, शख्स और कुछ भी हो, आर्यवीर कैसे हो सकता है?

इन सवालों का मतलब भी बहुत साफ़ है, और जवाब भी. कुछ महापुरुषों की स्मृतियाँ सत्ता के काम आ सकती हैं और आती हैं. जैसे की गांधीजी के लिए मेरे मन में पूरे सम्मान के बावजूद 'वर्णव्यवस्था' का उनका समर्थन इस मुल्क के सामंतवादियों को ताकत देता है जबकि जातिप्रथा को सीधी चुनौती देने वाले भगत सिंह उनके लिए शत्रु बन कर खड़े हो जाते हैं. कि इस बाजारवादी व्यवस्था और शासनपद्धति का 'कोई विकल्प नहीं है' का नारा देने वालों को 'इन्कलाब की तलवार विचारों की सान पर तेज होती है' कहने वाले भगत सिंह डरायेंगे ही. शायद यही देख कर भगत सिंह, राजगुरु और सुखदेव के शहादतदिवस २३ मार्च को ही शहीद हुए क्रन्तिकारी कवि अवतार सिंह पाश ने भगत सिंह के लिए लिखा था ''शहीद होने की घड़ी में वह अकेला था, ईश्वर की तरह, लेकिन ईश्वर की तरह निस्तेज नहीं था." सोचिये, कि हर अन्याय के खिलाफ जान तक देकर लड़ना सिखाने वाले भगत सिंह को क्या हम 'निस्तेज' होते देख सकते हैं? अगर नहीं तो यह समय उनकी स्मृतियों को बेईमान हाथों से वापस छीन लेने का है.

और भगत सिंह की स्मृतियों को बेईमान हाथों से वापस छीन लेने का सिर्फ एक हथियार है, उनको अपने दिलों में जिन्दा रखना और उनके विचारों को जीना. सिर्फ यही है जो भगत सिंह और उनकी विरासत को निस्तेज होने से बचा सकता है. आखिर में भगत सिंह और उनके साथियों के लिए ..

मेरी साँस साँस इस बात की शाहिद है दोस्त/
के लुत्फ़ के हर मौके में मैंने तुम्हे याद किया//

Comments

  1. मालिक बदलने से गुलामी खत्म नहीं हो जाती

    sach hai bhaai!

    Bhagat Singh jaise yug purush aajki raajneeti me baune kar diye gaye hain!

    aatglaani ka vishay hai ye! Khud kee napunsakta ka bhram hota hai is raajnaitik parivesh me!

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  2. शहीद का हुतात्मा बना लिया है उनलोगों ने!
    लेख बढिया है।

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  3. प्रिय मित्र, शेयर कर रहा हूँ. गिरिजेश

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  4. सम्पूर्ण लेख अक्षरशः सटीक आकलन हे लेकिन फिर भी ये एक "विचार" के आधार पर भगवान् के चुनाव की लड़ाई का अहसास दिलाता हे. शासक वर्ग सदैव बड़ा कुटिल रहा हे, और लेखक की आपत्तिय निर्मूल नहीं हे लेकिन ये कैसे हो कि भगत सिंह कथित "धर्म निरपेक्ष" और "नास्तिक" लोगो का भगवान् बन जाए ? निश्चित तौर पर ये तो उससे भी बड़ी साजिश सी प्रतीत होती हे. भगत सिंह के लेख "मैं नास्तिक क्यों हूँ" को आधार बना कर इसके उद्धरण ऐसे कई लोग अपने लेख में दिया करते हैं, लेकिन इस लेख में भगत सिंह स्वयं स्वीकार करते हैं कि उन्हें कभी एशियाई दर्शन पड़ने का मौका नहीं मिला. भगत ने हमेशा वैश्विक स्तर पर हो चुकी या हो रही क्रांतियो का अध्ययन किया, और उसी के अनुरूप उन्होंने अपने विचार स्थापित किये, लेकिन निश्चित रूप से वो सम्पूर्ण नहीं थे.
    समाज को दिशा देने के लिए हमेशा एक नायक की जरुरत पड़ती रही हे और भगत सिंह आज की तारीख में सम्पूर्ण भारतीय युवा पीड़ी के अघोषित नायक हैं, लेकिन नास्तिक वर्ग के द्वारा उनको इस तरह से हथिया लिया जाना भी समाज में अनचाही अराजकता और अशांति को बढावा देना होगा

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  5. सम्पूर्ण लेख अक्षरशः सटीक आकलन हे लेकिन फिर भी ये एक "विचार" के आधार पर भगवान् के चुनाव की लड़ाई का अहसास दिलाता हे. शासक वर्ग सदैव बड़ा कुटिल रहा हे, और लेखक की आपत्तिय निर्मूल नहीं हे लेकिन ये कैसे हो कि भगत सिंह कथित "धर्म निरपेक्ष" और "नास्तिक" लोगो का भगवान् बन जाए ? निश्चित तौर पर ये तो उससे भी बड़ी साजिश सी प्रतीत होती हे. भगत सिंह के लेख "मैं नास्तिक क्यों हूँ" को आधार बना कर इसके उद्धरण ऐसे कई लोग अपने लेख में दिया करते हैं, लेकिन इस लेख में भगत सिंह स्वयं स्वीकार करते हैं कि उन्हें कभी एशियाई दर्शन पड़ने का मौका नहीं मिला. भगत ने हमेशा वैश्विक स्तर पर हो चुकी या हो रही क्रांतियो का अध्ययन किया, और उसी के अनुरूप उन्होंने अपने विचार स्थापित किये, लेकिन निश्चित रूप से वो सम्पूर्ण नहीं थे.
    समाज को दिशा देने के लिए हमेशा एक नायक की जरुरत पड़ती रही हे और भगत सिंह आज की तारीख में सम्पूर्ण भारतीय युवा पीड़ी के अघोषित नायक हैं, लेकिन नास्तिक वर्ग के द्वारा उनको इस तरह से हथिया लिया जाना भी समाज में अनचाही अराजकता और अशांति को बढावा देना होगा

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