विश्वकप 2011- हम एक सपना हारे हुए लोग हैं..

बरसों पहले की बारिशों वाली एक शाम को इलाहाबाद शहर की सड़कों पे कुछ आवारगी और कुछ सायास घूमते हुए हम कुछ दोस्तों के क़दमों के साथ साथ हमारी बातचीत का रास्ता इस मुल्क में वामपंथ के हाल (या कि बदहाली) की तरफ घूम गया था. और उसी बातचीत के दौरान कोमरेड प्रदीप ने एक बहुत सादा पर बहुत बड़ी बात कही थी कि वामपंथ के साथ सबसे बड़ी दिक्कत है कि वह अक्सर कॉमन सेन्स (हिन्दी में सहजबोध) के खिलाफ खड़ा होने पर मजबूर होता है. जाना और जिया गया सच होने के बावजूद रूमानी क्रांतिकारिता से लबालब भरे (और जरूरत गैरजरूरत छलकते रहने के भी) उस दौर में हमें यह बात बहुत छोटी लगी थी. वैसे भी लगभग कोई भी बात अपनी नास्तिकता के ऐलान (और यह करने वाले हम अकेले नहीं थे) से शुरू करने को एक जरूरी राजनैतिक कार्यवाही मानने वाले हम लोग सामुदायिक सहजबोध को 'छद्म चेतना' से ज्यादा कुछ समझते भी कहाँ थे?

फिर, जिस समाज में हम जी रहे थे उसका सहजबोध गौरव करने लायक बहुत कुछ था भी नहीं. 20वीं सदी के आखिरी दशक में भी जातिगत गैरबराबरी की आदिकालीन बुराई को अपने कंधे पर ढोए जा रहे हमारे इस समाज ने कुछ अरसा पहले सांस्कृतिक राष्ट्रवाद का अतीतगामी रास्ता भी पकड़ लिया था. वह वक्त ज्यादा दूर नहीं थे जब उन वक्तों के कुछ अलमबरदारों को 'गाय' को 'दलितों' के जीवन से ज्यादा महत्वपूर्ण बताना था, और एक मुख्यमंत्री को अपने राज्य में चल रहे सामूहिक नरसंहार को 'क्रिया की स्वाभाविक प्रक्रिया' बताकर ख़ारिज करना था. और स्त्रियों के बारे में इस समाज के सहजबोध के बारे में तो खैर कुछ कहने की जरूरत थी ही नहीं. लड़कियों को क्या पहनना है क्या नहीं सिखाना शुरू करने से लेकर उनके चरित्र तक के बारे में चिंतित इस समाज का सहजबोध स्त्री के स्त्रीत्व से आगे उनके जीवन को स्वीकार करने को ना तब तैयार था और ना अब.

उन वक्तों में जब इलाहाबाद और तमाम अन्य विश्विद्यालयों में छात्रों को कमरे उनके जातिनाम के आधार पर दिए जाते थे, जब चुनावों में प्रत्याशी अपनी राजनैतिक सक्रियता के आधार पर नहीं बल्कि चुनावक्षेत्र में विभिन्न जातियों की संख्या के समीकरणों के आधार पर तय किये जाते हों, हम जातिप्रथा का उन्मूलन का सपना लिए बैठे थे. उन वक्तों में जब तमाम राजनीति मंदिर और मस्जिद के मालिकाने के आधार पर देशभक्ति नापने का यंत्र बनाने में जुटी हुई थी हम भगत सिंह का लेख 'मैं नास्तिक क्यूँ हूँ' बाँटने में लगे रहते थे. उस दौर में जब हिन्दी से लगायत अंगरेजी तक के तमाम अखबार 'उदारवाद' की विरुदावली गाने में लगे थे हम बाबासाहेब आंबेडकर के देखे आर्थिक लोकतंत्र के सपने को सफल बनाने में लगे थे. उन वक्तों में जब तब कोंग्रेस से लेकर भाजपा तक की सरकारें 'कल्याणकारी राज्य' के आदर्श को अमरीकी दबाव में मुक्त बाजार में गिरवी रखे जा रहे थे हम सर्वहारा संघर्षों की 'अनश्वर अग्निशिखाओं' को अपने अन्दर रोशन किये बैठे थे.

ऐसे में जातिवाद, साम्प्रदायिकता, पितृसत्ता, पूंजीवाद, और देश पर लादी जा रही मुक्त बाजारवादी अर्थव्यवस्था के खिलाफ खड़े हम उस समाज के सहजबोध के मुताबिक़ 'मिसफिट' तो थे ही, उसके प्रतिपक्ष के सिवा कुछ हो भी नहीं सकते थे. और हम सिर्फ प्रतिपक्ष बने रहने को तैयार नहीं थे. हमने सारी उम्र इस सहजबोध से लड़ने का, और एक ईमानदार वैकल्पिक सहजबोध गढ़ने का सपना देखा था. और फिर, उस उदास, पर उम्मीदों भरी शाम में हमारी आँखों की चमक कुछ बढ़ी ही थी. इस दुनिया को और बेहतर, और बराबर और मानवीय बनाने की ख्वाहिशों की उजास दिलोदिमाग की देहरी पार कर हमारी आँखों में उतर आयी थी.

आज, उस शाम के करीब एक दशक बाद, क्रिकेट विश्वकप में भारत की जीत पर इतराते करोड़ों लोगों को देख कर फिर समझ आया कि हज़ार कोशिशों के बावजूद, हम और अपनी अपनी जगहों पर अपने अपने तरीकों से यह लड़ाई लड़ते हमारे जैसे तमाम लोग उस सपने के करीब भी नहीं पंहुच पाए हैं. दुनिया अब भी उतनी ही निर्मम है, उतनी ही गैरबराबर, बस 'अफीम' बदल गयी है. पहले सिर्फ 'धर्म' जनता की अफीम होती थी अब क्रिकेट भी है. वरना क्या वजह होती 121 करोड़ लोगों वाले देश में जहाँ हर रात 70 करोड़ लोग भूखे पेट सोते हों वहाँ एक खेल के नाम पर ऐसा पागलपन ऐसी फिजूलखर्ची की जाय. क्या वजह हो सकती है, कि 900 करोड़ रुपये का विशुद्ध मुनाफ़ा कमाने वाले इस आयोजन को टैक्स माफी दे दी जाए और कहीं कोई उफ़ तक ना हो. उसी मुल्क में जहाँ 1 लाख से ज्यादा किसानों की आत्महत्या की बाद कर्ज माफी के खिलाफ कोर्पोरेट घरानों और उनके पालतू अखबारों ने आसमान सर पर उठा लिया था.

मसला सिर्फ मनोरंजन का नहीं है. मनोरंजन हर खेल से होता है. पर टैक्स माफी मनोरंजन के लिए तो नहीं होती. वह राष्ट्रीय हित के लिए होती है , होनी चाहिए . और 900 करोड़ मुनाफे (केवल आयोजन समिति का, अभी इसमें प्रसारणकर्ता चैनलों का मुनाफा शामिल नहीं है) वाला आयोजन टैक्स दे कर राष्ट्र हित कर सकता है, टैक्स माफी ले कर नहीं. अब इसमें यह जोड़ लें कि तमाम उन्माद पैदा करने की कोशिशों के बावजूद इस विश्वकप को भारत में देखने वालों (मैदान और टेलीविजन पर जोड़ कर) 7 करोड़ से ज्यादा नहीं रही है. पर शायद यही 7 करोड़ लोग हैं जिनका सहजबोध 'राष्ट्रीय सहजबोध' होता है, जिनका हित 'राष्ट्रीय हित' होता है और जिनकी जीत राष्ट्रीय जीत होती है. क्या हुआ, कि ११४ करोड़, या कि राष्ट्र के ९४.२ प्रतिशत नागरिक इनमे शुमार नहीं होते.

मौका है इस जीत के नशे में डूब जाने का और मान लेने का कि सब कुछ सही है, अब कहीं कोई गड़बड़ नहीं है. मौका है मान लेने का कि कोई 2-जी घोटाला नहीं हुआ, कहीं कारगिल के शहीदों के नाम पे कोई लूट नहीं हुई, कि देश आगे जा रहा है, विश्वविजेता है.

प्रगति, विकास, और बाजार की इस दौड़ में पीछे छूट गए इस देश के 114 करोड़ 'नागरिकों' को भूल जाने का भी शायद यही सबसे अच्छा मौका है. अब इसका क्या करें कि भुलाए नहीं भूलता कि विश्वकप चाहे जीत गए हों, हम एक सपना हारे हुए लोग हैं.

Comments

  1. aapka kahna bilkul sahi hai bhai jaan .........lekin yah bhi sahi hai apna khusi ko roka kaise jay ...

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  2. wasn't satisfied with the initial half part of the title. "hm ek spna hare hue log hai"sahi kaha, pr baat ko effectively remind karane ke liye WC 2011 se relate krna utna effective nhi lga. had it been common wealth bahut satik teer marta ye pdne vale ke man me. but this time it isnt that appealing the issues u have raised r of-course right, completely agree with u. just found the comparison part weaker.
    janab ye manoranzan ka hissa tha kitne bhi dukh honge society me,log kitne bhi galt honge..pr manoranzan se kaise nata tod skte hai?
    aur isme galt kya hai. phle se bne banaye stadium me match hi to khel rhe the garib bhi khush hua amir bhi. mai janti hu materialistically isne bhale hi koi fayada na kiya ho garib jnta ko but emotionally to kiya naa.

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