बहुत मुश्किल होता है उन वक्तों की पड़ताल करना जब दोस्त और दुश्मन एक साथ एक ही खेमे में खड़े दिखें. उससे भी मुश्किल काम बन जाता है उन वक्तों की पड़ताल करना जब ये सारे दोस्त और दुश्मन मिलकर क्रांति, और जीत का दावा करते एक लगभग उन्मादी वातावरण बनाते हुए नारे लगाने में शरीक हों. इन पड़तालों की कोशिश के अपने खतरे भी खूब होते हैं. भावनात्मक उन्माद के दौर में बिना पढ़े और समझे खारिज कर दिए जाने के खतरे. पर यही दौर होते हैं जब मुक्तिबोध के शब्द उधार ले कर कहूँ तो 'अभिव्यक्ति के सारे खतरे' उठाना न सिर्फ जरूरी बल्कि सबसे जरूरी काम भी बन जाता है. अभी अभी 'विजय' के साथ ख़त्म हुआ अन्ना हजारे और 'सिविल सोसायटी' के उनके साथियों का अनशन हमारे समयों का एक ऐसा ही पड़ाव है. और इस पड़ाव की एक जमीनी सच्चाइयों के जमीनी विश्लेषण( concrete analysis of concrete realities) पर आधारित राजनीतिक समझदारी बनाना आज के अंतर्द्वंदों से जूझ रहे हमारे साथियों के लिए एक जरूरी राजनैतिक कार्यभार है.
अब क्योंकि कुल चार दिनी आयोजन/आन्दोलन कमसेकम मीडिया के मुताबिक़ जेपी आन्दोलन से कुछ कम नहीं था, इसके पीछे की राजनीति की पड़ताल थोड़ी तो बड़ी होगी, और इसीलिये हमें यह कोशिश टुकड़ों में करनी चाहिए. तो सबसे पहला हिस्सा यह रहा, जहाँ हम इस आन्दोलन की राजनीति इसके समर्थकों की राजनीति से समझने की कोशिश कर कर सकते हैं.
जरा सोचिये एक ऐसे आन्दोलन के बारे में जहाँ भाजपा, भाकपा माले लिबरेशन और भारी पूंजीपतियों का संगठन फिक्की एक साथ नजर आते हैं. और फिर याद करिए मार्क्स को, जिन्होंने विश्वइतिहास को वर्ग संघर्षों का इतिहास कहते हुए यह भी कहा था की शोषक और शोषित वर्गों के वर्गहित ना केवल एक दूसरे से अलग होते हैं वरन एक दूसरे के प्रतिलोमी भी होते हैं! अब खुद से एक सवाल पूछिए की क्या छतीसगढ़, झारखंड से लेकर सारे देश में पूंजी के प्रतिनिधि 'फिक्की' और सर्वहारा वर्ग संघर्षों का झंडा उठाये लिबरेशन की राजनैतिक समझदारियों में उनके वर्ग हित एक ही हो सकते हैं? अब इसमें सांप्रदायिक भाजपा के सबसे बड़े हत्यारे नरेन्द्र मोदी को जोड़िये, जिनका गुजरात गौरव मुस्लिमों के कत्लेआम के साथ साथ बड़ी पूंजी को खुली छूट देने के कारनामों से ही आगे बढ़ता है. (अकारण ही नहीं है की फिक्की और इस देश के बड़े उद्योगपति जब तब नरेंद्र मोदी को अपने सपनों का प्रधानमंत्री घोषित करते फिरते हैं). और तब आप यह सवाल दोहरा कर कुछ इस अंदाज में पूछ सकते हैं कि जो वामपंथी संगठन वहां थे, क्यों थे? क्या उन्हें लग रहा था कि इस देश के पूंजीपतियों और सांप्रदायिक ताकतों का चरित्र रातोंरात बदल गया है और वह जनता का भला चाहने लगे हैं? या यह कि गांधीवादी राजनीतिक ने अपना 'बुर्जुआ राष्ट्रवादी' चरित्र बदल कर सर्वहारा संघर्षों का बीड़ा उठा लिया है, और अगर उठा ही लिया है तो फिर इस देश में वामपंथी पार्टियों की जरूरत ही क्या रह जाती है?
यह तीन इस दिलचस्प जमावड़े का सिर्फ एक हिस्सा हैं. इस जमावड़े पर फिर से एक नजर डालिए. आपको यहाँ 'आरक्षण' को देश बांटने की साजिश बताने वाले श्री श्री रविशंकर मंच पर दिखेंगे, और आरक्षण समर्थन का दावा करने वाला वामपंथी पार्टी लिबरेशन का छात्र संगठन आइसा, आरक्षण विरोधी वामपंथी छात्र संगठन एआईडीएसओ के साथ मंच के सामने खड़े श्रोताओं में. यह वह जमावड़ा है जहाँ स्वघोषित 'गांधीवादी' अन्ना हजारे भ्रष्ट नेताओं के लिए 'फांसी' माँगते हुए दिखेंगे(गांधीवाद और फांसी का अंतर्संबंध समझेने में दिक्कत हो तो यह जान लें की अन्ना हजारे साहब महाराष्ट्र नवनिर्माण सेना और उसके नेता राज ठाकरे द्वारा किये गए हमलों के समर्थक थे. गलतबयानी का कोई आरोप लगे उससे पहले ही लिंक यह रहा--http://www.hindustantimes.com/Hazare-backs-Raj-s-tirade-against-Non-Marathis/Article1-368036.aspx
इन सबके साथ अभी कल तक 'कैबिनेट फिक्सिंग' और उसके परिणामस्वरुप हुए २-जी स्पेक्ट्रम घोटाले वाले राडिया काण्ड में शामिल रही 'बरखा दत्त' का चैनल एनडीटीवी भ्रष्टाचार के खिलाफ चल रही इस लड़ाई में आपको सबसे आगे खड़ा दिखेगा. वैसे अनशन समाप्ति के बाद धरना स्थल पर किये गए 'हवन' ने मीडिया के राडिया पर्व में शामिल रहे बड़े चैनलों/पत्रकारों की वहां लगातार उपस्थिति का तर्क समझा दिया, आखिर को विश्व हिन्दू परिषद् द्वारा आयोजित धर्मसंसद में जाने वालेबाबा रामदेव और श्री श्री रविशंकर जैसे हिन्दू संतों की उपस्थिति से बेहतर मौका 'प्रायश्चित' करने के लिए मिलेगा भी कहाँ. इन हिन्दू/हिंदुत्ववादी संतों की इस आन्दोलन में उपस्थिति एक दूसरा सवाल भी खड़ा करती है, पब्लिक स्पेसेज में सेकुलर और सेक्रेड की हिस्सेदारी का सवाल. और याद रखिये कि जब धर्म सार्वजनिक जगहों पर प्रवेश करता है तब वह विवेक आधारित वर्तमान लोकतांत्रिक समाज की मूल्य चेतना के खिलाफ ही खड़ा होता है. अब विश्व हिन्दू परिषद् की धर्मसंसद में भारत को हिन्दू राष्ट्र बनाने की कसम खाने वाले संतों के नेतृत्व में चले इस आन्दोलन में काफी सारी 'स्वघोषित' सेकुलर आत्माओं की शिरकत कुछ सवाल तो खड़ी करती ही है.
आखिर में झंझावत की तरह इस देश की राजनीतिक चेतना का नेता बन बैठे अन्ना हजारे की भी बात कर ली जाय. गांधीवादी अन्ना हजारे बीते कुछ दशकों से यदाकदा राजनैतिक चर्चा के केंद्र में आते ही रहे हैं. पिछली बार वह बनारस में दिए गए एक बयान में महारष्ट नवनिर्माण सेना द्वारा 'मुंबई' में 'बाहरी' लोगों पर किये जा रहे हमलों को समर्थन देने के कारण चर्चा में आये थे. उस बयान में उनका साफ़ साफ़ कहना था कि 'राज ठाकरे के कुछ विचार ठीक हैं, लेकिन सार्वजनिक और राष्ट्रीय समाप्ति को नुक्सान पंहुचाना ठीक नहीं है.' सबसे दिलचस्प बात यह है कि निर्दोष (और गरीब) लोगों पर किये जा रहे हमलों के बारे में कई बार कुरेदे जाने के बाद इस 'गांधीवादी' का कुल जमा कहना यह था कि 'अगर 'मनसे' हिंसक तरीके अपनायेगी तो यह 'राष्ट्र के हित में नहीं होगा'. आप (चाहें तो) साफ साफ़ देख सकते हैं कि यह राज ठाकरे और मनसे की सीधी आलोचना से बचने का वही कुटिल तरीका है जिसका आरोप हजारे साहब 'भ्रष्ट' नेताओं पर लगते रहते हैं. राज ठाकरे से अन्ना हजारे के रिश्ते इस समर्थन से लगभग एक दशक पहले १९९७ तक जाते हैं जब अन्ना और बाल ठाकरे के बीच की 'संवाद हीनता' को दूर करने के लिए राज ठाकरे ने मध्यस्थता की थी और दोनों को 'एक' करने में बड़ी भूमिका निभाई थी. (चरित्रहनन या दुष्प्रचार का आरोप लगे उसके पहले ही यह दूसरा लिंक देख लें, http://www.indianexpress.com/Storyold/2922/ और यह भी ध्यान रखें कि यह दोनों लिंक किसी वामपंथी प्रोपेगेंडा अखबार से न लेकर अन्ना हजारे के कसीदे पढ़ रहे हिन्दुस्तान टाइम्स और इन्डियन एक्सप्रेस से लिए गए हैं). अब अगर यह राजनीति किसी को समझ आ जाए तब उसे यह समझने में कोई दिक्कत नहीं होगी कि अन्ना हजारे गांधीवादी होने के बावजूद कैसे कह सकते हैं कि 'बाहरी लोगों द्वारा राज्य (महाराष्ट्र) में प्रभुत्व बनाने की कोशिश नाकाबिले बर्दाश्त है" (सन्दर्भ वही). एक गांधीवादी की यह भाषा बहुत कुछ कहती है, बस समझने को ज़रा सा दिमाग चाहिए.
यह और बात है कि उसी राज्य में भूख, गरीबी और कर्ज के मारे किसानों की आत्महत्या के खिलाफ इस योद्धा ने तलवार तो क्या कभी जबान तक नहीं चलाई. चलाते भी क्यों, विदर्भ के किसान किसी 'सिविल सोसायटी' का हिस्सा थोड़े ही थे. अब किससे पूछें, कैसे पूछें कि उन किसानों की मौत का हिसाब मांगने वाले इस 'खामोश संत' के साथ क्यों खड़े हैं. और इस संत से क्या पूछें कि भूख, कुपोषण, भुखमरी ये सब कभी इनकी किसी लड़ाई के केंद्र में क्यों नहीं आये.
जवाब है, बहुत सादा भी है, कि सरकारी संतों की परंपरा इस देश में कुछ नयी नहीं है. पता नहीं संत विनोबा भावे कितनो को याद हैं, और किन किन वजहों से याद हैं. पर मैं मुतमईन हूँ कि कुछ तो लोग होंगे जो उन्हें भूदान आन्दोलन के साथ साथ इंदिरा गांधी की इमरजेंसी का समर्थन करने के लिए भी याद करते होंगे. मुझे पता नहीं संत अन्ना हजारे इतिहास में किन-किन वजहों से और किन किन कारनामों से याद रखे जाएंगे, पर यह जरूर है कि इतिहास विदर्भ में मर रहे किसानों की मुख्तारी का दावा करने वालों से जरूर पूछेगा कि वे वहां क्यों खड़े थे। और यह भी कि उन्होंने अपनी मशालें मोमबत्तियों से क्यों बदल ली थीं?
अब क्योंकि कुल चार दिनी आयोजन/आन्दोलन कमसेकम मीडिया के मुताबिक़ जेपी आन्दोलन से कुछ कम नहीं था, इसके पीछे की राजनीति की पड़ताल थोड़ी तो बड़ी होगी, और इसीलिये हमें यह कोशिश टुकड़ों में करनी चाहिए. तो सबसे पहला हिस्सा यह रहा, जहाँ हम इस आन्दोलन की राजनीति इसके समर्थकों की राजनीति से समझने की कोशिश कर कर सकते हैं.
जरा सोचिये एक ऐसे आन्दोलन के बारे में जहाँ भाजपा, भाकपा माले लिबरेशन और भारी पूंजीपतियों का संगठन फिक्की एक साथ नजर आते हैं. और फिर याद करिए मार्क्स को, जिन्होंने विश्वइतिहास को वर्ग संघर्षों का इतिहास कहते हुए यह भी कहा था की शोषक और शोषित वर्गों के वर्गहित ना केवल एक दूसरे से अलग होते हैं वरन एक दूसरे के प्रतिलोमी भी होते हैं! अब खुद से एक सवाल पूछिए की क्या छतीसगढ़, झारखंड से लेकर सारे देश में पूंजी के प्रतिनिधि 'फिक्की' और सर्वहारा वर्ग संघर्षों का झंडा उठाये लिबरेशन की राजनैतिक समझदारियों में उनके वर्ग हित एक ही हो सकते हैं? अब इसमें सांप्रदायिक भाजपा के सबसे बड़े हत्यारे नरेन्द्र मोदी को जोड़िये, जिनका गुजरात गौरव मुस्लिमों के कत्लेआम के साथ साथ बड़ी पूंजी को खुली छूट देने के कारनामों से ही आगे बढ़ता है. (अकारण ही नहीं है की फिक्की और इस देश के बड़े उद्योगपति जब तब नरेंद्र मोदी को अपने सपनों का प्रधानमंत्री घोषित करते फिरते हैं). और तब आप यह सवाल दोहरा कर कुछ इस अंदाज में पूछ सकते हैं कि जो वामपंथी संगठन वहां थे, क्यों थे? क्या उन्हें लग रहा था कि इस देश के पूंजीपतियों और सांप्रदायिक ताकतों का चरित्र रातोंरात बदल गया है और वह जनता का भला चाहने लगे हैं? या यह कि गांधीवादी राजनीतिक ने अपना 'बुर्जुआ राष्ट्रवादी' चरित्र बदल कर सर्वहारा संघर्षों का बीड़ा उठा लिया है, और अगर उठा ही लिया है तो फिर इस देश में वामपंथी पार्टियों की जरूरत ही क्या रह जाती है?
यह तीन इस दिलचस्प जमावड़े का सिर्फ एक हिस्सा हैं. इस जमावड़े पर फिर से एक नजर डालिए. आपको यहाँ 'आरक्षण' को देश बांटने की साजिश बताने वाले श्री श्री रविशंकर मंच पर दिखेंगे, और आरक्षण समर्थन का दावा करने वाला वामपंथी पार्टी लिबरेशन का छात्र संगठन आइसा, आरक्षण विरोधी वामपंथी छात्र संगठन एआईडीएसओ के साथ मंच के सामने खड़े श्रोताओं में. यह वह जमावड़ा है जहाँ स्वघोषित 'गांधीवादी' अन्ना हजारे भ्रष्ट नेताओं के लिए 'फांसी' माँगते हुए दिखेंगे(गांधीवाद और फांसी का अंतर्संबंध समझेने में दिक्कत हो तो यह जान लें की अन्ना हजारे साहब महाराष्ट्र नवनिर्माण सेना और उसके नेता राज ठाकरे द्वारा किये गए हमलों के समर्थक थे. गलतबयानी का कोई आरोप लगे उससे पहले ही लिंक यह रहा--http://www.hindustantimes.com/Hazare-backs-Raj-s-tirade-against-Non-Marathis/Article1-368036.aspx
इन सबके साथ अभी कल तक 'कैबिनेट फिक्सिंग' और उसके परिणामस्वरुप हुए २-जी स्पेक्ट्रम घोटाले वाले राडिया काण्ड में शामिल रही 'बरखा दत्त' का चैनल एनडीटीवी भ्रष्टाचार के खिलाफ चल रही इस लड़ाई में आपको सबसे आगे खड़ा दिखेगा. वैसे अनशन समाप्ति के बाद धरना स्थल पर किये गए 'हवन' ने मीडिया के राडिया पर्व में शामिल रहे बड़े चैनलों/पत्रकारों की वहां लगातार उपस्थिति का तर्क समझा दिया, आखिर को विश्व हिन्दू परिषद् द्वारा आयोजित धर्मसंसद में जाने वालेबाबा रामदेव और श्री श्री रविशंकर जैसे हिन्दू संतों की उपस्थिति से बेहतर मौका 'प्रायश्चित' करने के लिए मिलेगा भी कहाँ. इन हिन्दू/हिंदुत्ववादी संतों की इस आन्दोलन में उपस्थिति एक दूसरा सवाल भी खड़ा करती है, पब्लिक स्पेसेज में सेकुलर और सेक्रेड की हिस्सेदारी का सवाल. और याद रखिये कि जब धर्म सार्वजनिक जगहों पर प्रवेश करता है तब वह विवेक आधारित वर्तमान लोकतांत्रिक समाज की मूल्य चेतना के खिलाफ ही खड़ा होता है. अब विश्व हिन्दू परिषद् की धर्मसंसद में भारत को हिन्दू राष्ट्र बनाने की कसम खाने वाले संतों के नेतृत्व में चले इस आन्दोलन में काफी सारी 'स्वघोषित' सेकुलर आत्माओं की शिरकत कुछ सवाल तो खड़ी करती ही है.
आखिर में झंझावत की तरह इस देश की राजनीतिक चेतना का नेता बन बैठे अन्ना हजारे की भी बात कर ली जाय. गांधीवादी अन्ना हजारे बीते कुछ दशकों से यदाकदा राजनैतिक चर्चा के केंद्र में आते ही रहे हैं. पिछली बार वह बनारस में दिए गए एक बयान में महारष्ट नवनिर्माण सेना द्वारा 'मुंबई' में 'बाहरी' लोगों पर किये जा रहे हमलों को समर्थन देने के कारण चर्चा में आये थे. उस बयान में उनका साफ़ साफ़ कहना था कि 'राज ठाकरे के कुछ विचार ठीक हैं, लेकिन सार्वजनिक और राष्ट्रीय समाप्ति को नुक्सान पंहुचाना ठीक नहीं है.' सबसे दिलचस्प बात यह है कि निर्दोष (और गरीब) लोगों पर किये जा रहे हमलों के बारे में कई बार कुरेदे जाने के बाद इस 'गांधीवादी' का कुल जमा कहना यह था कि 'अगर 'मनसे' हिंसक तरीके अपनायेगी तो यह 'राष्ट्र के हित में नहीं होगा'. आप (चाहें तो) साफ साफ़ देख सकते हैं कि यह राज ठाकरे और मनसे की सीधी आलोचना से बचने का वही कुटिल तरीका है जिसका आरोप हजारे साहब 'भ्रष्ट' नेताओं पर लगते रहते हैं. राज ठाकरे से अन्ना हजारे के रिश्ते इस समर्थन से लगभग एक दशक पहले १९९७ तक जाते हैं जब अन्ना और बाल ठाकरे के बीच की 'संवाद हीनता' को दूर करने के लिए राज ठाकरे ने मध्यस्थता की थी और दोनों को 'एक' करने में बड़ी भूमिका निभाई थी. (चरित्रहनन या दुष्प्रचार का आरोप लगे उसके पहले ही यह दूसरा लिंक देख लें, http://www.indianexpress.com/Storyold/2922/ और यह भी ध्यान रखें कि यह दोनों लिंक किसी वामपंथी प्रोपेगेंडा अखबार से न लेकर अन्ना हजारे के कसीदे पढ़ रहे हिन्दुस्तान टाइम्स और इन्डियन एक्सप्रेस से लिए गए हैं). अब अगर यह राजनीति किसी को समझ आ जाए तब उसे यह समझने में कोई दिक्कत नहीं होगी कि अन्ना हजारे गांधीवादी होने के बावजूद कैसे कह सकते हैं कि 'बाहरी लोगों द्वारा राज्य (महाराष्ट्र) में प्रभुत्व बनाने की कोशिश नाकाबिले बर्दाश्त है" (सन्दर्भ वही). एक गांधीवादी की यह भाषा बहुत कुछ कहती है, बस समझने को ज़रा सा दिमाग चाहिए.
यह और बात है कि उसी राज्य में भूख, गरीबी और कर्ज के मारे किसानों की आत्महत्या के खिलाफ इस योद्धा ने तलवार तो क्या कभी जबान तक नहीं चलाई. चलाते भी क्यों, विदर्भ के किसान किसी 'सिविल सोसायटी' का हिस्सा थोड़े ही थे. अब किससे पूछें, कैसे पूछें कि उन किसानों की मौत का हिसाब मांगने वाले इस 'खामोश संत' के साथ क्यों खड़े हैं. और इस संत से क्या पूछें कि भूख, कुपोषण, भुखमरी ये सब कभी इनकी किसी लड़ाई के केंद्र में क्यों नहीं आये.
जवाब है, बहुत सादा भी है, कि सरकारी संतों की परंपरा इस देश में कुछ नयी नहीं है. पता नहीं संत विनोबा भावे कितनो को याद हैं, और किन किन वजहों से याद हैं. पर मैं मुतमईन हूँ कि कुछ तो लोग होंगे जो उन्हें भूदान आन्दोलन के साथ साथ इंदिरा गांधी की इमरजेंसी का समर्थन करने के लिए भी याद करते होंगे. मुझे पता नहीं संत अन्ना हजारे इतिहास में किन-किन वजहों से और किन किन कारनामों से याद रखे जाएंगे, पर यह जरूर है कि इतिहास विदर्भ में मर रहे किसानों की मुख्तारी का दावा करने वालों से जरूर पूछेगा कि वे वहां क्यों खड़े थे। और यह भी कि उन्होंने अपनी मशालें मोमबत्तियों से क्यों बदल ली थीं?
बहुत खूब... ये मशाल जलती रहे(अन्ना हजारे वाली नही)...
ReplyDeleteशानदार लेख के लिए बधाई...
aapke visleshan se sarthak vahas ki shuruaat honi chahiye.
ReplyDeleteकौआ करे गंग-स्नान
हर हर गंगे...
ऊसर बंजर और मसान
संत विनोवा पाबे दान
हर हर गंगे............नागार्जुन
भाजपा को सांप्रदायिक कहने के अलावा और कुछ भी नहीं है इस लेख में जिससे मुंह मोड़ा जा सके...निश्चय ही एक भक्ति का वातावरण है आज अन्ना साहब के प्रति...होनी भी चाहिए....लेकिन हर तरह के असहमति पर भावना का हावी हो जाना कई बार भ्रष्टाचार से भी खतरनाक होता है....लेखक ने अच्छा इंगित किया है...सुन्दर चिंतन.
ReplyDeleteपंकज झा.
dost is liye log mere se pareshaan hain..shukriya
ReplyDeleteआपका आलेख बहुत अच्छा है..... बधाई..................
ReplyDeleteअन्ना हजारे का आन्दोलन, आन्दोलन होने के बाद भी इस रूप में सही नहीं कहा जा सकता की उसमे सत्ता पर गिद्ध-दृष्टि लगाये बैठा "विपक्ष" भी शामिल है, (क्या विपक्ष ने कभी भ्रष्टाचार नहीं किया? या कर रहा है?), भ्रष्टाचार की कमाई को दान में लेने वाला स्वयंभू बाबा रामदेव भी है! बड़े-बड़े पूंजीपति भी है. इस हिसाब से इस पर विचार करने की जरुरत है! जनता ही इस आन्दोलन को जारी रखने की सही और सच्ची अधिकारी है!
विचार करें......................इसके गंभीर राजनीतिक परिणामों पर बहस करें...............
acha lekh hai...kuch sach bahr aane hi chahiye.
ReplyDeleteनन्द किसोर नीलम और आप दोनों सही है लेकिन अन्ना 100% सही है
ReplyDeletenice one samar saab!!!
ReplyDeleteसही कहा समर।
ReplyDeleteवर्ग संघर्ष की लड़ाई में मशालों की जरूरत होती है। मोमबत्ती विरोध सिविल सोसायटी वालों और बुर्जुआ डेमोक्रेटों का काम है। उनके नाजुक हाथ मोमबत्ती की गरमी ही बरदाश्त कर सकते हैं मशाल की गरमी नहीं बरदाश्त कर सकते।
Well said with sound logics. I would like to share it with all my facebook & twitter friends.
ReplyDeletewaah samar ji waqai aap ka qalam taaqtwar hai...
ReplyDeleteaap ka andaaz niraala hai......
बधाई .
ReplyDeleteसमर आप अच्छा लिखते हैं. उम्मीद है मेरे विचारों को भी आपने मेरी लिंक पर पढ़ा होगा. http://musings.anandjain.com/post/9325775467/jan-lokpal-bill-one-step-ahead-for-the-indian-society
ReplyDeleteवाम विचारधारा के पैरोकार आज मंच से गायब हैं. इस पूरे मुद्दे पर वाम मोर्चे की चुप्पी असहनीय हो चली है. आज सुबह ही मैं याद कर रहा था कि हमें ज्योति बसु की आज कितनी जरूरत थी. आचार्य विनोबा से अन्ना हजारे की तुलना बेमानी है क्योंकि एक अचीवर थे दूसरे अभी वर्क इन प्रोग्रेस हैं. बावजूद इसके ङमारे बौने नेतृत्व, नपुंसक भाजपा और लकवाग्रस्त वामपंथ के सामने यह छोटा सा आदमी टनल के अंत में एक रोशनी की तरह नजर आ रहा है.
आप को पढ़कर उम्मीद बंधती है कि वामपंथ जल्द ही अपने असली रंगों में लौटकर देश को विजिलेंट मूवमेंट देगा. आमीन
aap ke posts kuchh sochne par majboor karte hain. aap ka ye post bhi behtareen hai... mubaarakbaad samar bhai !
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