खाये-पिये-अघाये मध्यवर्ग के लिए भ्रष्टाचार ही मुद्दा हो सकता है, भूख नहीं

[मशाली संघर्ष परंपरा का मोमबत्ती पर्व था अन्ना हजारे का अनशन! 2]


राष्ट्र को अपनी बपौती मानने वाले मध्यवर्ग की नैतिकता बहुत दिलचस्प होती है. उससे भी ज्यादा दिलचस्प होता है इस मध्यवर्गीय नैतिकता का कभी कभी होने वाला विस्फोट जो जार्ज बुश से एक कदम आगे जाकर 'जो हमारे साथ नहीं है वह 'राष्ट्रविरोधी' है' वाले अंदाज में आम से लेकर ख़ास जन पर नाजिल होता है. जैसे की मध्यवर्ग ही राष्ट्र हो, राष्ट्र ही मध्यवर्ग हो. ये और बात है की मीडिया से लेकर सारे संसाधनों पर कब्जे वाले इस वर्ग के लिए अपनी आवाज को 'राष्ट्र' की आवाज बना कर पेश करने में कोई ख़ास मुश्किल नहीं आती.

इसीलिये, दुनिया के इतिहास में कभी भी सड़कों पर उतर कर मुश्तरका संघर्ष ना करने वाले वर्ग के बतौर पहचाने जाने वाले इस वर्ग का अन्ना हजारे के नेतृत्व वाले 'भ्रष्टाचार विरोधी आन्दोलन' में यूँ कूद पड़ना विश्वास नहीं सिर्फ संशय ही पैदा कर सकता है. खासतौर पर इसलिए भी कि यह मध्यवर्ग सिर्फ दो तरह की चीजों से परेशान होता है, पहला तब जब हमला सीधे इसी वर्ग पर हो (जैसे बम्बई पर हुए आतंकी हमलों में ताज से लेकर अन्य कई जगहों पर मध्यवर्ग ही सीधे निशाने पर था) या तब जब मामला 'धन' का हो (जैसे कोमनवेल्थ घोटाला या फिर २-जी स्पेक्ट्रम घोटाला. बाकी हर जगह पर मध्यवर्गीय नैतिकता स्मृतिभ्रंश और ध्यानविचलन के स्थायी रोग से ग्रसित होती है.

इसीलिये सोचने की जरूरत है कि भ्रष्टाचार के खिलाफ गुस्से से उबल उबल पड़ रहा मध्यवर्ग इसी देश में लाखों किसानों की आत्महत्या पर क्यों नहीं उबलता? इसी मध्यवर्ग के सबसे प्यारे (फिर तो अंगरेजी ही होगा) अखबारों में से एक टाइम्स ऑफ़ इंडिया की आज की ही खबर कि अन्ना हजारे के ही राज्य महाराष्ट्र के मेलघाट नामक इलाके में हर दिन एक बच्चा भूख से मरता है क्यों इसे उद्धवेलित नहीं करती. याद रखिये कि क्रिकेट विश्वकप जीत कर अपना राष्ट्रगौरव पुनर्स्थापित करने में सफल रहे मध्यवर्ग का भारत वही भारत है जिसके कुल बच्चों में से ४० प्रतिशत से ज्यादा कुपोषित हैं, और आज भी जहाँ प्रसव के समय होने वाली माओं की मृत्युदर तीस साल से गृहयुद्ध झेल रहे श्रीलंका से ज्यादा है.

पर मुतमईन रहें, इन तमाम मुद्दों मर मध्यवर्ग (और इसकी प्रतिनिधि सिविल सोसायटी) की चुप्पी किसी किस्म की हैरानी प्रकट करने वाला मसला नहीं है. यह चुप्पी एक ख़ास राजनीति का हिस्सा है, उसी का प्रकटीकरण है. हैरानी की बात है इस देश के गरीब, शोषित, वंचित, दलित, मजदूर, किसानों आदि आदि की खुदमुख्तारी का दावा करने वाले वामपंथ से शुरू कर कर समाजवादी राजनीति से रिश्ता रखने वाले तमाम संगठनों का अन्ना हजारे और बाबा रामदेवों के साथ खड़ा हो जाना.. मध्यवर्ग तो राजनीति को 'गन्दा' मानता ही है, उससे नफ़रत भी करता है, पर इन लोगों की समझ को क्या हुआ था? क्या यह पार्टियां/लोग भी राजनीति की बुनियादी समझ गंवा चुके लोग हैं?

अपनी सरलतम परिभाषा में राजनीति को समाज के विभिन्न वर्गों द्वारा आपने हितों को चिन्हित कर उन्हें हासिल करने की लड़ाई के बतौर देखा जा सकता है. इसको यूँ भी कह सकते हैं कि राजनीति एजेंडा सेटिंग और फिर उसके द्वारा नीति निर्धारण की प्रक्रिया है. कहने की जरूरत नहीं है की एजेंडा सेटिंग की यह प्रक्रिया समाज के अन्दर मौजूद शक्ति विभाजन और सामाजिक अंतर्संबंधों को प्रतिबिंबित करती है. और इस रोशनी में देखें तो भ्रष्टाचार एक जरूरी मुद्दा होने के बावजूद सबसे जरूरी मुद्दा नहीं हो सकता.(यहाँ मेरा मतलब भ्रष्टाचार के मध्यवर्गीय अर्थ 'आर्थिक भ्रष्टाचार' से है). २० रुपये रोज से कम पर जिन्दगी जी रही इस देश की ६९ प्रतिशत आबादी के लिए ज़िंदा रहने की जद्दोजहद सबसे बड़ी समस्या है, भ्रष्टाचार नहीं. आखिर को रिश्वत देने के लिए भी पैसों की जरूरत होती है. मैं जानता हूँ कि यह तर्क तमाम लोगों को बहुत परेशान करेगा, पर एनडीटीवी से शुरू कर तमाम अखबारों के सेट किये एजेंडे से जरा सा ऊपर जाने की कोशिश करिए, आप को तमाम नयी चीजें समझ आयेंगी. यह कि जिस आन्दोलन को तमाम मध्यवर्ग के समर्थन के दावे किये जा रहे हैं, जिस आन्दोलन को जेपी के बाद का सबसे बड़ा आन्दोलन बताया जा रहा है उस आन्दोलन के समर्थन की जमीनी सच्चाई क्या है.

मध्यवर्ग मोटे तौर पर इस आन्दोलन के साथ है यह मानने में मुझे कोई दिक्कत नहीं है. पर इस आन्दोलन को दूसरी क्रान्ति बताने वालों से क्या किसी ने पूछा है कि इस देश में मध्यवर्ग की आबादी क्या है? हम जैसे वामपंथियों की तो बात ही छोडिये (हम तो एक करीबी लेफ्ट-लिबरल दोस्त की टिप्पणी के मुताबिक़ छिद्रान्वेषी लोग हैं), आंकड़ों की बात करते हैं. वह भी चलो अमेरिका के सपने देखने वाले मध्यवर्ग के सबसे बड़े तीर्थस्थल विश्वबैंक( World Bank) के दिए गए आंकड़ों की, कमसेकम उसको तो वामपंथी दुष्प्रचार का हिसा मान कर खारिज नहीं किया जायेगा. 'इक्विटी इन अ ग्लोबलाइज़िन्ग वर्ड' शीर्षक वाले अपने नए प्रकाशन में वर्ल्ड बैंक की मशहूर अर्थशास्त्री नैन्सी बिर्ड्साल ने मध्यवर्ग की परिभाषा देते हुए कहा है कि विकासशील देशों में मध्यवर्ग आबादी का वह हिस्सा है जो १० अमेरिकी डॉलर प्रतिदिन (या करीब ४५० भारतीय रुपये, या १३५०० रुपये प्रतिमाह) से ज्यादा कमाता है पर देश के सबसे धनी ५ प्रतिशत लोगों के बाहर हो. यही वह वर्ग है जिसके पास इतनी आर्थिक सुरक्षा होती है कि वह क़ानून के शासन, और स्थायित्व के बारे में सोच सके, और इसमें निवेश कर सके.

इस आधार पर भारतीय मध्यवर्ग की जनसंख्या क्या होगी क्या आप इसका अंदाजा भी लगा सकते हैं? अगर विश्वबैंक और भारत सरकार के ही आंकड़े देखें तो यह संख्या शून्य है. १३५०० रुपये से ज्यादा कमाने वाली सारी की सारी आबादी उच्चतम आय वाले ५ प्रतिशत खेमे में ही सिमटी हुई है. (पूरी रिपोर्ट यहाँ पढी जा सकती है http://www.growthcommission.org/storage/cgdev/documents/volume_equity/ch7equity.pdf)
अब जरा सोचिये कि जिस देश में कल के बारे में सोचने की फुर्सत सिर्फ ५ फीसदी आबादी के पास हो, जहाँ ९५ फीसदी लोग किसी तरह आज ज़िंदा रह जाने के लिए ही युद्ध करने को अभिशप्त हों वहां भ्रष्टाचार कितने प्रतिशत की समस्या होगी और भूख कितने की?
जिस देश में ५० फीसदी से ज्यादा लोगों के पास रहने को कोई स्थाई और सुरक्षित घर ना हों, आजीविका के साधन के बतौर कोई जमीन ना हो, वहां ऊँची दीवालों से घिरी और सुरक्षाकर्मियों की मौजूदगी वाली अपनी रिहाइशों से निकल कर मोमबत्तियां पकडे मध्यवर्ग की समस्या उनकी समस्यायों के ऊपर कैसे खड़ी हो जाती है? जिस देश में ६० फीसदी से ज्यादा आबादी के पास किसी किस्म की स्वास्थ्य सुविधाओं तक कोई पंहुच ना हो वहां आर्थिक भ्रष्टाचार सबसे बड़ा मुद्दा कैसे बन जाता है?

पर फिर से याद करिए, कि राजनीति एजेंडा सेटिंग का नाम है. और कमसेकम ६९ प्रतिशत आबादी के ज़िंदा रहने की जद्दोजहद के ऊपर, उनके मुद्दों के ऊपर भ्रष्टाचार को खड़ा करने की राजनीति इसी एजेंडा सेटिंग का कारनामा होता है, और यह एजेंडा कौन और क्यों सेट करता है बहुत साफ़ साफ़ दिखता है. जो न दिखता है न समझ आता है वह यह, कि वो कौन लोग हैं जो इस मध्यवर्गीय दुष्प्रचार की गिरफ्त में आकर मुल्क की ९५ फीसदी आबादी को छोड़ ५ प्रतिशत के साथ खड़े हो जाते हैं यह जानते हुए भी की उनका वहाँ खड़ा होना आन्दोलन को वह 'वैधता' (legitimacy) देगा जो बाद में हमारे संघर्षों के खिलाफ इस्तेमाल की जायेगी. जीत के तुरंत बाद अन्ना हजारे का नरेंद्र मोदी को महान बताना इस तरफ कुछ इशारा तो करता ही है. उन्हें बताना होगा कि इस आन्दोलन के जनांदोलन होने का दावा करते समय उनके तथ्य क्या थे, और उन तथ्यों को उन्होंने तर्क और सच्चाई की कसौटी पर कसा क्यों नहीं? उन्हें बताना होगा कि मध्यवर्ग की राजनीति का मोहरा बनते हुए उन्हें कुछ तो शर्म आयी होगी, या फिर संघर्षों की अपनी मशालें मोमबत्तियों से बदलते हुए भी उनके चेहरे नैतिकता के तेज से चमक रहे थे?

Comments

  1. धन्यवाद इस लेख के लिए....☺

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