उधार के आंदोलनों के दम पर इन्कलाब के ख्वाब कुछ क्रान्तिकारियों ने पहले भी देखे हैं...!

रविवार में प्रकाशित.

"ख़ुमैनी को वापस ला कर मुल्लाओं के हवाले कर देना, लगता है हम बुद्धिजीवियों और इंकलाबियों का कुल जमा काम इतना ही था." -अबुल हसन बानी सद्र, इस्लामिक क्रान्ति के बाद ईरान के पहले 'निर्वाचित' (फिर 'निर्वासित') राष्ट्रपति.

१ फरवरी १९७९ के उस खुश्क दिन तेहरान एअरपोर्ट पर उतरते हुए बानी सद्र दोहरी खुशी से लबालब थे. न केवल वह बरसों बाद अपने 'वतन' लौट रहे थे, बल्कि इस वापसी में उनके साथ ईरान की बर्बर पहलवी शाह तानाशाही को उखाड़ फेंकने वाले 'आन्दोलन' के एक महत्वपूर्ण नेता होने का गौरव भी शामिल था. यह और बात है कि यह खुशी देर तक नहीं टिकी. आलम यह था कि एअरपोर्ट से लेकर शहर तक उमड़ती ५० लाख से ज्यादा की भीड़ भी उनको उत्साह नहीं दिला पा रही थी. वह बदलाव का जूनून देख पा रहे थे, पर इस बदलाव को लाने वालों की सफ़ेद और काली इस्लामिक पगड़ियां उन्हें और साफ़-साफ़ नजर आ रही थी. उन्होंने जीवन भर एक वामपक्षीय लोकतान्त्रिक (भारतीय अर्थों में नहीं, वरन यूरोप, और ख़ास तौर पर फ्रांस में प्रचलित 'सेंटर-लेफ्ट' वाले अर्थों में) राजनीति की थी. ईरान की तानाशाही के खिलाफ आन्दोलन को अंतर्राष्ट्रीय स्तर पर 'वैधता' (लेजिटिमेसी) और समर्थन दोनों दिलाने में इस राजनीति की बड़ी भूमिका थी. इस राजनीति ने घरेलू स्तर पर भी एक साझा संघर्ष खड़ा करने में एक बड़ी भूमिका निभाई थी, एक ऐसा संघर्ष जहाँ कम्युनिस्ट क्रांतिकारी, उदार लोकतंत्रवादी और इस्लामिक क्रान्ति समर्थक कंधे से कंधे मिला कर लड़ रहे थे कि 'बदलाव' का सपना हकीकत में तब्दील कर सकें.

उस आन्दोलन में, उसके समर्थन में भी एक अतिरेक था. उस अतिरेक में कुछ लोगों ने अपनी आंखें बंद कर लीं थीं, हवाओं में साफ़ नजर आते संकेत पढ़ने से इनकार कर दिया था. वह 'जनता' के साथ थे, यह जाने बिना कि जनता कौन है, कहां है और किसके साथ है.

उन्होंने जनता की "नुमाइंदगी" का दावा कर रहे (ध्यान दें नुमाइंदगी नहीं, सिर्फ दावा) कर रहे मुल्लाओं को 'जनता' मान लिया था. उसके परिणाम भी सामने आये, वह भी बहुत जल्दी. सत्ता पर धीरे-धीरे इस 'जनता' का कब्जा हो गया और बावजूद इस तथ्य के कि बानी सद्र इस्लामिक क्रान्ति के बाद राष्ट्रपति पद के लिए १९८० में हुए पहले चुनाव न सिर्फ जीते, बल्कि ७६ प्रतिशत वोटों के साथ जीते थे. १९८१ में उन्हें पदच्युत कर दिया गया. इसके पहले कि आप यह सोचें कि यह एक व्यक्ति का पराभव था, यह जानना शायद बेहतर होगा कि इसी के साथ ईरान में 'इस्लामिक रिपब्लिक पार्टी' को छोड़ कर प्रमुख विरोधी पार्टयों पीपुल्स मुजाहिदीन, फदाइन खल्क़ और तुदेह सहित सभी पार्टियों को 'गैरकानूनी' घोषित कर उनके नेताओं कार्यकर्ताओं को गिरफ्तार कर लिया गया. उम्मीद है कि उसके बाद का ईरान का इतिहास, उसकी इस्लामिक क्रान्ति का इतिहास हम तमाम लोग जानते ही होंगे. यह भी कि इस इतिहास में उस क्रांति के बाद किसी किस्म के विरोध की कोई जगह नहीं बची, न किसी किस्म के लोकतंत्रवादियों (उदार या सामाजिक) के लिए न कम्युनिस्ट क्रांतिकारियों के लिए. यह भी कि उसके बाद का इतिहास ईरान में लोकतंत्र की पुनर्स्थापना के लिए लड़ रहे लाखों लोगों की शहादत का इतिहास है.

यह इतिहास सिर्फ ईरान का इतिहास नहीं है. आप चाहें तो ईराक की बाथिस्ट क्रान्ति को याद कर सकते हैं. यह भी कि उसमे कितने लोकतंत्रवादी और वामपंथी साथियों को जान गंवानी पडी. याद तो खैर इंडोनेशिया को भी किया जा सकता है. कहीं गलती से भी लगने लगे कि बात सिर्फ इस्लामिक देशों की हो रही है, तो बेहतर होगा इंडोचाइना (याद हो कि न याद हो, ६०-७० के दशक तक उस पूरे इलाके को कहा यही जाता था) का इतिहास याद करना. और उससे भी ऊपर नाजीवाद और फासीवाद का उभार याद करना.

यह दोनों आन्दोलन बहुमत के आन्दोलन नहीं थे. इन दोनों आन्दोलनों का इतिहास दुश्मन गढ़ने, उसे नेस्तनाबूद करने और फिर नया दुश्मन गढ़ने का इतिहास है. (याद करें पेस्टर मार्टिन निमोलर की वह कविता- पहले वह यहूदियों के लिए आए, मैं कुछ नहीं बोला क्योंकि मैं यहूदी नहीं था...) यह भी कि अलग-अलग वक्त में इटली और जर्मनी की वाम से लेकर लोकतांत्रिक तक, तमाम राजनैतिक पार्टियां इन अल्पमत वाले दलों को समर्थन देती रही थीं. तब भी बहाना यही था- जनता के साथ, जन संघर्षों के साथ खड़े होने का. तब भी झूठ यही था, जनता के प्रभु वर्ग के एक छोटे-से हिस्से को "जनता" बना देने का.

आप देखना चाहें तो बहुत साफ़ देख सकते हैं कि इन तमाम आन्दोलनों (आप उन्हें आन्दोलन कह सकें तो) में समाज का सबसे धनी हिस्सा हमेशा इनके साथ था. इनके प्रतिपक्ष होने के समय भी, इनके धीरे-धीरे जनता की आवाज हड़प "जनता" बनते जाने के दौर में भी और फिर इनके सत्ता पर कब्जा करने में सफल होते समय भी. आप ध्यान दीजिये, चाहे नाजी जर्मनी हो, फासीवादी इटली या इस्लामी ईरान, इन तीनों प्रतिक्रान्तियों के साथ इन मुल्कों के पूंजीपति, कार्पोरेट और इनके मध्यवर्ग का सबसे धनी हिस्सा पूरी ताकत से खड़ा था. फिर शायद यह भी दिखेगा कि यह मध्यवर्ग 'राष्ट्र का मध्यवर्ग' नहीं था, बल्कि केवल और केवल राष्ट्र के बहुमत वाले धर्म का मध्यवर्ग था. यह सभी प्रतिक्रान्तियां इतिहास की तार्किकता का नकार थीं, हैं.

और अब सबसे जरूरी बात, कि ये सारे प्रतिक्रियावादी आन्दोलन अपने-अपने मसीहा के साथ आए थे. ये तब आये थे जब जनता का एक बड़ा हिस्सा अलग-अलग वजहों से परेशान था, और इन्होने अपने मसीहाओं के सहारे यह यकीन दिला दिया था कि इनके वाले हिस्से की परेशानी 'सबसे बड़ी' और 'असली वाली' परेशानी है. इससे भी ऊपर, इन सारी प्रतिक्रान्तियों के मसीहा राजनीति से और लोकतंत्र से नफ़रत करते थे और इनका पहला हमला लोकतंत्र के सबसे जरूरी प्रतीकचिन्हों पर ही होता था.

दुखद पर सच है कि ऐसे हर हमले में हमारे कुछ साथी अपनी तमाम सदिच्छाओं और ईमानदारी के बावजूद इन मसीहाओं के समर्थन में नारे लगाते हुए, उन्हें वैधता देते हुए मिलते हैं. वे भूल जाते हैं कि विश्वास और स्वतःस्फूर्तता की राजनीति दक्षिणपंथ का विशेष गुण है, जिसके सहारे वह तमाम मतभेदों और प्रतिरोधों से निपटता रहा है. वह आन्दोलन, क्रान्ति, जनता, नेतृत्व आदि बुनियादी शब्दों की समझदारी भूल उसी दक्षिणपंथी व्यवस्था के ध्वजवाहक होने की भूमिका में आ जाते हैं, जिसका वह कम से कम कथन के स्तर पर हमेशा विरोध करते रहे हैं. वे भूल जाते हैं कि आन्दोलन अपना नेता खुद पैदा करता है, नेता या मसीहा आन्दोलन पैदा नहीं करते. उन्हें याद नहीं रहता कि चाहे गांधी हों या लेनिन, मार्टिन लूथर किंग हो या नेल्सन मंडेला, ये सभी प्रतिरोध की एक लम्बी परम्परा में सक्रिय भागीदारी निभा कर तपते हैं, निकलते हैं और यह भी कि इनमें से हर एक 'नेता' के साथ लोकतांत्रिक ढंग से उपजा हुआ नेतृत्व होता है. फिर चाहे गांधी के साथ नेहरू हों या उनके बरक्स भगत सिंह, फिर चाहे लेनिन के साथ त्रॉत्स्की हों, या माओ के बरअक्स च्यांग काई शेक. ये सारे लोग संघर्षों की तपिश से पैदा हुए लोग हैं.

या फिर, हमारे ही दौर की छाती पर गड़े इरोम शर्मिला नाम के दर्द को देखिए. इरोम किसी आंदोलन को पैदा करने वाली नेता नहीं हैं. वे मणिपुर में भारतीय राज्य के दमन के खिलाफ चल रहे जनसंघर्षों की पैदाइश हैं, उसकी तपिश में चमकता एक शांत, पर क्रांतिकारी नेतृत्व हैं. हद तो तब होती है जब 'क्रांतिकारी' इतिहास वाले बुद्धिजीवी अन्ना हजारे के नेतृत्व वाले भ्रष्टाचार विरोधी आंदोलनों की तुलना इरोम शर्मिला के आंदोलन से करते हुए इरोम शर्मिला के आंदोलन को भी सिविल सोसाइटी का आंदोलन बताने की बेहूदगी कर बैठते हैं.

इरोम शर्मिला का आंदोलन सिविल सोसाइटी का आंदोलन न है, न हो सकता है. यह उस आंदोलन का एक हिस्सा है, जिसमें मणिपुर की मांओं को असम राइफल्स के मुख्यालय के सामने निर्वस्त्र प्रदर्शन करना पड़ा था. यह उस आंदोलन का हिस्सा है, जिसने अपने गुस्से की परिणति में मणिपुर विधानसभा को जला कर ख़ाक कर दिया था. यह वह आंदोलन है जिसकी कीमत संजीत, रुबीना और मनोरमा जैसे इसी देश के हज़ारों नागरिकों को अपनी जान गंवा के चुकानी पडी है. जरा बताइए कि सिविल सोसाइटी यानी 'नागरिक समाज' की भारी भागीदारी वाले इस भ्रष्टाचार विरोधी आंदोलन को ऐसी कौन-सी कुर्बानियां देनी पडी़ हैं, राज्यसत्ता का कौन-सा दमन झेलना पड़ा है. इरोम पर सांस भी न लेने वाली यही राज्यसत्ता है जो अन्ना हजारे का अनशन शुरू होने के पहले ही बिछ बिछ जाना शुरू कर देती है. देखना चाहें तो साफ़-साफ़ दीखता है कि राज्यसत्ता के साथ अन्ना के नेतृत्व वाला 'भ्रष्टाचार विरोधी आन्दोलन' खड़ा है, इससे असहमत लोग नहीं.

इरोम के आन्दोलन के बरअक्स अन्ना के आन्दोलन पर नजर डालिए, आपको साफ़ नजर आएगा की यह आंदोलन 'जनता' ने नहीं, "नेता" ने पैदा किया है. वरना क्या वजह हो सकती है कि अन्ना हजारे को छोड़ इस आन्दोलन के बाकी सभी "नेता" इसी शहर में कुछ महीने पहले आयोजित बाबा रामदेव के नेतृत्व वाले स्वाभिमान मंच की रैली में एक साथ आये थे और फिर भी मीडिया ने उनका नोटिस लेने से लगभग इनकार कर दिया था? क्या वजह है कि इसी मीडिया ने इसी शहर में तीन लाख मजदूरों की रैली की नकारात्मक रिपोर्टिंग के सिवा कुछ नहीं किया था? क्या कारण है कि अन्ना से लगायत इस आन्दोलन के सामाजिक न्याय विरोधी इतिहास वाले श्रीश्री रविशंकर और विश्व हिन्दू परिषद् की धर्म संसदों में जाने वाले बाबा रामदेव के इतिहास पर भ्रष्टाचार के विरुद्ध जेहाद की मुद्रा अपनाए दिख रहे मीडिया ने जबान खोलना भी गवारा नहीं समझा? आन्दोलन के समर्थन में उन्माद की हद तक जाकर इससे असहमत लोगों को राज्य सत्ता का साथी बता रहे लोगों को इन तमाम मुद्दों पर अपनी राय साफ़ करनी चाहिए, करनी होगी.

मसला सिर्फ इस आंदोलन के हिंदूवादी, ब्राह्मणवादी चरित्र का नहीं है. इस आंदोलन के चारणों को यह भी बताना होगा कि उनकी 'जनता' की परिभाषा क्या है? इस आंदोलन को साइबर स्पेस में एक बड़ा भूचाल लाकर मध्यवर्गीय रणबांकुरों को इसके समर्थन में खड़ा करने वाले समूह 'इण्डिया अगेंस्ट करप्शन' का एक और सच है इसका खांटी ब्राह्मणवादी चरित्र. यह तथ्य जान कर भी इससे इनकार करने वाले इस आन्दोलन के साथ खड़े लोकतांत्रिक (?), मार्क्सवादी (?) बुद्धिजीवियों को क्या यह खबर भी है कि http://antireservation.com/ नाम की साईट खोलने पर कौन-सी साईट खुलती है? क्या उन्होंने यह तथ्य भी जांचा है कि अन्ना आंदोलन के अलम्बरदार 'इण्डिया अगेंस्ट करप्शन' की साईट और आरक्षण विरोधी एंटी-रिसर्वेशन डॉट कोम का यूआरआल और पता ही नहीं, बल्कि इनका मालिकाना और रजिस्ट्रेशन का पता भी एक ही है. क्या इस तथ्य से इस आंदोलन के मूल चरित्र का कुछ अहसास होता है?

या फिर, सवाल दूसरा बनेगा कि क्या अन्ना के साथ वाले 'मार्क्सवादी'/लोकतंत्रवादी/बहुलतावादी या जाने क्या क्या-क्या वादी समर्थक आरक्षण के, सामाजिक न्याय के भी खिलाफ हैं? या फिर वह मानते हैं कि इस देश की 'आरक्षण विरोधी' आबादी ही देश की असली जनता है? और अगर वह यह मानते ही हैं तो उन्हें इस देश की आरक्षण समर्थक और विरोधी जनता की संख्या के आंकड़े भी ठीक ठीक पता होंगे. यही वह जगह भी है जहां से इस आंदोलन के सिविल सोसाइटी यानी 'नागरिक समाज' वाले नेतृत्व में दलित, पिछड़े और अन्य तमाम वंचित शोषित तबकों की अनुपस्थिति और उस अनुपस्थिति पर इसके 'प्रगतिशील बुद्धिजीवी' समर्थकों की चुप्पी बहुत कुछ साफ़ कर देती है. वह चुप्पी जो तब भी नहीं टूटी, जब इस आंदोलन के नेतृत्वकारी सिविल सोसायटी की जातिवादी सोच अरविन्द केजरीवाल के उस बयान से साफ़-साफ़ बरस पड़ी कि अगर ड्राफ्टिंग कमेटी में कोई दलित सदस्य चाहिए तो सरकार अपने किसी मंत्री को 'दलित मंत्री' से बदल ले, वह अपने खेमे वालों में किसी दलित को शामिल नहीं करेंगे. पता नहीं, इन बुद्धिजीवियों को यह बयान दिखा भी था या नहीं..लिंक यहाँ है..http://www.hindu.com/2011/04/24/stories/2011042457790100 . कथित साफ-सुथरे चेहरे वाले संतोष हेगड़े ने भी यही कहा।

यहीं से इस आंदोलन के एक और महत्त्पूर्ण पहलू को समझने का रास्ता भी खुलता है कि यह आंदोलन अपने शुरुआती दौर में जनलोकपाल बिल के इनके ड्राफ्ट पर किसी समझौते को तैयार क्यों नहीं था. बावजूद इस सवाल के कि ड्राफ्ट जनलोकपाल बिल कार्पोरेटों और एनजीओ को अपने दायरे से बाहर रख रहा था, उनकी जांच को तैयार नहीं था. क्या इस बात के तार इस तथ्य से कहीं से जुड़ते हैं कि यह पूरा आंदोलन कॉर्पोरेटों की फंडिंग से चल रहा था और क्या यही कारण है की जनलोकपाल बिल कॉर्पोरेटों की जांच को तैयार नहीं है? अब फिर से एक पुरानी बात पर लौटिए कि इस आंदोलन के पहले इतना भारी कॉरपोरेट समर्थन केवल एक आंदोलन को मिला है- ओबीसी आरक्षण विरोधी आंदोलन को. और उस आन्दोलन के नेतृत्व वाले तमाम लोग इस आंदोलन के नेताओं और संगठकों की भूमिका में मौजूद हैं. सवाल बनता है कि इन सारे सवालों, तथ्यों को नजरअंदाज कर इस आंदोलन का समर्थन कर रहे प्रगतिशील बुद्धिजीवियों की मंशा क्या है, उनका एजेंडा क्या है? यह भी कि उनकी प्रतिबद्धता किस तरफ है?

अंतर्विरोध के इस समय में अगर इन बुद्धिजीवियों की प्रतिबद्धता जनता के प्रति होती तो शायद उन्हें साफ़ दिखता कि यह आंदोलन सिर्फ राजनीति और नौकरशाही को निशाना बना रहा है. आंदोलन वाले जानें या न जानें, 'प्रगतिशील बुद्धिजीवी' तो जानते ही होंगे कि भले ही बहुत थोड़ी संख्या में सही, यही दो जगहें हैं जहां दलित/पिछड़ी शोषित आबादी आ पाई है. इन दोनों जगहों को निशाने पर लेते हुए भी कार्पोरेटों को छोड़ देना (जहां आपको एक भी दलित शायद कहीं नहीं मिलेगा), फिर से, कुछ तो इशारे करता है. यह सवर्ण/आभिजात्य वर्ग की फिर से हुंकार है, यह सामाजिक न्याय की लड़ाई में हारी गई जमीन को वापस पाने का मनुवादी युद्धघोष है. आप देख नहीं पा रहे या देखना नहीं चाहते? यह भी कि इस युद्ध में अंतिम विजय सुनिश्चित करने के लिए जनलोकपाल बिल लोकतंत्र के मूल आधार शक्ति विभाजन तक के खिलाफ जाकर सारी शक्ति जनलोकपाल के हाथ में थमा देना चाहता है.

अन्ना से असहमतों को सत्ता पक्ष के साथ खड़ा बताते हुए ये बुद्धिजीवी क्या खुद से एक बार भी यह सवाल पूछते हैं कि जनलोकपाल बिल लोकपाल को विधायिका, कार्यपालिका और न्यायपालिका की शक्ति एक साथ देकर सारी जवाबदेहियों, सारे उत्तरदायित्वों से मुक्त एक संस्था क्यों खड़ी करना चाहता है? लोकतंत्र की जरा-सी भी समझ वाले को इससे डरना चाहिए, बशर्ते वह उत्पीड़क वर्ग के साथ न खड़े हों, बशर्ते उन्हें जनता के बहुमत के सिवा किसी से डर नहीं लगता हो और इसीलिए वह लोकतांत्रिक बहुमत से बच निकलने का रास्ता न खोज रहे हों.

ऐसे तमाम बुद्धिजीवियों की प्रतिबद्धता की कलई तब और भी ज्यादा खुलने लगती है जब हम देखते हैं कि उनका तमाम जोर आंदोलन के बचाव के लिए भावनात्मक तर्क गढ़ने, साझीदारियां खड़ी करने और आंदोलन से असहमत लोगों की इतिहास-दृष्टि पर सवाल उठाने पर ही रहता है. उसमे भी वह सुविधाजनक दुश्मन ढूंढ़ने लगते हैं, जैसे कि इस आंदोलन की जनसंघर्षों में सारी उम्र लगा देने वाले आनंदस्वरूप वर्मा, केएन पणिक्‍कर, पी साईनाथ, हिमांशु कुमार, शबनम हाशमी जैसे साथियों/कॉमरेडों की आलोचना को अनसुना कर प्रताप भानु मेहता जैसे एकाध बुद्धिजीवी को चुन लेना और उसके तर्कों पर हमला करना. वैसे वह तब भी यह भूल जाते हैं कि अभी कल तक प्रताप भानु मेहता 'सिविल सोसायटी' उर्फ़ नागरिक समाज के बड़े समर्थकों/सिद्धांतकारों में थे. वहां भी इनका ध्यान कुछ जुमले (मसलन इस मामले में 'ब्लैकमेल') चुन कर उसके बहाने आंदोलन की वैचारिकी को लेकर उठ रहे असहज सवालों को ख़ारिज करने में ही लगा रहता है.

यहां 'ब्लैकमेल' के सवाल को ही लें, यह मुद्दा हवाओं से नहीं, वरना बाबा साहेब आंबेडकर के एक प्रसिद्द कथन 'अराजकता के व्याकरण' से उठाया गया है. यह भाषण देते हुए बाबा साहब साफ़ समझ रहे थे कि सत्ता को, सरकार को ब्लैकमेल करने की ताकत केवल और केवल प्रभु वर्ग में सामंत वर्ग में है और इसीलिए इस हथियार का फायदा वही उठा पाएगे. (फिर से देखें, केसीआर चंद्रशेखर राव के अनशन को सरकार ११ दिन में सुन लेती है, अन्ना को ४ दिन में और इरोम शर्मीला को ग्यारहवें साल में भी नहीं). और भी देखें, सरकार जिन आन्दोलनों से 'ब्लैकमेल' होती है वह सदैव उच्च वर्ग/जातियों के ही होते हैं, उनमे कभी शोषित वंचित तबकों की भागीदारी नहीं होती. पर यह 'प्रगतिशील' बुद्धिजीवी आलोचना के इस पहलू का जवाब नहीं देते, इससे नहीं टकराते. वह सवाल को आस्था का सवाल बनाते हैं, सपनों का सवाल बनाते हैं और फिर उन सपनो से असहमत लोगों को दुश्मन बना खारिज कर देने की कोशिश करते हैं.

पर दिक्कत यह है कि ऐसी कोशिशें उनके विचाराधारात्मक विचलन को साफ़ कर देती हैं. हीगेल, मार्क्स, मिल और ग्राम्शी आदि के हवाले से नागरिक समाज की शास्त्रीय परिभाषाओं का 'सिर्फ' जिक्र करते हुए जब वे 'विश्व बैंक' की परिभाषाओं की तंग गलियों से निकल भागते हैं, बिना यह बताए कि मार्क्स और हीगेल दोनों 'सिविल सोसायटी' को उस दौर के उत्पादन संबंधों में सत्ता के साथ खड़े वर्ग के बतौर चिन्हित करते हैं (मार्क्स के मुताबिक़ तो हीगेल के यहां 'सिविल सोसायटी' मार्केट मेकेनिज्म से ज्यादा कुछ नहीं है) तो संदेह होना स्वाभाविक है. यह संदेह तब और बढ़ता है जब वह इससे भी आगे जाकर ग्राम्शी द्वारा सिविल सोसायटी को स्टेट (या सत्ता) के भीतरी सुरक्षा उपाय (स्टेट के बाहरी दीवारों के अन्दर की सुरक्षा नहरें और किले) बताये जाने का जिक्र भी नहीं करते हुए इसी सिविल सोसायटी को 'अंगीकार' करने की जरूरत पर बल देने लगते हैं. यह तो खैर कल्पना से भी परे है कि वह सिविल सोसायटी के वर्त्तमान अर्थ को देने वाले जॉर्ज कोनराड की बात करेंगे जिनके पर्चे का नाम ही ‘एंटीपोलिटिक्स’ था.

खैर, बेहतर होगा कि वे जानें कि सारी दुनिया में सिविल सोसायटी का चरित्र एक जैसा है, एक ही जैसे लोगों से मिल कर बना है. आभिजात्य, सेवा क्षेत्रों में काम करने वाला, अंग्रेजीदां (कुछ देशों में फ्रेंच और कुछ में स्पेनिश भाषा वाले भी) मध्यवर्ग और उच्च मध्यवर्ग का हिस्सा. दिलचस्प यह है कि यह राय रॉबर्ट पुटनैम जैसे सिविल सोसायटी समर्थक सोशल कैपिटल के सिद्धांतकार की भी, और बूरद्यो जैसे समाजवादी चिन्तक/विचारक की भी. कुल जमा मतलब यह कि सिविल सोसायटी का एक वैश्विक चरित्र है और ग्राम्शी उसकी ठीक-ठीक पहचान करने में बिल्कुल सफल रहे हैं... और जब 'प्रगतिशील बुद्धिजीवी' ऐसी सिविल सोसायटी को अंगीकार करने की जरूरत पर बल देने लगें तो बहुत कुछ साफ़-साफ़ दिखने लगता है.

अन्ना समर्थक इन प्रगतिशील बुद्धिजीवियों की तर्कपद्धति बहुत कुछ उन आलोचनाओं जैसी है जिसे 'वाम कवच' के अंदर रह कर उत्तर आधुनिक 'चिंतकों' ने राज्य सत्ता के 'प्रभुत्त्व' और शक्तियों की आलोचना की आड़ में 'आधुनिकता' और और 'वैज्ञानिक तार्किकता' तक को खारिज करने के लिए इस्तेमाल किया था. अपनी किताब प्रोफेट्स लुकिंग बैकवार्ड (२००३) में मीरा नन्दा ऐसे बुद्धिजीवियों की ठीक-ठीक पहचान करने में सफल रही थीं, जब उन्होंने लोकतंत्र, आधुनिकता और वैज्ञानिकता का वाम खेमे का-सा दिखने वाले विरोध का धार्मिक कट्टरपंथों(बहुवचन उन्हीं का है) के प्रसार से रिश्ता दिखाया था. अन्ना हजारे के मंच पर विहिप के साधुओं को देखिए, भारतमाता की 'संघी' तस्वीर और नक्शा देखिए, मंच पर आरक्षण विरोधी धर्मगुरुओं और मंच परे "यूथ फॉर इक्वालिटी" को "एंटीरिजर्वेशन डॉट कॉम" से "इण्डिया अगेंस्ट करप्शन" में बदलते हुए देखिए, यह तर्क आपको और बेहतर समझ आएगा. जो समझ नहीं आएगा वह यह, कि ऐसे आंदोलन के समर्थन में कल तक प्रगतिशील/लोकतांत्रिक खेमे के अलंबरदार रहे लोग क्यों खड़े हैं.

पर फिर, दुनिया का सारा इतिहास स्वतंत्रता की चेतना के बढ़ते जाने का इतिहास है, कहते हुए हीगेल ने भी शायद ही कभी सोचा होगा कि बीसवीं सदी के कुछ वक्त का इतिहास पीछे भी जाएगा. इतना पीछे कि माइकल फूको जैसे कुछ दार्शनिक 'राज्यसत्ता के राक्षस' को ठीक-ठीक समझते हुए भी 'ईरानी क्रान्ति' को आदर्श और 'सबसे बेहतर' बताएंगे, (यह भूलते हुए, 'या कि यह ही समझते हुए' कि धर्मसत्ता पर आधारित राज्यसत्ता किसी भी दिन धर्मनिरपेक्ष राज्यसत्ता से ज्यादा खतरनाक होगी, कम नहीं.) यह सब कुछ जानते समझते हुए भी हम किसी को इतिहास से सबक लेने पर मजबूर नहीं कर सकते. उनको तो ख़ास तौर पर नहीं जो अपनी वैयक्तिक/सामाजिक असफलताओं की ग्रंथि से पैदा हुई आत्मग्लानि को 'क्षणिक क्रांतियों' में भागीदारी से धोना चाहते हैं.

आखिर में बस यह कि, उधार की जनता के दम पर इन्कलाब नहीं होते, न उधार के तर्कों पर बहसें जीती जाती हैं. और जो यह कोशिश करते हैं, वे बानी सद्र की गति को प्राप्त होते हैं.

Comments

  1. हमारे कामरेडों ने यह सोचते हुए कि अगर समर्थन न करेंगे तो लोग हमारे बारे में क्या सोचेंगे,इस 'आन्दोलन' का समर्थन कर दिया ,जो कि बहुत ज्यादा दुखद निर्णय था,वामपंथी अगर इसी तरह से चरम दक्षिन पंथ के ढकोसलों के आगे नतमस्तक होते रहे तो ज्यादा समय नही रहा जब हमारे देश में भी वाम और दक्षिण में उतना ही फर्क रहेगा जितना बुश और ओबामा में है | एक दूसरे पर revisionist का आरोप लगते हुए उनसे बढ़कर revisionist पार्टी बने जा रही है जो आगे चलकर इस तरह से दक्षिणपंथ के आगे घुटने टेक रही है| M ,ML के बाद आप चाहे तो MLM bhi bana सकते हैं इन सबको रीविजनिस्ट कहते हुए, लेकिन अगर हरकतें ऐसी ही करी जैसे अन्ना का समर्थन करके किया तो आप इस विचारधारा को धोखा दे रहे हैं जो संघर्ष मांगती है |

    इतने विस्तृत लेख के लिए धन्यवाद और बधाई समर जी |

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  2. this is Very good idea and very great comment

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  3. My congratulations for such a great and scholarly analysis, Samar Bhai. I thank you for writing this. Many facts and ideological citations are of great help while arguing against the"Grammarians of Anarchy".

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  4. कलई खोलता लेख समर भईया

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