मार्क्सवादी-माओवादी-अन्नावादी तीक्ष्ण युवा पत्रकारों के नाम एक खुली चिट्ठी

यह लेख मोहल्ला लाइव पर प्रकाशित एक लेख और एक प्रलाप (उसे लेख कहना लेख का अपमान होगा) के, जिनमे से एक कुछ और दोस्तों के साथ सीधे मुझे संबोधित थी के जवाब के बतौर..
मोहल्ला का लेख यह रहा--

और मोहल्ला लाइव  पर ही साथी विश्व दीपक का  प्रलाप/विलाप/चीत्कार यह.
अब इन दोनों का जवाब देता मेरा वह लेख जो निजी रिश्तों और रवीश कुमार जी के 'बड़े' नाम के बड़े प्रभाव को देखते हुए मोहल्ला लाइव पर नहीं आया, मॉडरेटर को लिखे पत्र के साथ.

अविनाश जी, 
भाई विश्वदीपक के पत्र के साथ साथ लेख पढ़ा. "क्रांतिकारियों" और "संदेहवादियों" सबको "इनवरटेड कामा' के भीतर कैद कर उनके खिलाफ फतवे जारी कर देने की हड़बड़ी भी बहुत साफ़ दिखी. और यह भी कि हड़बड़ी में लिए गए फैसले और जारी किये गए फतवे दोनों ही कितने कमजोर कितने गलत साबित होते हैं.
बखैर, मनोहर श्याम जोशी के शब्द 'दोचित्तापन और तिचित्तापन' याद करने वालों को जाने क्यों 'कसप' याद नहीं आता, बावजूद इसके कि सारी जिन्दगी गलत आंदोलनों के साथ खड़े रहकर बाद में गलती समझ आने पर कह वह सिर्फ इतना ही पाते हैं-- कसप-- हिन्दी में सबसे करीबी अनुवाद करूं तो बनेगा-- क्या जाने..
हाँ, क्रान्ति का फल तोड़ कर आम जनता के पास ले आने की हम "छायावादी"(क्या यह बोलने के लिए बोल दिया शब्द है या इसके कुछ मायने भी हैं) क्रांतिकारियों से कुछ बने ना बने.. अन्ना की 'क्रान्ति' के पके फल के जमीन पर गिरने का इन्तेजार कर रहे चेहरे बहुत साफ़ समझ आ रहे हैं.. हाँ, यह लेख उन्हें नहीं वरन 'जनसंघर्षों' में साझीदारी कर रहे साथियों को समर्पित है..
सादर
समर

मार्क्सवादी-माओवादी-अन्नावादी तीक्ष्ण युवा पत्रकारों के नाम एक खुली चिट्ठी

कुछ लोगों के लिए क्रान्ति सिर्फ एक शगल होती है, तमाम और आदतों/मजबूरियों के बीच जिन्दगी की राहों में ठिठक गयी एक आदत. क्रान्ति इनके लिए तलब जैसी भी होती है, ठीक उसी तरह जैसे सिगरेट की तलब उठाती हो किसी को अलसुबह और बदन में निकोटीन पंहुचने तक एक अजब सी बेचैनी की शक्ल में कमरे में भटकाती रहती हो. अब इसका क्या करें की तमाम नशे के बाद भी दिल्ली के गरीब से गरीब इलाके का कमरा दंडकारन्य नहीं हो सकता, ये बेचारे यह छोटी सी बात समझ ही नहीं पाते बस दावे करते रहते हैं.

यह वह लोग हैं जो माओवादियों के बीच पत्रकार होते हैं और पत्रकारों के बीच माओवादी! अलग अलग जगहों पर अलग अलग पहचानें सुविधा तो देती ही हैं ना! मानने का दिल तो नहीं होता युवा और तीक्ष्ण पत्रकार(पता नहीं दोनों दावे इनके खुद के हैं या अविनाश भाई ने इनकी पहचान पर तमगों से चस्पा कर दिए हैं) अब इसी जमात में शामिल खड़े दिख रहे हैं.

इत्तेफाक़न अन्ना के आन्दोलन से असहमत तमाम और लोगों के साथ वह मुझे भी समर्पित अभी इनका पिछला नोट पढ़ा था. तब सबसे दिलचस्प यह लगा था की विश्वदीपक बाबू माओवादी क्रान्ति की झंडाबरदारी करते हुए भी अन्ना हजारे के समर्थन में किसको उद्धृत करने पर आमादा थे.. एनडीटीवी के फीचर एडिटर और एक सजग पत्रकार 'रवीश कुमार' को ढूंढ कर लाते 'क्रांतिकारी' विश्वदीपक शायद भूल गए थे की यही रवीश कुमार जी अपनी ही चैनल की बरखा दत्ता के कारनामों पर अब भी कुछ नहीं बोले हैं! अन्ना से असहमतों पर 'अंटशंट' बकने का आरोप लगाने वाले रवीश कुमार जी की अपनी खुद की नैतिकता का आलम यह है विश्वदीपक जी..

रवीश कुमार जी सिर्फ तब चुप नहीं थे विश्वदीपक बाबू.. वह तब भी चुप रहे थे जब जेसिका लाल के समर्थन में हुए तहलका पत्रिका द्वारा शुरू किये गए मध्यवर्ग के ही एक दूसरे बड़े आन्दोलन को आपके एनडीटीवी ने फिल्म ‘नो वन किल्ड जेसिका’ में चुरा लिया था. यहाँ तक कि उसके द्वारा किये गए स्टिंग को भी आपके चैनल ने अपना बता कर पेश किया था और हाईकोर्ट की फटकार खाने के बाद माफी माँगी थी. लिंक देख लें शायद याद आ जाय..

इस पर भी कुछ कहेंगे? और इस पर भी कि कारगिल की रिपोर्टिंग से मशहूर हुई उस फिल्म की मीरा नाम की पत्रकार असल में कौन हैं? और इस फिल्म के बहाने उनके, और एनडीटीवी के पाप धोने की कोशिश के मायने क्या होते हैं?

या फिर तहलका की ‘स्टोरी’, स्टिंग और नाम चुराने को भी भ्रष्टाचार से लड़ने का तरीका मानते हैं आप.

या उससे भी बदतर, अब आप के लिए क्रान्ति का आधार दस्तावेज कम्युनिस्ट मैनिफेस्टो से बदलकर क़स्बा या रवीश की रिपोर्ट हो गयी है?

हो ही गयी होगी शायद, वरना तो आप 'सबकुछ पर संदेह करो' (अंगरेजी में Doubt Everything) कहने वाले कार्ल मार्क्स को 'संदेहवादियों' को गाली देकर अपमानित ना कर रहे होते आप. आप को तो खैर दलितवादियों का इस आन्दोलन के विरोध में खड़ा होना भी नागवार गुजर रहा है बावजूद इसके की आन्दोलन के नेताओं में 'आरक्षण' को देश बांटने की साजिश कहने वाले श्री श्री रविशंकर भी शामिल हैं, और मंच पर दिखने वालों में विश्व हिन्दू परिषद् की धर्म संसदों में बार बार जाने वाले रामदेव भी. (या 'दलितवादियों' के खिलाफ इस विषवमन के पीछे आपकी खुद की कोई दबी हुई ग्रंथि काम कर रही है). आपके लिए शायद भ्रष्टाचार इतना बड़ा मुद्दा होगा, हो गया है कि इतनी सादा सी बातें आपको ना दिखें. (इस आन्दोलन के सांप्रदायिक चरित्र पर मैंने तमाम लिंक्स के साथ अभी टिप्पणी जैसा एक लेख लिखा था देख लीजियेगा)

और बावजूद इसके कि आपसे कोई उम्मीद नहीं है, उन आरोपों को तर्कों के साथ खारिज करने की कोशिश करियेगा.. फतवों के साथ नहीं.

और हाँ, छायावादी क्रांतिकारियों के बारे में भी आपके कुछ तीक्ष्ण शब्द पढ़े, विचारों की प्रतीक्षा कर रहा हूँ. हवा में जुमले उछालना बहुत आसान कला है साहब, मगर शब्दों को परिभाषित भी कर ही देना चाहिए. मार्क्सवाद का जो भी जरा सा अध्ययन मेरा है, उसमे यह शब्द मेरी आँखों से नहीं गुजरा, तो अब आप ही बता दें कि इस शब्द के मायने क्या होते हैं. (मुतमईन हूँ कि दिल्ली की सड़कों पर बातों से बस्तर के जंगल उगा देने वाली आपकी कला छायावादी क्रांतिकारी होने का प्रमाणपत्र नहीं होगी, पर जो भी बता दें, उत्सुक हूँ. बस बताने में जल्दी करें उसके पहले एक बात मैं बता दूं. कि अन्ना से असहमत होना अगर छायावादी क्रांतिकारी होने की एकमात्र पहचान है तो आनंद स्वरुप वर्मा भी उसमे शामिल हो जायेंगे इसलिए संभाल कर बताइयेगा. (आनंद जी को विशेष रूप से उनकी राजनीतिक पक्षधरता के लिए उद्धृत कर रहा हूँ यह तो समझ ही गए होंगे या फिर..)

समकालीन तीसरी दुनिया में छपे उनके लेख की कुछ पंक्तियाँ देख लें- और फिर से (आप से उम्मीद तो नहीं है पर फिर भी तर्कों से आरोप खारिज करें)--
"पिछले कुछ वर्षों से इस व्यवस्था को चलाने वाली ताकतें इस बात से बहुत चिंतित हैं कि भारत के मध्य वर्ग और खासतौर पर शहरी मध्य वर्ग का रुझान तेजी से रेडिकल राजनीति की तरफ हो रहा है और उसे वापस पटरी पर लाने के लिए देश के स्तर पर कोई ऐसा नेतृत्व नहीं है जिसकी स्वच्छ छवि हो और जिसे राजनीतिक निहित स्वार्थों से ऊपर उठा हुआ चित्रित किया जा सके। अन्ना हजारे के रूप में उसे एक ऐसा व्यक्ति मिल गया है जिसके नेतृत्व को अगर कायदे से प्रोजेक्ट किया जाय तो वह तेजी से रेडिकल हो रही राजनीति पर रोक लगा सकता है। इसमें सत्ताधारी वर्ग, जिसमें देश के कारपोरेट घराने तो हैं ही, मध्य वर्ग का ऊपरी तबका भी है, का हित पूरी तरह जुड़ा हुआ है।

आनंद स्वरुप जी ने यह भी लिखा है कि "अन्ना हजारे के मंच पर दिखने वाले प्रतीक पहली नजर में हिंदुत्ववाद का एहसास कराते हैं।" और उसके पहले के हिस्से में उन्होंने आन्दोलन की फंडिंग का जिक्र भी किया है
"लेकिन अन्ना हजारे को समर्थन देने वालों में जब देश के कॉरपोरेट घरानों की सूची पर निगाह गयी तो लगा कि सारा कुछ वैसा ही नहीं है जैसा दिखायी दे रहा है। कॉरपोरेट घरानों से जो लोग अन्ना के समर्थन में खुलकर सामने आये वे थे बजाज ऑटो के चेयरमैन राहुल बजाज,गोदरेज ग्रुप के चेयरमैन आदि गोदरेज,महिंद्रा एंड महिंद्रा के ऑटोमोटिव ऐण्ड फार्म इक्विपमेंट सेक्टर के अध्यक्ष पवन गोयनका,हीरो कारपोरेट सर्विसेज के चेयरमैन सुनील मुंजाल,फिक्की के डायरेक्टर जनरल राजीव कुमार, एसोचाम के अध्यक्ष दिलीप मोदी तथा अन्य छोटे मोटे व्यापारिक घराने।"

अब जरा बताइए कि आप आनंद स्वरुप जी को कहाँ रखेंगे? छायावादी क्रांतिकारियों में, दलितवादियों में, संदेहवादियों में या नव-तर्कवादियों में?

विश्वदीपक जी, एक सलाह बिना मांगे ही ले लीजिये.. शब्दों का प्रयोग बहुत सावधानी से करना चाहिए, वरना चीत्कार और सैद्धांतिक समझ सब एक सी ही हो जाती है.

अब आ जाइए भाकपा माओवादी के बयान पर, जिसका जिक्र करते हुए आप इतना उत्साहित हो गए हैं कि उन्माद में यह 'भय' तक व्यक्त कर गए कि " कहीं माओवादी पार्टी का रुख किसी ‘सैद्धांतिकी’ से संचालित न हो।"किसी भी कम्युनिस्ट पार्टी का रूख 'सैद्धांतिकी' से नहीं तो किससे संचालित होगा साहब? उन्माद से, भावनाओं के विस्फोट से? आप मार्क्सवाद की बुनियादी समझ को खारिज कर रहे हैं विश्वदीपक जी, उस समझ को जो जमीनी सच्चाइयों के जमीनी विश्लेषण(अंगरेजी में concrete analysis of concrete situations) पर आधारित है. तर्क और सिद्धांत पर आधारित मार्क्सवादी दर्शन की यह व्याख्या आप जैसा कोई 'मार्क्सवादी' ही कर सकता था. बस यह और बता दीजिये कि क्या आप मार्क्स, एंजेल्स, लेनिन, माओ, ग्राम्सी, फिदेल, चे और तमाम और मार्क्सवादी नेताओं की सैद्धांतिक समझ की व्याख्या करती उन्ही की लिखी किताबों को खारिज कर रहे हैं? अगर ऐसा है तब तो आप का रवीश कुमार को उद्धृत करना साफ़ समझ आता है पर फिर भी यह जान लें कि 'अब तक का सारा इतिहास वर्ग संघर्षों' का इतिहास है' से लेकर
दार्शनिकों ने दुनिया की व्याख्या तमाम तरीकों से की है, पर सवाल दुनिया को बदलने का है' तक की सारी समझदारी सैद्धांतिकी से निकली समझदारी की है. \

खैर बात आगे, बेहतर होता कि आप अपने इस महान ज्ञान का प्रदर्शन करने के पहले भाकपा माओवादी के बयान को ठीक से पढ़ लेते.. जहाँ आप अन्ना हजारे के 'संघर्ष' पर लोट लोट जा रहे हैं वहीं 'पार्टी' का कहना है कि
"जहां उनके अनशन का लक्ष्य जन लोकपाल विधेयक ही था, वहीं देश के चारों कोनों से व्यक्त हुई जनता की आकांक्षा तो भ्रष्टाचार का जड़ से सफाया करने की है। लोकपाल विधेयक तैयार करने के लिए कमेटी का गठन कर उसमें आधे सदस्यों का चयन नागरिक समाज में से करने का सरकार ने जो फैसला लिया, इससे इस समस्या का हल हो गया या हो जाएगा, ऐसा मानना नादानी ही होगी।"

क्या आप को दिख रहा है कि पार्टी अन्ना के लक्ष्य और जनता की आकांक्षाओं का अंतर कर पा रही है, आपकी तरह अन्ना और जनता को, इस अनशन और जनसंघर्षों को एक ही नहीं कर दे रही है. आगे भी देखें, "पार्टी'(आपने अपने लेख में पार्टी भाकपा माओवादी के पहले लिखा था, मैं इसीलिये वैसा ही लिख रहा हूँ) यह भी कह रही है कि लोकपाल विधेयक, उसके लिए कमेटी के गठन, और उसके आधे सदस्यों का चयन नागरिक समाज में से करने से समस्या हल हो जायेगी, यह मानना नादानी होगी.
समझ आया कि 'नादान' आप जैसे 'उन्मत्त' और 'उन्मादित' क्रांतिकारी हैं, वरना तो दलितवादी, संदेहवादी, नव तर्कवादी और छायावादी क्रांतिकारी(इसका मतलब जो भी हो) यही कह रहे थे, कह रहे हैं.

आगे भी देख ही लीजिये, आपकी 'पार्टी' कह रही है कि "दरअसल आज भ्रष्टाचार के इतने गहरे तक जड़ें जमा लेने और बेहिसाब बढ़ जाने का यह कारण नहीं है कि यहां इसे रोकने का कोई कारगर कानून-कायदा ही मौजूद नहीं है। कानून चाहे जितने भी हों, चूंकि उन पर अमल करने और करवाने वाली व्यवस्था पर ही लुटेरे वर्गों का कब्जा है, इसीलिए यह बदहाली व्याप्त है।"

मतलब तो आपको समझ नहीं आया होगा, मैं ही बता दूं कि अन्ना के लोकपाल कानून से भी कुछ बनेगा बिगड़ेगा नहीं. इसके पहले कि आप गलतबयानी का फर्जी आरोप लगायें, 'पार्टी' के बयान के इसी पैराग्राफ की आखिरी पंक्तियाँ देख लें.
"यह उम्मीद रखना कि कानूनों या न्यायालयों के जरिए भ्रष्टाचार का अंत हो जाएगा, मरीचिका में पानी की उम्मीद रखने के बराबर होगा।"
कुछ समझ में आया विश्वदीपक जी, कि आप की उम्मीद, "मरीचिका में पानी की उम्मीद के बराबर है" या फिर आप अपने नाम के मुताबिक़ अज्ञानियों को ज्ञान देते हुए भी अंधेरों में डूबे हुए हैं? हाँ, अभी भी 'पार्टी' की समझदारी पर कोई भ्रम हो तो अगली पंक्तियाँ देख लें..
"इसलिए भ्रष्टाचार और अव्यवस्थाओं को जड़ से खत्म करने का मुद्दा व्यवस्था-परिवर्तन से जुड़ा हुआ सवाल है। यह मानकर चलना एक कोरा भ्रम ही होगा कि देश में मौजूद अर्द्धऔपनिवेशिक व अर्द्धसामंती व्यवस्था को बनाये रखते हुए ही चंद बेहतर कानूनों के सहारे से इस समस्या का पूरी तरह समाधन किया जा सकता है।"

आप समझ भी पा रहे हैं या नहीं कि पार्टी क्या कह रही है? पार्टी साफ़ साफ़ कह रही है कि इस व्यवस्था को जड़ से बदले बिना चंद कानूनों से इस समस्या का समाधान नहीं हो सकता, आपको क़ानून के जरिये इस समस्या का समाधान मांगने वाले अन्ना और उनके नौटंकीबाज करोडपति साथियों का समर्थन इसमें कहाँ दिख गया प्रभु? मुझे भी ज्ञान दें!

'पार्टी' इसके बाद जो कह रही है वह भी आपकी ऑंखें नहीं खोल पाया तो हमारी तो बिसात ही क्या है, पर फिर भी एक कोशिश करने में क्या हर्ज? आपके द्वारा बहुत उत्साह से उद्धृत पार्टी की प्रेस विज्ञप्ति कह रही है कि
"इस पृष्ठभूमि में इन साम्राज्यवाद-परस्त नीतियों का विरोध किये बिना तथा उनके खिलाफ संघर्ष छेड़े बिना ही भ्रष्टाचार का अंत कर पाने की आस लगाये बैठना या कर पाने का दावा करना जनता को गुमाराह करना ही है।"
अब आप कहीं यह तो कहने पर नहीं उतर आयेंगे कि अन्ना और उनके साथियों के संघर्ष में साम्राज्यवाद विरोध का मुद्दा भी शामिल था? या फिर कह ही दीजिये, हम भी देखें कि झूठ, गलतबयानी और बेशर्मी की कोई हद है कि नहीं!
पार्टी आगे भी कह रही है कि "दरअसल सरकार ने यह मांग अन्ना की भूख हड़ताल से डरकर पूरी नहीं की, बल्कि उनके समर्थन में उभर कर आये जनता के आक्रोश को ठंडा करने के लिए की। उससे भी बड़ी बात यह है कि चूंकि शासक वर्ग भलीभांति जानते हैं कि इस तरह के कानूनों से मौजूदा व्यवस्था को कोई नुकसान नहीं होने वाला है, इसीलिए उन्होंने बेखौफ होकर लोकपाल विधेयक के लिए कमेटी की घोषणा की।"

आप को कुछ समझ आता है विश्व के दीपक जी? पार्टी ना केवल यह कह रही है कि सरकार अन्ना के भूख हड़ताल से नहीं वरन उनके समर्थन में उभर आये (उतर आये नहीं) जनता के आक्रोश को ठंडा करने के लिए की है! पार्टी कुछ अंतर कर रही है, आन्दोलन में और जनता में, आपको दिख भी रहा है? पार्टी यह भी कह रही है कि 'सरकार' 'बेख़ौफ़' है यह तो आप शर्तिया नहीं समझ पा रहे हैं..

बाकी, पार्टी का आख़िरी आह्वान भी दुबारा पढ़ ही लें तो बेहतर होगा आपके लिए.."हमारी पार्टी देश की जनता से आग्रह करती है कि वह सरकार द्वारा घोषित सतही कानूनों और कानून तैयार करने के लिए कमेटियों के गठन की घोषणाओं से संतुष्ट होकर अपने संघर्ष को समाप्त न करे, बल्कि संघर्ष की राह पर दृढ़ संकल्प के साथ आगे बढ़े".

यही कानून अन्ना के आन्दोलन का एकमात्र लक्ष्य थे विश्वदीपक जी..
अब आप तय कर लें कि माफी 'दलितवादियों-संदेहवादियों' के साथ 'छायावादी क्रांतिकारियों' को मांगनी चाहिए या आप जैसे स्वघोषित माओवादी-अन्नावादियों को? हाँ खातिर जमा रखें कि आपसे उम्मीद हमें फिर भी कोई नहीं है.

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