मियाँ खड़ाऊं बनाते थे...!


[जनसत्ता में नमाज और समाज शीर्षक के साथ 9 मई 2011 को प्रकाशित]

यादें भी अजीब शय होतीं हैं. एक पूरी जी गयी जिन्दगी की यादों के इन पिटारों से कितना कुछ सरकता, फिसलता रहता है. और फिर, ठीक उस वक्त जब हम कुछ यादों को पूरी तरह से खो गया मान चुके होते हैं बीते वक्तों का स्मृति-चिन्ह बन वे अचानक जाने किन खिड़कियों से जिन्दगी में वापस घुस आती हैं. जैसे आज, इस आभासी दुनिया की चेहरों की किताब (फेसबुक) के पन्ने पलटते हुए दिखी ये खड़ाऊं वापस घुस आयी है स्मृतियों में. एक दौर था कि इन खड़ाऊंओं की लगातार खटखट की आवाज हमारी जिंदगियों में वैसे ही शामिल थी जैसे बाबा की यादें जो ये खड़ाऊं पहनते थे. फिर, बाबा कि यादों में भी बहुत कुछ शामिल था, उनके कुरते में हमेशा छुपी रहने वाली टाफियों से लेकर किसी को भी सुबह देर तक सोता देख लेने पर उनकी आँखों से होते हुए उनकी आवाज तक में उतर आने वाला गुस्सा.

तब यह समझने के लिए बहुत छोटे थे पर अब समझ आता है कि खड़ाऊंओं की सारी यादें सिर्फ एक ख़ास वर्ग (और उसके अन्दर की तीन जातियों) से जुडी हुई यादें हैं. बहुत जोर देने पर भी गाँव की पिछड़ी या दलित जातिओं में से खड़ाऊं पहनने वाला एक भी चेहरा याद नहीं आता. मसला चाहे 'पवित्रता' का हो (नहाने के बाद आँगन के कुँए से लेकर रसोई के चौके तक सिर्फ खड़ाऊं ही पहनी जा सकती थी), या कष्ट सह किसी अभीष्ट को प्रसन्न करने का, खड़ाऊं गाँव के 'बड़कान' या 'मलिकार' लोगों के पांवों में ही होती थी दलित वंचित पांवों में नहीं. वैसे भी खड़ाऊं पहन कर हल नहीं चलाया जा सकता, श्रम नहीं किया जा सकता. खड़ाऊं पहने हुए किसी व्यक्ति के हल चलाते हुए होने, या 'हेंगे' पर खड़े हुए खेत समतल करने की कल्पना करना भी संभव नहीं होता.तो बस, कि खड़ाऊं तो बस 'मलिकारों' के पाँव की ही शोभा बनती रही है, बन सकती है.

खड़ाऊंओं की यादें जाने क्यों मुझे 'अयोध्या में रहते थे बाकर मियाँ, खड़ाऊं बनाते थे बाकर मियाँ' शीर्षक कुबेर दत्त की कविता के रास्तों से होकर हमेशा अयोध्या खींच ले जाती हैं. बाबा की, और खड़ाऊं पहनने वाले तमाम लोगों की खड़ाऊं अयोध्या से ही आती थी. उसी अयोध्या से जो और लोगों के लिए आधुनिक भारत में साम्प्रदायिकता के स्रोत से लेकर कुछ भी हो मेरे लिए तमाम खूबसूरत यादों वाला एक छोटा सा कस्बा है. वह क़स्बा जिसके एक तरफ सिर्फ 28 किलोमीटर दूर मेरा घर है और दूसरी तरफ ननिहाल और सारी मौसियों के गाँव. मेरे बचपन की सारी गर्मी की छुट्टियाँ इसी कस्बे के दोनों तरफ यह दूरी तय करते हुए बीतीं हैं. मेरे बचपन वाला अयोध्या अपने जुड़वां शहर फैजाबाद के साथ वह अयोध्या है जहाँ मंदिर आन्दोलन के पहले कभी दंगा नहीं हुआ और उसके बाद भी सिर्फ एक बार ही हुआ. उस एक बार में भी उन बाहरी लोगों का हाथ था जो जाने किस किस के 'सेवक' बन अयोध्या आये थे.

इस पूरे इलाके में पहनी जाने वाली तमाम खड़ाऊं इसी कस्बे में बनती थी, और उन्हें कुबेर दत्त के प्रतीक में 'बाकर मियां' बनाते थे. वैसे इस बात को किसी किस्म की निरी भावुकता और गांधीवादी सर्वधर्म समभाव के टोटकों में देखे जाने की जरूरत नहीं है. इन खड़ाऊंओं और उनके बनाने वालों का यह सच इस गंगा-जमनी दोआबे की तहजीब का सच था. और यह सच बस उतना ही था, जितना यह कि रामनामी रंगने वाले रंगरेज, गाँव गाँव घूम चूड़ी बेचने वाले मनिहार, ज्यादातर दस्तकार सब 'बाकर मियाँ' होते थे और उनके ग्राहक/जजमान दूसरे धर्म वाले. यह श्रम का उसके सामाजिक मूल्य से रिश्ता था. यह श्रम का सामाजिकता से रिश्ता था. इसीलिये, 'बाकर मियां' बाकर चाचा होते थे, और अनारकली मनिहारिन अनारो चाची. इसीलिये गाँव के खड़ाऊं ना पहनने वाले हरवाह भूधर चाचा भी चाचा होते थे, और दाई सिर्फ 'दादी' होती थीं. बावजूद इस सच के कि मेहनत के इस सम्मान से शोषण की हकीकतें कम नहीं होती, यही है जो आज उनके विश्वास वाली व्यवस्था के प्रति बहुत सारी नफरतों और गुस्से के बावजूद के बाद भी खड़ाऊं पहनने वाले बाबा के प्रति मन में सम्मान और प्यार बनाए रखता है. यही था शायद, जो कुबेर दत्त से लिखवाता था कि "अल्लाह भी खुश था/कि उसके बन्दे को मिल रहा था/ नमाज और समाज/ अयोध्या में.

पर फिर, खड़ाऊं का सच एक इंसान या एक गाँव का सच कहाँ है? बावजूद इसके कि खड़ाऊं में अपने आप में कुछ गलत था या नहीं इसपर बहस हो सकती है, और इस पर भी कि खड़ाऊं पहनने वाले सब अपने आपमें गलत थे या नहीं. पर फिर भी खड़ाऊं संस्कृति में कुछ तो खतरे अन्तर्निहित हैं ही. जैसे अस्सी के दशक में धीरे धीरे अयोध्या में घुस आने वाले भगवा आस्थाओं वाले आखेटकों के खतरे जो खड़ाऊं पहनते तो थे पर बाकर मियाँ से बेवजह नफ़रत भी करते थे. फिर उनकी नफ़रत गैरखतरनाक, निष्क्रिय नफ़रत नहीं थी. वह तो वह नफरत थी जो अपने चुने हुए दुश्मनों को नेस्तोनाबूद कर देने में यकीन करने वाली नफ़रत थी. उस अंदाज वाली.. जिसका जिक्र करते हुए केदार बाबू कहते हैं कि .. फिर एक दिन जला दी गयी खड़ाऊं तमाम/ हे राम.

क्या करूँ कि यह याद करते हुए बाबा याद नहीं आते, उनकी खड़ाऊं याद नहीं आती. बस यह याद आता है कि बाकर मियाँ से लेकर भूधर चाचा तक कोई खड़ाऊं नहीं पहनता था, और खड़ाऊं खुद सही हो या नहीं, खड़ाऊं संस्कृति खतरनाक इरादे वालों को खाद पानी तो देती ही है

Comments

  1. haqiqat aur lajawab samar bhaiya/

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  2. समर भाई यही हकीकत है...आपने जो लिखा उससे हमेशा दूर रहा...या फिर यों कहें कि पढ़ने को ही न मिला...लेकिन यही खूबसूरती हुआ करती थी समाज की कि...सब एक-दूसरे पर निर्भर थे...जुड़े थे..खुश थे...एक - दूसरे के धर्म के बारे में या भगवान के बारे में बुरा-भला कहने का समय न था...

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