[05-07-2014 को जनसत्ता में प्रकाशित.]
06-07-2014 को यश भारत, जबलपुर में प्रकाशित]
[13-08-2011 को जनसन्देश टाइम्स में प्रकाशित]
साल 2011 की इस खुशनुमा सी रात यहाँ दिल्ली में बभनान नाम के अपने कस्बे की याद आने की कोई वजह नहीं समझ आती. आखिर उस उनींदे से कस्बे और दिल्ली में सिर्फ एक दशक नही बल्कि तमाम जिंदगियों का फासला है. एक ऐसा फासला जिसको तय करने को बनी सड़कें अब तक कागजों से जमीन पे नहीं उतर पायीं. ऐसा फासला, जिसको ख़त्म कर देने का वादा न जाने कितने हुक्मरानों की तकरीरों में अवाम की तालियों का सबब बनता है, पर फिर, तालियों का सबब बन के ही रह जाता है.
यूँ भी माजी(अतीत) और मुस्तकबिल(भविष्य) के बीच पुल नहीं बनते, सिर्फ पुल बनाने के वादे करने वालों की तकदीर बनती है. इक ऐसी तकदीर जिसमे दिल्ली की लगातार और ऊँची होती जाती इमारतों के बरअक्स हिन्दुस्तान के तमाम कस्बों के बाशिंदों के चेहरों पे दिल्ली चले जाने की नाकाम ख्वाहिशों की वजह से उतरती उदासी और तारी होती जाती है.
ऐसा नहीं कि इन कस्बों ने यह फासला तय करने की कोशिशें नहीं कीं. उल्टा उन्होंने तो इस नामुमकिन से ख्वाब का पीछा करने को जान निकाल के रख दी. उन्होंने हुक्मरानों के तमाम वादों पे यकीन किया. जब हुक्म हुए तो अपने बच्चों को जलावतन किया कि जाओ गोरखपुर, इलाहाबाद, बनारस पढो.. आईएएस-पीसीएस की तैयारी करो. अपने बच्चों को दिल्ली भेज पाने की हिम्मत तो खैर उनकी तब भी नहीं हुई थी, तब भी उन्हें समझ आता था कि अंगरेजी बोलने वाला, हुक्मरानों की बसाहटों वाला ये शहर उसके बच्चों की जद से बाहर है. बस उन्होंने अपने बच्चों को इन तमाम शहरों के लिए रवाना किया और खुद इक मुतमइन सी नींद में सो गए कि अब तो बच्चे चाँद सितारे छू के नहीं बल्कि हाथों में ले के लौटेंगे.
उन्हें कहाँ मालूम था कि हुक्मरान खुद जहाँ नहीं पंहुचते वहाँ अपनी जुबान और अपने कारिंदे भेज देते हैं. तो उन्होंने भेजी, अंगरेजी नाम की अपनी जुबान और उसको तामील कराने के लिए अपने हरकारे. अब बेचारे कस्बाई बच्चे कहाँ जानते थे कि उनका मुकाबला ऐसे लोगों से है जो एक अलहदा जुबान को न केवल तमाम सलाहियत(ज्ञान) का अलम्बरदार समझते थे बल्कि उसे ज्ञान का इकलौता रूप बनाने की कूवत भी रखते थे.
बस फिर रात दिन की पढ़ाई के बावजूद ये तमाम बच्चे साल दर साल अपने कस्बों को वापस लौटते रहे, अक्सर हारे हुए से कि कलेक्टरी के सितारे छूने की इनकी ख्वाहिशें या तो जमींदोज हुईं या फिर हद से हद नायब तहसीलदारी पाकर अगली पीढ़ियों की विरासतों में लिखी गयीं. और फिर ये अगली पीढ़ी भी जवान हुई. इस पीढ़ी का जवान होना इन कस्बों के साथ एक और हादसा था. बिजली के इन्तेजार में बंद पड़े टीवी सेटों में एमटीवी से शुरू कर तमाम म्यूज़िक चैनलों के घुस आने का हादसा. कस्बों में जेनरेटर सेटों की आवाजों का संगीत सा लगना शुरू हो जाने का हादसा. जैसे कोई हारमोनियम पे रैप गाने की कोशिश करने लगे. और इस हादसे के अंजाम भी वही हुए जो लाजमी बनते थे.
हिन्दुस्तान के लाखों कस्बों की इस नई पीढ़ी के सपनों, जिंदगियों और ख्वाहिशों में अजब घालमेल था. इनके सामने एक तरफ अपने पिताओं (इनके पहले कि पीढ़ियों में माओं को सपने देखने की इजाजत ही कहाँ थी?) की कलेक्टर बनने की अधूरी रह गयी ख्वाहिशें थीं तो दूसरी तरफ बरास्ते सूचना क्रान्ति सफ़ेदपोश कपड़ों में अमेरिकी लोगों का कुली बनाने वाली नौकरियां. तुर्रा यह कि इस बार न केवल जुबान बदलनी थी बल्कि उसके साथ उच्चारण, नाम और यहाँ तक कि पहचानें भी बदल लेनी थीं. इस नयी जिन्दगी का सपना मुकेशों को 'माइक' और लीलाओं को 'लिंडा' बनाने पर आमादा था.
लेकिन सपनों का पीछा करती इस पीढ़ी को जिन्दगी के सच बेच आने में वक्त ही कितना लगना था. वह भी उस देश में जिसके हुक्मरान 'मुक्ति' के, आजादी के सपने को 'मुक्त अर्थव्यवस्था' की तल्ख़ हकीकतों तक ले आये थे. उस देश में जिसके विकास का मतलब सिर्फ महानगरों का, राजधानियों का विकास होना था और इस विकास का रास्ता कमसेकम 4 सदी पुराने हरसूद जैसे कस्बों की जलसमाधि से होकर ही गुजरता था. अब वो दिन बहुत पीछे छूट गए थे जब भाखड़ा नांगल से लेकर हीराकुंड तक विकास की कीमत सिर्फ आदिवासियों को चुकानी होती थी .
वैसे इन कस्बों के अपने 'आदिवासी ' भी थे. ज्यादातर दलित शोषित तबकों से आने वाली इस आबादी के लिए सपने देखना भी बड़ा मुश्किल काम था क्योंकि हकीकतें खरीदने की खातिर उनके पास बेचने को कुछ था ही नहीं. इस नए बनते 'इण्डिया' की तो छोड़िये ही वे तो भारत से भी बाहर कर दिए गए लोग थे. (कस्बों से भी बहिष्कृत इन हिन्दुस्तानियों के बारे में विस्तार से अगली बार).
ये इण्डिया के हिन्दुस्तान पर भारी पड़ते जाने के दिन थे और इन दिनों में इण्डिया के दायरे के बाहर खड़े हर हिन्दुस्तानी के लिए लड़ाई आगे बढ़ने की नहीं बल्कि बस जिन्दा भर रह जाने की हो गयी थी .इन हालात में इस पीढी के पास सपने खरीदने के लिए पहचानें और जिंदगियां बेचने के सिवा कोई रास्ता बचा भी कहाँ था. जिनके पास जमीनें थीं, खेत थे, दुकानें थीं, वे सब बेच के दिल्ली के सपने खरीदने की कोशिशों में लग गए. कुछ सफल हुए पर ज्यादातर आईएएस से लेकर प्राथमिक विद्यालयों के अध्यापक तक कुछ भी बन जाने की जद्दोजहद में बूढ़े, नाराज और उदास होते रहे. अंततः बहिष्कृत भी .
यही उदासी हमारे समय के कस्बों का शोकगीत है. अपनी पहचानें, स्मृतियाँ , और जड़ें खो रहे उन लोगों का शोकगीत का जिनको हमारे आजाद और लोकतान्त्रिक देश के माननीय गृहमंत्री इस देश के पीछे रह जाने का जिम्मेदार मानते हैं. पर यकीन करिए, इस शोकगीत की जद में हिन्दुस्तान का इतना हिस्सा और इतने लोग हैं कि इससे पार पाए बिना कोई भी रास्ता इस मुल्क को तरक्की की राहों पर नहीं ले जा सकता.
06-07-2014 को यश भारत, जबलपुर में प्रकाशित]
[13-08-2011 को जनसन्देश टाइम्स में प्रकाशित]
साल 2011 की इस खुशनुमा सी रात यहाँ दिल्ली में बभनान नाम के अपने कस्बे की याद आने की कोई वजह नहीं समझ आती. आखिर उस उनींदे से कस्बे और दिल्ली में सिर्फ एक दशक नही बल्कि तमाम जिंदगियों का फासला है. एक ऐसा फासला जिसको तय करने को बनी सड़कें अब तक कागजों से जमीन पे नहीं उतर पायीं. ऐसा फासला, जिसको ख़त्म कर देने का वादा न जाने कितने हुक्मरानों की तकरीरों में अवाम की तालियों का सबब बनता है, पर फिर, तालियों का सबब बन के ही रह जाता है.
यूँ भी माजी(अतीत) और मुस्तकबिल(भविष्य) के बीच पुल नहीं बनते, सिर्फ पुल बनाने के वादे करने वालों की तकदीर बनती है. इक ऐसी तकदीर जिसमे दिल्ली की लगातार और ऊँची होती जाती इमारतों के बरअक्स हिन्दुस्तान के तमाम कस्बों के बाशिंदों के चेहरों पे दिल्ली चले जाने की नाकाम ख्वाहिशों की वजह से उतरती उदासी और तारी होती जाती है.
ऐसा नहीं कि इन कस्बों ने यह फासला तय करने की कोशिशें नहीं कीं. उल्टा उन्होंने तो इस नामुमकिन से ख्वाब का पीछा करने को जान निकाल के रख दी. उन्होंने हुक्मरानों के तमाम वादों पे यकीन किया. जब हुक्म हुए तो अपने बच्चों को जलावतन किया कि जाओ गोरखपुर, इलाहाबाद, बनारस पढो.. आईएएस-पीसीएस की तैयारी करो. अपने बच्चों को दिल्ली भेज पाने की हिम्मत तो खैर उनकी तब भी नहीं हुई थी, तब भी उन्हें समझ आता था कि अंगरेजी बोलने वाला, हुक्मरानों की बसाहटों वाला ये शहर उसके बच्चों की जद से बाहर है. बस उन्होंने अपने बच्चों को इन तमाम शहरों के लिए रवाना किया और खुद इक मुतमइन सी नींद में सो गए कि अब तो बच्चे चाँद सितारे छू के नहीं बल्कि हाथों में ले के लौटेंगे.
उन्हें कहाँ मालूम था कि हुक्मरान खुद जहाँ नहीं पंहुचते वहाँ अपनी जुबान और अपने कारिंदे भेज देते हैं. तो उन्होंने भेजी, अंगरेजी नाम की अपनी जुबान और उसको तामील कराने के लिए अपने हरकारे. अब बेचारे कस्बाई बच्चे कहाँ जानते थे कि उनका मुकाबला ऐसे लोगों से है जो एक अलहदा जुबान को न केवल तमाम सलाहियत(ज्ञान) का अलम्बरदार समझते थे बल्कि उसे ज्ञान का इकलौता रूप बनाने की कूवत भी रखते थे.
बस फिर रात दिन की पढ़ाई के बावजूद ये तमाम बच्चे साल दर साल अपने कस्बों को वापस लौटते रहे, अक्सर हारे हुए से कि कलेक्टरी के सितारे छूने की इनकी ख्वाहिशें या तो जमींदोज हुईं या फिर हद से हद नायब तहसीलदारी पाकर अगली पीढ़ियों की विरासतों में लिखी गयीं. और फिर ये अगली पीढ़ी भी जवान हुई. इस पीढ़ी का जवान होना इन कस्बों के साथ एक और हादसा था. बिजली के इन्तेजार में बंद पड़े टीवी सेटों में एमटीवी से शुरू कर तमाम म्यूज़िक चैनलों के घुस आने का हादसा. कस्बों में जेनरेटर सेटों की आवाजों का संगीत सा लगना शुरू हो जाने का हादसा. जैसे कोई हारमोनियम पे रैप गाने की कोशिश करने लगे. और इस हादसे के अंजाम भी वही हुए जो लाजमी बनते थे.
हिन्दुस्तान के लाखों कस्बों की इस नई पीढ़ी के सपनों, जिंदगियों और ख्वाहिशों में अजब घालमेल था. इनके सामने एक तरफ अपने पिताओं (इनके पहले कि पीढ़ियों में माओं को सपने देखने की इजाजत ही कहाँ थी?) की कलेक्टर बनने की अधूरी रह गयी ख्वाहिशें थीं तो दूसरी तरफ बरास्ते सूचना क्रान्ति सफ़ेदपोश कपड़ों में अमेरिकी लोगों का कुली बनाने वाली नौकरियां. तुर्रा यह कि इस बार न केवल जुबान बदलनी थी बल्कि उसके साथ उच्चारण, नाम और यहाँ तक कि पहचानें भी बदल लेनी थीं. इस नयी जिन्दगी का सपना मुकेशों को 'माइक' और लीलाओं को 'लिंडा' बनाने पर आमादा था.
लेकिन सपनों का पीछा करती इस पीढ़ी को जिन्दगी के सच बेच आने में वक्त ही कितना लगना था. वह भी उस देश में जिसके हुक्मरान 'मुक्ति' के, आजादी के सपने को 'मुक्त अर्थव्यवस्था' की तल्ख़ हकीकतों तक ले आये थे. उस देश में जिसके विकास का मतलब सिर्फ महानगरों का, राजधानियों का विकास होना था और इस विकास का रास्ता कमसेकम 4 सदी पुराने हरसूद जैसे कस्बों की जलसमाधि से होकर ही गुजरता था. अब वो दिन बहुत पीछे छूट गए थे जब भाखड़ा नांगल से लेकर हीराकुंड तक विकास की कीमत सिर्फ आदिवासियों को चुकानी होती थी .
वैसे इन कस्बों के अपने 'आदिवासी ' भी थे. ज्यादातर दलित शोषित तबकों से आने वाली इस आबादी के लिए सपने देखना भी बड़ा मुश्किल काम था क्योंकि हकीकतें खरीदने की खातिर उनके पास बेचने को कुछ था ही नहीं. इस नए बनते 'इण्डिया' की तो छोड़िये ही वे तो भारत से भी बाहर कर दिए गए लोग थे. (कस्बों से भी बहिष्कृत इन हिन्दुस्तानियों के बारे में विस्तार से अगली बार).
ये इण्डिया के हिन्दुस्तान पर भारी पड़ते जाने के दिन थे और इन दिनों में इण्डिया के दायरे के बाहर खड़े हर हिन्दुस्तानी के लिए लड़ाई आगे बढ़ने की नहीं बल्कि बस जिन्दा भर रह जाने की हो गयी थी .इन हालात में इस पीढी के पास सपने खरीदने के लिए पहचानें और जिंदगियां बेचने के सिवा कोई रास्ता बचा भी कहाँ था. जिनके पास जमीनें थीं, खेत थे, दुकानें थीं, वे सब बेच के दिल्ली के सपने खरीदने की कोशिशों में लग गए. कुछ सफल हुए पर ज्यादातर आईएएस से लेकर प्राथमिक विद्यालयों के अध्यापक तक कुछ भी बन जाने की जद्दोजहद में बूढ़े, नाराज और उदास होते रहे. अंततः बहिष्कृत भी .
यही उदासी हमारे समय के कस्बों का शोकगीत है. अपनी पहचानें, स्मृतियाँ , और जड़ें खो रहे उन लोगों का शोकगीत का जिनको हमारे आजाद और लोकतान्त्रिक देश के माननीय गृहमंत्री इस देश के पीछे रह जाने का जिम्मेदार मानते हैं. पर यकीन करिए, इस शोकगीत की जद में हिन्दुस्तान का इतना हिस्सा और इतने लोग हैं कि इससे पार पाए बिना कोई भी रास्ता इस मुल्क को तरक्की की राहों पर नहीं ले जा सकता.
शानदार भाषा और बेहतर तंज से तराशा है आपने अपना आलेख! इस लेख के जरीये छोटे कस्बों का एक पक्ष आपने सामने रखा है इसका दूसरा पक्ष भी है, जिसे सामने लाने की जरुरत है। छोटे-छोटे शहरों से निकले लोगों ने महानगरों की सत्ता, खेल, पूँजी, व्यापार, पत्रकारिता, साहित्य में भी अपना लोहा मनवाया है। उम्मीद करता हूँ दूसरा पक्ष भी आपके लेख के जरीये जल्दी सामने आए। इस लेख के दूसरे पक्ष पर राजदीप सरदेसाई का लेख अच्छा है, इस पर भी गौर फरमाएhttp://www.bhaskar.com/article/ABH-not-less-reason-to-party-2348370.html
ReplyDeleteबहुत दिनों बाद तुम्हारा कोई लेख पढ़ा और मन उदास हो गया.
ReplyDeleteसमर सर, इस लेख को पढने के बाद ऐसा लगा की आइना हमेशा ख़ूबसूरत अक्स नहीं दिखाता. क़ानून की पढाई की शुरुआत में "मुफ्फसिल अदालतों" के बारे में पढ़ा था. अंग्रेजी माध्यम की शिक्षा के बाद ये शब्द आकर्षित सा करता था. कभी कस्बों में ज्यादा समय गुज़ारने का मौका नहीं मिला, इसलिए ये नहीं कह सकता कि मई असलियत से पूरी तरह वाकिफ हूँ. पर हाँ जीवन का अधिकांश समय इलाहाबाद में गुजारा है,जो कि शायद कस्बों के लिए किसी महानगर से कम नहीं है,लेकिन दिल्ली जैसे शहरों के सामने खुद एक कस्बे सा प्रतीत होता है. एक ऐसा शहर जहाँ नीली-लाल बत्तियों वाली गाड़ियों में बैठे का सपना लिए "छात्रों" का समूह प्रतिवर्ष आता है. कुछ खुशनसीब लक्ष्य प्राप्त कर लेते है, किन्तु अधिकाँश जनता हॉस्टल,लोज,किराए के कमरों में टिमटिमाते बल्ब कि रौशनी में में अपना अस्तित्व तलाशती रहती है. और इस बल्ब कि रौशनी भले ही वैज्ञानिक विकास कि द्योतक हो लेकिन इसके अन्दर शायद गाँव की मोमबत्ती की गर्माहट नहीं होती,तभी तो हर वक़्त बहाना ढूध जाता है गर्मी पाने का. कभी चाय की चुस्कियों में, या फिर अड्डेबाजी की बहसों में या फिर हर आदमी द्वारा अपने अपने तरीकों से. अपना घर छूटता है, मिटटी से रिश्ता भी जिस पर शायद कभी साइकल चलते हुए हम सभी गिरे थे.
ReplyDeleteसफल हुए तो भावना से सरोकार नहीं रहता और असफल होने से शायद जीवन से नहीं. इस भौतिकवादी जीवन में शायद कुछ "परीक्षाएं" ही मोक्ष दिलाने की काबिलियत रखती हैं. यथार्थ भी उनका समर्थन करता है. ६४ साल की आज़ादी के बाद भी स्वतंत्रता मिली है की नहीं सोचने की ज़रूरत कभी न कभी पद ही जाती है. कस्बों में भी मूल्यों का ह्रास हुआ है, गाँव में वो खुशबू नहीं रही, इसलिए पता नहीं इस स्थिति पर गाने के लिए हम कस्बो वालो को कोई "शोक गीत" भी आएगा या नहीं!! बस उम्मीद का सहारा है, शायद इस सपने को भी कभी कोई तदबीर हासिल हो जाए......
भरत भाई-- आपकी बात से कोई असहमति नहीं है.. न ही उस लेख के मूल स्वर से से जो आपने उद्धृत किया है. पर फिर भी यह जरूर कहूँगा की कस्बाई उदासी की कहानियाँ अक्सर बहुमत की कहानियां हैं जबकि कस्बाई सफलताएं चंद लोगों की.. फिर उसके आगे देखिये तो कस्बाई सफलता की इन कहानियों के पीछे अक्सर जातीय/वर्गीय विभाजन के सच भी दिख जाते हैं. सफलताएं संपन्न और उच्चवर्णीय/वर्गीय लोगों के हिस्से में असफलताएं बाकियों के. (बेशक चंद कहानियां वंचित/शोषित वर्गों से आने वालों की सफलता की भी मिलेंगी पर वो अपवाद स्वरुप ही दिखेंगी.. वह भी अथक वैयक्तिक श्रम का नतीजा ही बन के रह जाती हैं. मैं उन दिनों के इन्तजार में हूँ जब कस्बाई सफलता की कहानियां इन विभाजनों के बहार खड़ी होंगी..
ReplyDeleteमुक्ति- उदास हो जाना बेहतर है, अगर इस उदासी से आगे बढ़ने के, लड़ने के और खुशियाँ छीन लाने के रास्ते निकलते हों..
ReplyDeleteप्रशांत-- तुमने असहमति की कोई गुंजाइश ही नहीं छोडी है भाई.. आगे बस यह की तुम्हारा लिखने का अंदाज इतना बढ़िया है की तुम्हे खुद भी लिखना शुरू कर देना चाहिए..
ReplyDeleteGGShaikh said:
ReplyDeleteदुर्दांत परिस्थितियों में तबक्केवार स्वाहा होते जीवन, जीवन-स्वप्न...
समर तुम्हारी स्थापनाएं और स्वपरिचित सी प्रताडनाओं की
अभिव्यक्ति आंखन देखी ही...छला-छली समृद्धि के मध्य में.
This comment has been removed by the author.
ReplyDeleteGG Shaikh sahab ..
ReplyDeleteआपकी हर प्रतिक्रिया आश्वस्त करती है कि हम जहाँ भी खड़े हैं वह अकेले नहीं हैं . और यह आश्वस्ति यकीन दिलाती है कि ये हमारी लड़ाई है और अंततः हम इसे जीत ही लेंगे!
शुक्रिया
"..इस आबादी के लिए सपने देखना भी बड़ा मुश्किल काम था क्योंकि हकीकतें खरीदने की खातिर उनके पास बेचने को कुछ था ही नहीं."
ReplyDeleteसमर आपकी शब्दों के चयन और उनका इम्प्रेसिव ताना बाना बुनने कि कला के हम शुरू से ही कायल रहे है . फिर से बधाई इस विषय को संजीदगी से उभारने के लिए .
क्या रवानी है,साथी ।
ReplyDeleteक्या लिखते हो यार !पास होते तो लाख दुश्मनी के बावजूद अंगुलियां चूम लेता |ये कस्बे यूँही नहीं मर रहे इन्हें साजिशन मारा जा रहा है |जब कभी कोई एक दिल्ली जैसे शहरों में जिंदगी -जीने की उम्मीद लेकर कदम रखता है ,कोई न कोई क़स्बा ,थोडा सा मरता जरुर है |
ReplyDelete@आवेश तिवारी-- दुश्मनी हम किसी से न रखते हैं भाई. हिसाब किताब रखने की आदत होती तब न दुश्मनी होती कि इसने ये कह/कर दिया है हिसाब चुकाना है. अपना तो सीधा है कि तुरंत फरियायो, इसलिए आग्रह/दुराग्रह रह ही नहीं जाते. यूं भी जहाँ हूँ वहां के कामों के दबाव में बहीखाते रखने की फुर्सत नहीं होती.
ReplyDeleteशेष अच्छा लगा, शुक्रिया. बताने का कष्ट किया, और शुक्रिया.
समर भाई गज़ब का लिखा है आपने... हिन्दुस्तानी भाषा में ही हिन्दुस्तान के अधमरे सपनों के बीच घुस आई क्षणिक रंगीनियों पर जिस संवेदना के साथ लिखा है, वह अद्भुत है..
ReplyDeleteरंगभूमि की पहली ही पंक्ति है " शहर तो क्रय-विक्रय की जगह है." मुझे आज भी लगता है कि प्रेमचंद गलत नहीं हैं. कस्बे तो खत्म ही होगये हैं... या खत्म किये जारहे हैं.. शहर सब खा जायेंगें...
माजी(अतीत) और मुस्तकबिल(भविष्य) के बीच पुल नहीं बनते, सिर्फ पुल बनाने के वादे करने वालों की तकदीर बनती है
ReplyDeletejaandaar line or ab mere fav hai hai.....wah samar bahut dino ke baad jabardast bhasa ke saath ander se nikale sabdo ko pada dil khush ho gaya .....bahut badiya likha hai....
samar माजी(अतीत) और मुस्तकबिल(भविष्य) के बीच पुल नहीं बनते, सिर्फ पुल बनाने के वादे करने वालों की तकदीर बनती है ab ye line mere fav hai....bahut jaandaar or shaandaar,lambe samay ke baad jabardast bhasa padne mili ,aaj laga dimaag ko khuraag mili hai....
ReplyDeleteबहुत उम्दा लिखा है, बहुत खुशी हुई
ReplyDeleteकस्बों के शोकगीत को सुन लेना. और फिर लिपिबद्ध कर देना उसी टस को....सरल नहीं समर जी......
ReplyDeleteबहुत ही अच्छा लिखा आपने....एक टीस उभरी है लेकिन विश्वास है कि बदलेगा कस्बों का स्वर भिी....उल्लास के सार्थक धुनों के साथ झुूमेगा कस्बा....!!!
बाबू शाण्डिल्य(अर्चना)
The angst of small towns that remain neither the villages they were nor the cities they aspired to be.The people like living in a psychological diaspora that doesn't belong or is eternally rootless and homeless.
ReplyDeleteSuch a poignant choice of images and words to paint this Picasso kind of subtle and yet profound picture of small town India.
What a precise and creatively written piece about this exile in your own space this homelessness in your own homes.
A friend shared this, beautiful capturing of the loss and the longing.
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