ये बच्चे 'फिशिंग' पर नहीं निकले हैं..










जिला रीवा के जवा विकास खंड (ब्लाक) की बरहुला ग्राम पंचायत के मोहनईय्या टोले से लौटते हुए छोटेलाल भाई और मेरे चेहरे पर एक अजब सा संतोष था. थकान भरे एक दिन के काम के खत्म होने की बेहद छोटी सी खुशी में नामालूम सी जगहों में छोटी छोटी लड़ाइयाँ लड़ रहे दलित आदिवासी साथियों के हौसलों का गवाह बन पाने की बड़ी सी खुशी मिल जाए तो शायद ऐसा ही संतोष
होता है. ऐसा नहीं की ये सारी लड़ाइयाँ हमारे हक में गयी हैं, बल्कि इसके ठीक उलट इनमे से ज्यादातर में हम हारे हुए पक्ष में खड़े लोग हैं. पर फिर, दो पीढी पहले के दौर से, जब लड़ सकना भी इन तमाम दोस्तों के ख़्वाबों के जद से बाहर की चीज थी, आज की ये जगह बहुत बहुत बेहतर है.

कि हारी हुई सी ही सही, लड़ाइयाँ तो हैं!

और फिर छोटेलाल भाई का साथ ऐसा कि जेनयू से लेकर इलाहाबाद विश्वविद्यालय तक पढी गयी तमाम रिसर्च मेथडस हलकी पड़ जाएँ. ठीक उस वक्त जब आप रिकोर्डर , नोटबुक और कैमरे के साथ बाकी सामान संभाल कर रख रहे हों कि सब दर्ज कर लिया, छोटेलाल भाई पूछेंगे..

समर भाई मुझे लग रहा है वह लाइन आपने नोट नहीं की. वह बहुत जरूरी है. और उनके द्वारा उस वाक्य को दोहराता जाते हुए सुने जाने के बाद आप बस स्तब्ध रह जायेंगे कि ये लो.. यह वाक्य तो वह 'सूत्र' है जिसके द्वारा इस पूरे दौर को समझा जा सकता है..

ये छोटेलाल भाई आदमी भी बहुत दिलचस्प हैं.. छोटेलाल से कब सी एल, और सी एल से कब सियल हो गए इन्हें शायद खुद ही पता न चला हो.

तो खैर, किस्सा यह कि हम दोनों लौट रहे थे और निगाह इन दृश्यों पर पड़ी. फिर लगा कि अब शायद कुछ कहने की जरूरत नहीं है. जो भी कहना है तस्वीरें खुद कह देंगी.. तो तस्वीरें यह रहीं..

दृश्य 1 - कुछ बच्चे हैं जो खेत और सड़कों के बीच की उंचाई के फर्क के कारण बन गए तालाब से पानी में मछली पकड़ रहे हैं. पाठा नाम से जाने जाने वाले, पानी की लगभग शाश्वत कमी वाले इलाके में यूँ तो इस बरस हुई बारिश के ही क्या कहने हैं पर फिर, अगर पानी इतना हो के मछलियाँ पैदा हो जाएँ तब तो फिर..

दृश्य 2- मछली पकड़ते इन बच्चों में भी दो अलग अलग समूह हैं. अपनी अपनी चादरों (जाल तो खैर यहाँ मिलेंगे भी कहाँ!) और बर्तनों के साथ.. मुझे और सियाल भाई को रोक कर उतारते हुए देख इन बच्चों के चेहरे पर कौतूहल और डर के बीच का कोई भाव उतर रहा है.

दृश्य 3- बच्चे हमें मछली पकड़ना दिखाने/सिखाने के लिए तैयार हो गए हैं.

दृश्य 4- फिर से वही. अब बस यह दिखाना/सिखाना दूसरा समूह कर रहा है.

दृश्य 5- इस बार तो चादर में कुछ मछलियाँ भी हैं!

दृश्य 6 और 7- बच्चे हमारे लिए 'पोज' करने की खातिर पानी से बाहर निकल आये हैं, सड़क पर.

दृश्य 8- 'पढ़ते हो या नहीं' हमारा उनसे पहला सवाल है! और यह सवाल उनके चेहरों पर अब तक टिके कौतूहल और डर के बीच के भाव को डर, विशुद्ध डर के भाव में बदल देता है. वह डर जो इस देश के मध्यमवर्गीय लोगों से नीचे के स्तर पर जिन्दगी जीते किसी भी आम नागरिक के चेहरे पर उतर आता है. वह डर जो इस देश की सरकार, सत्ता और प्रशासन से आम नागरिक का रिश्ता निर्धारित करता है. वह रिश्ता जहाँ संवाद नहीं है, सिर्फ डरा देने वाली निगाहें हैं.

बच्चे एक दुसरे को देखते हैं, और सहमे हुए से वापस चल देते हैं. यह चल देना करीब करीब भागने जैसा है!
यह बच्चे जिधर लौट रहे हैं उधर एक 'शिक्षा गारंटी शाला है'. माने कि, शिक्षा के संविधानिक अधिकार को लागू करने की दिशा में मध्यप्रदेश सरकार का कदम. एक खाली पड़ी इमारत..

मैं और सियल भाई एक दुसरे को देखते हैं. हम दोनों को पता है कि मछली मारना, अंगरेजी में बोलें तो 'फिशिंग' इन बच्चों की होबी नहीं है.. वह यहाँ शौकिया नहीं आये थे. यह भी, कि मोटर साइकिल पर बैठे दो लोगों को देख कर डर जाने वाले इन बच्चों को सरकारी जीपों, कारों को देख कर कैसा महसूस होता होगा!



Comments

  1. सुन्दर....बचपना याद दिला दी आपने तो समर भाई.....! शाकाहरी बनने से पहले हम भी इसी तरह, ऐसे ही खेतों में मछली पकड़ते थे...आनंद तो फिशिंग से भी ज्यादा आता था ....शानदार.
    पंकज झा.

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  2. इनकी चादर में मरती मछलियों में मछलियों के बजाय. इसमें तो इनका बचपन और इनका भविष्य मरता है .... वैसे आप शायद नोटिस कर ही रहे होगें पर मैं अपनी ओर से बोल दे रहा हूँ कि जिन बच्चों ने कपड़े पहने है उनका रंग मेरे गांव में पहनने वाले बच्चे से काफी मिलता है ...यह वहीं कपड़ा है जिसे सरकार पढने के लिए मुफ्त में बाट देती है ...जो इनके उत्सवों और सामान्य दिनों का आवरण है ...बेहतर चित्रण पर नया नहीं ... पसंद इस लिए क्योंकि डि़जीटल युग पर है और मेरे जैसे लोगों को like और comment करने का मौका मिल रहा है

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  3. एक खाली पड़ी इमारत...शिक्षा गारंटी संविधानिक अधिकार का ये हाल इसी मुल्क मे संभव है ...मूर्ख दिवस पर इसे लागू करके वाह! वाह! तो लूट ली पर किसे फ़ुर्सत है इसके असली सच से रूबरू होने की ...???

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  4. http://www.facebook.com/l.php?u=http%3A%2F%2Fshish-shishir.blogspot.com%2F2011%2F08%2Fblog-post.html&h=UAQCbPEnuAQDmfI8ve0FK6Ob7sSWAmg1ha2ygtW82xZoZGA

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  5. शिशिर..
    बेशक तुम्हारी राय बिलकुल ठीक है दोस्त. यूँ भी इस पोस्ट में जो कह रहा हूँ वह तुमसे नहीं उन लोगों से कह रहा हूँ जिनका हिन्दुस्तान जाने कब का 'इण्डिया' बन चुका है. उनसे कह रहा हूँ जिन्हें लगता है की इस मुल्क का विकास हो चुका और जिनके मुताबिक़ अब जाती से लेकर सारी सामजिक गैर बरबरियाँ ख़त्म हो चुकीं.. और चूँकि उनसे कह रहा हूँ इसलिए सबूतों के साथ कह रहा है की वो फिर ;झूठ' बोलकर मुकर न जाएँ..
    और ये स्कूल यूनिफार्म वाली बात तुमने खूब पकड़ी है..उसके लिए तस्वीरों की खोज में भी जुट गया हूँ अभी से..बहुत शुक्रिया..

    पंकज भाई..
    अफ़सोस पर हमारी जिंदगियों के 'गाँव' का रूमान इन बच्चों के गांव की भूख से बहुत छोटा है..

    आशीष--
    दोस्त बात अच्छी है.. और चोट भी सही जगह करती है..

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  6. सारी बात एक इस पैरे में--

    मैं और सियल भाई एक दुसरे को देखते हैं. हम दोनों को पता है कि मछली मारना, अंगरेजी में बोलें तो 'फिशिंग' इन बच्चों की होबी नहीं है.. वह यहाँ शौकिया नहीं आये थे. यह भी, कि मोटर साइकिल पर बैठे दो लोगों को देख कर डर जाने वाले इन बच्चों को सरकारी जीपों, कारों को देख कर कैसा महसूस होता होगा!

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