कैसे कैसे तहरीर चौक, कैसी कैसी तहरीरें!

[रविवार में प्रकाशित]

जगहें चाहे कितनी भी खूबसूरत या महत्वपूर्ण हों, भूगोल के बंधन को मुश्किल से ही तोड़ पाती हैं. यूँ भी राष्ट्र-राज्य और उसकी अपार ताकत वाले हमारे समयों में भौगोलिक सच अक्सर भू-राजनैतिक सच भी होते हैं और इन 'सचों' की हिफाजत करने को वो फौजें होती जिनसे पार पाना असंभव न सही पर बेहद मुश्किल जरूर होता है. फिर भी, कभी कभी ये बंधन टूटते हैं और ये टूटना तब होता है तब, जब ऐतिहासिक प्रक्रियायों और कारणों के चलते ये जगहें सिर्फ जगहें न रहकर आम इंसान के गुस्से, विक्षोभ और सपनों का प्रतिबिम्ब बन जाती हैं. ऐसे कि जैसे तहरीर चौक.

मिस्र की राजधानी काहिरा का अब तक नामालूम सा एक चौक जो देखते ही देखते दुनिया भर की मुक्तिकामी और तरक्कीपसंद जनता के सपनों और संघर्ष का पहले प्रतीक, और फिर मील-पत्थर बन गया. ऐसे कि तहरीर चौक से उठती आवाजों का जब जवाब आया तो तमाम सरहदों और उनके अन्दर रहने वाले हुक्मरानों की हिफाजत को खड़ी फौजों को रौंद के आया.

काहिरा से उठते अय्येहुन्नास ('कोई है' के नारे के लिए अरबी लफ्ज़) का जवाब जब मनामा ने, बेनगाजी ने, ट्यूनिसिया ने लब्बैक (हम एक हैं) कह के दिया तो यह भूल कर दिया कि उनके सामने हथियारबंद फौजें खड़ीं हैं और यह भी कि दुनिया के किसी मुल्क में फौजें अवाम की हिफाज़त करने को नहीं होतीं. बस , कुछ ही दिनों के भीतर पूरे अरब-विश्व में लब्बैक और अय्येहुन्नास की गूंजती हुई आवाजें थीं , दशकों से सत्ता पे काबिज तानाशाहों की फौजें थीं और उनके सामने सीना तान कर खड़े लोगों के निडर चेहरे थे.

जान हथेली पर लेकर निकली इस अरब अवाम के गुस्से में दशकों से स्थगित सवालों के सारे जवाब हों न हों, उन रास्तों को ढूँढने की मुकम्मल ख्वाहिश थी जो उनके देशों को आजादी, बराबरी और लोकतंत्र के रास्ते पर ले जायेंगे. अरब लोगों ने ये रास्ते ढूंढ भी लिए. खबर भी नहीं हुई कि अवामी गुस्से की इस तपिश में मिस्र और ट्यूनिसिया की तानाशाहियाँ कब जल के खाक हो गयीं .

सत्तायें जानती हैं कि ढहती हुई हर तानाशाही गैर मुल्कों के मजलूम गुलाम लोगों को उम्मीद देती है, उनके आजादी के सपनों को लड़ने का हौसला देती है. यह भी कि फौजों के सामने बिना डरे खड़े हो जाने वाला हर एक शख्स हुकूमतों की ताबूत में एक और कील होता है. यूँ कि उसके चेहरे से गायब हो गया डर हुक्मरानों के चेहरों पर उतरने लगता है. और यहाँ तो तहरीर चौक से शुरू कर फौजों के सामने खड़े हो गए लोगों की कतारें थी. फिर इन मुल्कों में पहली बार , हुक्मरानों के चेहरे पर वह डर उतरने लगा जो उन्होंने अपने जाने लोगों की किस्मत में लिख दिया था.

इन तमाम देशों के संघर्षों में साझा बस एक चीज थी, तहरीर चौक पर देखा गया एक साझा सपना. सो इन तमाम मुल्कों ने, उनकी अवामों ने, तहरीर चौक का शुक्रिया भी अदा किया, ऐसे कि उन्होंने अपने मुल्कों में विरोध की सबसे बड़ी जगहों को तहरीर चौक बना दिया. अब तहरीर चौक संज्ञा नहीं एक विशेषण था, आजादी, अमन और बराबरी के सपने देखती जनताओं की ख्वाहिशों का सर्वनाम था.

पर फिर अचानक काहिरा का तहरीर चौक बरास्ते टीवी चैनल्स दिल्ली के जंतर मंतर से होता हुआ हमारे बेडरूमों में उतर आया. चाहे काहिरा में उमड़ती लाखों की भीड़ के सामने जंतर मंतर के चंद हजार लोग किसी गिनती में न हों, बावजूद इस सच के कि काहिरा में कम से कम तानाशाही के अंत की ख्वाहिश लिए अपनी जान दांव पर लगा कर सड़कों पर उतर आई भीड़ के सामने एसएमएसों से कोई खतरा ना होने की आश्वस्ति पाकर ही घर से निकले इन लोगों का तहरीर चौक के संघर्षों से दूर दूर तक कोई साझा न हो. अपने को तहरीर चौक कहने वाला, और इलेक्ट्रानिक मीडिया के अन्दर अपने कारिंदों से कहलवाने पर आमादा यह कुछ अजब सा तहरीर चौक था.

अरब देशों में इकठ्ठा होती भीड़ों पर गोलियां चलाती फौजों के बरअक्स इस भीड़ में बिसलेरी और बिस्कुट बाँटते लोग थे, वहां शहीद हो रहे लोगों के सामने यहाँ सिर्फ स्वास्थ्य के इजाजत देने तक अनशन की घोषणा करते लोग थे.

उस तहरीर और इस तहरीर में फर्क सिर्फ इतना भर नहीं था. यहाँ तो फर्क बुनियादी मूल्यों का, मान्यताओं का भी था. उन तहरीर चौकों में तानाशाहों के खिलाफ सारे अवाम की गुलाम इच्छाओं के कैद से बाहर आने की छटपटाहटें थीं और यहाँ एक दलित मुख्यमंत्री की दलितों वंचितों को कोर कमेटी में शामिल करने की मांग का भी उद्घोष जैसा नकार था. वहां दिलों में उबल रहा गुस्सा न केवल सरकारों बल्कि सरकारी शह पर जमाने से जनता को लूट रही कंपनियों को भी मार भगाने पर आमादा था और ठीक उलट यहाँ के तहरीर चौक के तो प्रायोजक ही कार्पोरेशंस थे.

अकारण नहीं है कि यहाँ के तहरीर चौक के नेताओं के हाथों में थामे कागज़ के पुलिंदों में कार्पोरेशंस के खिलाफ एक लफ्ज़ नहीं है, बावजूद इस सच के कि सरकारी भ्रष्टाचार के सबसे ज्यादा लाभ उन्हें ही होते हैं. वहां मांगें शासन में सबकी भागीदारी की थीं और यहाँ कल तक सामाजिक न्याय के खिलाफ, पिछड़े वर्गों को मिलने वाले आरक्षण के खिलाफ खड़े लोग रातों रात 'देश ' की आवाज बन गए थे देश के नेता बन गए थे. वहां सपने सबके साझे सुख के थे और यहाँ भ्रष्टाचार को उस मुल्क में भूख से बड़ा बताते लोग थे जिसकी 80 फीसदी आबादी 20 रुपये से कम में एक पूरे दिन की जिन्दगी जीती है. उस देश में जहाँ नरेगा को सरकारी धन का अपव्यय बताने वाला फिक्की 'इस' तहरीर चौक पर सबसे आगे खड़ा होता है. उस देश में जिसमे हर बरस अम्बानियों और टाटाओं को 80000 करोड़ रुपये से ज्यादा की कर्जमाफी देश के विकास के नाम पर मिलती है.

वहां की लड़ाई सबके हक और हुकूक की थी और यहाँ संविधानिक प्राविधानों की वजह से कुछ शोषित लोगों के आगे बढ़ आने से सदियों से सत्ता पर काबिज लोगों के माथे पर बन रही चिंता की लकीरें थीं. वहाँ तानाशाहों के मिजाज से चलते शासन के खिलाफ एक लोकतांत्रिक संविधान बनाने के सपने थे और यहाँ बाबासाहेब के बनाए संविधान को खारिज करने की जिद थी.

वहां एक तानाशाह को भगा कर सामूहिक प्रतिनिधित्व वाला स्वतंत्र समाज हासिल कर पाने की जद्दोजहद थी और यहाँ एक व्यक्ति को संसद और संविधान से भी ऊपर खड़ा कर देने की हुंकारें थीं. या यूँ कह लें, कि वहां लड़ाई जम्हूरियत हासिल करने की थी और यहाँ उसे जमींदोज करने की.

बात साफ़ है, कि इस तहरीर चौक पर लिखी जा रही तहरीरें उस तहरीर चौक की इबारतों से न केवल अलहदा हैं बल्कि उनसे मुख्तलिफ भी हैं. अब समझना यह है कि 'हमारे' तहरीर चौक पे ये अजब तहरीरें कौन और क्यों लिख रहा है! समझना इसलिए कि फिर लड़ना भी पड़ेगा, असली तहरीर चौक की विरासत बचानी भी पड़ेगी.

Comments

  1. अब तहरीर चौक संज्ञा नहीं एक विशेषण था, आजादी, अमन और बराबरी के सपने देखती जनताओं की ख्वाहिशों का सर्वनाम था....सुन्दर शिल्प...शानदार व्याकरण. उचित तुलना, अद्भुत सोच. बहुत खूब.
    पंकज झा.

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  2. मीडिया को कुछ शब्दों की चाभी चाहिये जिसे लगा कर चाभी से चलने वाले पुतलों से बहस करवायी जा सके, कुछ गप्पबाजी करायी जाये. कल कुछ नयी बात होगी, लोग इस बात को भूल जायेंगे. वैसी ही चाभी बन गया तहरीर चौक.

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