महिषासुर: मुक्ति के महाआख्यान की वापसी

[फॉरवर्डप्रेस, नवंबर 2011 के अंक में प्रकाशित]

जलते हुए धैर्य के हथियार से लैस, प्रवेश करेंगे हम, शानदार शहरों में, सूर्योदय के वक्त!
-आर्थर रिम्बौ

कई बार लगता है कि सुर्ख़ियों में रहना जवाहरलाल नेहरु विश्वविद्यालय (जेनयू) की नियति भी है और नीयत भी. उससे भी बेहतर यह कि यह नियति भाग्यवादी नियति नहीं बल्कि आतताई और आखेटक व्यवस्था के हथियारों को चुनौती देने का साहस और उससे उपजे हमलों को झेल सकने की जिजीविषा की नियति है. यह नीयत ‘कहीं कोई विकल्प नहीं है’ के उद्घोषों के दौर में प्रतिरोध के साथ साथ संभावनाओं के नए प्रतिदर्श खड़े करने की नीयत है.

खैर, इस बार सुर्ख़ियों का सबब बना प्रख्यात चिन्तक और राजनीतिक कार्यकर्ता प्रेमकुमार मणि का लिखा और इसी ‘फॉरवर्डप्रेस’ पत्रिका में छपा आमुख लेख, जिसमे उन्होंने मिथकों के ब्राह्मणवादी पाठ को चुनौती देते हुए ‘देवी दुर्गा’ और ‘महिषासुर’ की कथा का एक वैकल्पिक, और ‘प्रातिरोधिक’ पुनर्पाठ किया था.(देखें, 'किसकी पूजा कर रहे हैं बहुजन', फारवर्ड प्रेस, अक्टूबर 2011)

दशहरे के पर्व की सांस्कृतिक-ऐतिहासिक विवेचना करते हुए मणि का मूल निष्कर्ष था कि यह आर्य संस्कृति के अनार्यों के साथ छल के सफल होने का विजयपर्व है. उनके मुताबिक़ यह पर्व अपने मूल चरित्र में आर्यों के द्वारा अनार्य (और बहुजन) राजा महिषासुर को कपट से मारकर आर्य सत्ता स्थापित करने के उत्सव पर्व से ज्यादा कुछ भी नहीं है. इस लेख में बंगाल और कुछ अन्य स्थानों पर वेश्यायों द्वारा देवी दुर्गा को अपने ‘कुल’ का बताये जाने, और दुर्गा प्रतिमा के निर्माण में उनके घर की मिट्टी की प्रतीकात्मक ‘अनिवार्यता’ का जिक्र भी था.

ब्राह्मणवादी परम्पराओं को गहरी चुनौती देते हुए इस लेख के अंतिम हिस्से को जेनयू में दलित-बहुजन हकों की लड़ाई के लिए प्रतिबद्ध संगठन ऑल इंडिया बैकवर्ड स्‍टूडेंट्स फोरम (एआइबीएसएफ) ने बतौर रिलीज जारी करते हुए जेनयू की दीवारों पर चस्पा कर दिया. गौरतलब है कि जेनयू के इतिहास में तथाकथित विवादित मुद्दों पर आने वाला यह कोई पहला पैम्फलेट या परचा नहीं था बल्कि जेएनयू की तारीख में इस किस्म के पर्चे प्रगतिशील और प्रतिगामी दोनों किस्म की राजनीतिक धाराओं से आते ही रहे हैं और इन पर्चों से पैदा हुई बहसों की तपिश ने जेनयू की रवायतों को पैदा और मजबूत करने में अपनी बड़ी भूमिका निभाई है. यह और बात है कि दोनों तरफ के पर्चों में दृष्टि और स्वप्न का फर्क होना लाजमी है. मसलन जिक्र ही करें तो इसी जेनयू में प्रोग्रसिव स्टुडेंट्स युनियन ने बाकायदा जुलूस निकाल कर विचारक मुद्राराक्षस और रमणिका गुप्ता की सदारत में २००३ में मनुस्मृति जलाई है तो प्रतिगामी खेमे की तरफ से ‘काफिरों की मौत पर अल्लाह मुस्कुराया’ जैसे घटिया पर्चे भी आये हैं.

पर एक बात सामान्य तौर पर साफ़ रही है कि जेनयू ने इन बहसों को बहसों की शक्ल में लिया है, नयी राजनीतिक दृष्टि के, समानता और बराबरी के सपनों के प्रस्थान बिंदु के बतौर देखा है और जहाँ तक संभव हुआ है हिंसा को रोका है. यूँ भी, बहसें विश्वविद्यालयों में नहीं तो फिर कहाँ होंगी.

पर जेनयू के छात्रों द्वारा लगातार खारिज की जाती और पीछे हटती हुई अखिल भारतीय विद्यार्थी परिषद(एबीवीपी) ने इस पर्चे में उसके अपने स्वार्थों के काम आने वाली ध्रुवीकरण की सम्भावनाओं को तलाश लिया. पूरे पर्चे की सांस्कृतिक-राजनैतिक दृष्टि को छोड़ते हुए उन्होंने दुर्गा को वेश्याओं द्वारा अपने कुल का बताये जाने वाले हिस्से को चुना और इसे हिन्दू भावनाओं को आहत करने वाला बताते हुए एआइबीएसएफ के पर्चे फाड़ने शुरू किये. साथ ही उन्होंने शुरू किया वह साम्प्रदायिक विषवमन जिसके लिए वह जाने जाते हैं, बस अंतर सिर्फ इतना था कि इस बार दुश्मन ‘अन्य’ मतलब ‘अल्पसंख्यक’ नहीं बल्कि उनके दावों के मुताबिक़ उनके ‘अपने’ लोग थे, वह लोग थे जिन्हें उन्होंने और उनकी राजनैतिक धारा ने हमेशा अपने शहीदी दस्तों की तरह इस्तेमाल करने की कोशिश की है. इसीलिये उन्हें यह भी समझ आ रहा था कि धार्मिक आधारों पर न होने वाला यह ध्रुवीकरण उनके काम तब तक नहीं आयेगा जब तक वह इसको कोई और रंग न दे दें. हाँ, ब्राहमणवादी वर्चस्व की विचारधारा के इन समर्थकों के लिए यह परचा, और इसे जारी करने का ‘एआइबीएसएफ’ का ‘दुस्साहस’ उनकी ५००० साल की सत्ता को चुनौती देने वाला और इसी लिए नाकाबिलेबर्दाश्त भी लगा. यह कहना शायद गैरजरूरी ही होगा कि प्रतिगामी मूल्यों के इन पहरुओं के पास तर्कों का जवाब हिंसा के सिवा कभी कुछ रहा नहीं.

उन्होंने हिंसा की भी. इस घटना के कुछ दिन बाद एआइबीएसएफ और यूडीएसएफ द्वारा निजी क्षेत्र में आरक्षण विषय पर आयोजित एक गोष्ठी के तुरंत बाद उन्होंने आयोजनकर्ताओं पर सुनियोजित हमला किया जिसमे एआइबीएसएफ के नेतृत्वकारी साथियों जीतेंद्र यादव, विनय भूषन और मुन्नी भारती समेत कई अन्य कार्यकर्ता घायल हुए. घटनास्थल पर पुलिस को आना पड़ा तथा दोनों पक्षों की और से शिकायत दर्ज कराई गयी.

इस पूरे घटनाक्रम का बुरा पहलू बस इस हमले तक ही सीमित था. इस हमले के माध्यम से परिसर के साम्प्रदायिक ध्रुवीकरण की एबीवीपी की ख्वाहिशें जेनयू के आम छात्रों और प्रगतिशील राजनैतिक संगठनों के सशक्त प्रतिरोध के सामने जमींदोज होकर रह गयीं. असफलता से उपजी बौखलाहट में फिर उन्होंने अगले दिन उनके द्वारा किये गए हमले के विरोध में आयोजित सामूहिक मेस कैम्पेन के साथियों को उत्तेजित कर एक और हिंसक झगडे की सम्भावना तलाशी जो उन साथियों के असीम धैर्य और शांतिपूर्वक प्रतिरोध के सामने असफल हुई.

हाँ, इन दोनों हमलों ने आम छात्रों के अंदर इस हिंसक राजनीति के खिलाफ एक गुस्सा भर दिया जो विश्वविद्यालय प्रशासन पर दोषियों के खिलाफ कार्यवाही करने की मांग को लेकर हुए विशाल प्रदर्शन में नजर आया. इस प्रदर्शन में उमड़ी संख्या से भयभीत प्रशासन को दोषियों के खिलाफ कड़ी कार्यवाही करने का वादा करने पर मजबूर भी किया.

पर फिर, इस घटना के सामाजिक-राजनैतिक निहितार्थ ऐसी किसी भी कार्यवाही से कहीं बड़े हैं. यह निहितार्थ हैं मिथकों के, दावों के, परम्पराओं के पुनर्पाठ की कोशिशों के मजबूत होने के. इन कोशिशों से, फिर, इतिहास की गति निर्धारित होती है, उस इतिहास की जो हीगेल के मुताबिक़ ‘स्वतंत्रता की चेतना के बढते जाने का इतिहास’ है. महिषासुर बनाम दुर्गा की इस लड़ाई ने और कुछ किया हो या न किया हो, कम से कम जेनयू में न्याय के पक्ष में खड़े हर व्यक्ति को अपने इतिहास और अपनी परम्पराओं के अंदर के अन्याय से सीधी मुठभेड़ करने, पर विवश किया है.

इस मुठभेड़ की परिणिति हुई लोर्ड मैकाले की जयन्ती की पूर्वसंध्या पर एआइबीएसएफ और यूडीएसएफ द्वारा आयोजित ‘महिषासुर और मैकाले: एक पुनर्पाठ’ गोष्ठी से. अबकी बार सुनने वाले भी काफी ज्यादा थे और वक्तावों में शामिल थे इवान कोस्टा, कंवल भारती, रमणिका गुप्‍ता, कंवल भारती, विकास चंद और कौशलेन्द्र. बातें तमाम हुईं पर मूल स्वर एक ही था, कि पराजित जातियों का पराजय का ही सही, एक इतिहास होता है और उसे वापस हासिल करना एक जरूरी कार्यवाही है. यह भी, कि बात मिथकों के मुकाबले मिथकों को खड़ा कर देने से आगे जानी चाहिए क्योंकि उत्तरआधुनिकता की सीमायें मुक्ति के महाआख्यान की संभावनाओं क्षीण कर देती हैं.

यह गोष्ठी सन्देश भी है कि यथास्तिथिवादियों के हमले परिवर्तनकामियों को और मजबूत ही बनाते हैं, उनके अंदर उनके अपने नायकों, उनके अपने इतिहास की खोज की अदम्य जिजीविषा भर देते हैं. फिर सिर्फ महिषासुर नहीं बल्कि इतिहास से अब तक खारिज तमाम महानायकों की वापसी होती है और यह हर वापसी ब्राह्मणवाद की चिता में एक और लकड़ी का काम करती है.

यह सन्देश है कि अब आप महिषासुर को रोक नहीं पायेंगे, क्योंकि लगभग दो सदी पहले आप ज्योतिबा फुले को बलि राजा को वापस लाने से कहाँ रोक पाए थे. अब तमाम महिषासुर लौटेंगे आपके शहरों में,और असीम धैर्य के साथ छीन लेंगें आपसे अपना हक. यह जरूर है कि वह आपके साथ वैसा सलूक नहीं करेंगे जैसा आपने उनके साथ किया था क्योंकि वह न्याय के हक में खड़े हैं.

Comments

  1. kaafi shodhparak lekh hai samar bhai saab....achha laga padh kar..

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