टुकड़ा टुकड़ा शाहकार है रॉकस्टार

दुनिया का कोई समाज खंडित मूर्तियों की पूजा नहीं करता. रॉकस्टार देख कर बाहर निकलते हुए मेरे दोस्त प्रशांत ने सिर्फ इतना भर कहा था. रॉकस्टार देखे और उसकी समीक्षाएँ पढ़ते/गुनते/झेलते हुए गुजरे इस एक हफ्ते में प्रशांत की यह बात कानों में लगातार बजती ही रही है.

अफ़सोस यह, कि खंडित होना रॉकस्टार की बनाई मूर्ति की नियति नहीं थी. अपने तई तो इस फिल्म ने बहुत कुछ नया गढ़ने की कोशिश की है और इंटरवल के पहले हिस्से में सफल भी रही है. रॉकस्टार बेशक एक खूबसूरत प्रयोग है, एक ऐसा प्रयोग जिसके टुकड़े शाहकार होने की ऊंचाई तक जा पंहुचते हैं. एक ऐसा प्रयोग जो दिल्ली जैसे शहर और इसके ‘क्रीम’ समझे जाने वाले हिन्दू कोलेज जैसी संस्था के आभिजात्य आवरण को चीरकर उसके अंदर के कस्बाई लोगों की कहानियां कहने का दुस्साहस करता है. वह कहानियाँ जो बहस और विमर्श तो छोड़िये ही, हमारी दीद से भी खारिज कर दी गयीं हैं.

सोचिये तो, कि हिन्दू कोलेज के बारे में सोचते हुए क्या किसी के दिमाग में कैंटीन मैनेजर खटाना जी का ख़याल भी आ सकता है? या फिर चिक-लिस्ट जारी करने वाला वह दृश्य जहाँ दिल्ली यूनिवर्सिटी में ‘बहनजी’ बताकर खारिज कर दी जाने वाली कस्बाई लड़कियों का दर्द छलक आया है. बहनजी, जिनके बहनजी होने का राज सिर्फ इतना होता है कि ना उन्हें अच्छी अंग्रेजी बोलनी आती है ना हाई-फैशन की गलियों से गुजरना. रॉकस्टार ने, कमसेकम, इंटरवल के पहले के पूर्वार्ध में कस्बाई मानसिकता को न केवल छुआ है बल्कि कहीं कहीं तो यथार्थ से भी आगे के यथार्थवादी ढंग से परदे पर उतार दिया है.

जनार्दन उर्फ जोर्डन उर्फ रनवीर कपूर को दर्द की दीक्षा देते हुए खटाना जी को समझना उस किसी शख्स के लिए शायद कभी संभव नहीं होगा जिसने अपने बहुत पीछे छूट गए कसबे में खुद को देख बेसाख्ता मुस्कुरा पड़ी एक लड़की की दूसरी मुस्कराहट के इन्तजार में खुद को देवदास न बना डाला हो. यह दर्द वही समझ सकता है जिसने मुकेश के दर्द भरे नगमों को ५ रुपये में एक कैसेट पर ‘डब’ करवा कर सुना हो, जिसने अताउल्लाह खान की ‘दर्द’ भरी गजलों से ज्यादा उनकी सच्ची झूठी कहानियों पर आंसू बहाये हों. यह उन्ही कस्बाई लड़कों के लिए संभव है जो एक लड़की के इकतरफा प्रेम में जिंदगी के एक लंबे दौर तक उदास रहने को काम समझते थे और फिर अपने पिता की दुकानों पर बैठ धीरे धीरे तोंदिल अधेड़ों में बदल जाते थे.

यह वह जगह है जहां आकर चुक जाना रॉकस्टार की नियति बन जाता है. यह वह जगह है जहाँ आकर रॉकस्टार को जनार्दन को पीछे छोड़ जोर्डन की कहानी कहनी पड़ती है. वह कहानी जिसमे हमारे नायक को ‘दर्द’ तलाशना है, वह दर्द जो उसे बचपन में अपना शोषण ना होने से लेकर अपने माँ-बाप के अब तक जिन्दा होने की वजह से अजनबी सा लगता है. और फिर दिल टूटने का दर्द तो नीली जींस के ऊपर घर का बुना स्वेटर पहनने वाले इस लड़के के नसीब में था भी कहाँ.

रॉकस्टार के प्रयोगों की ख़ूबसूरती उस अंतर्संघर्ष के निरूपण की ख़ूबसूरती थी जो कस्बाई जेहनियत के महानगरीय आभिजात्य संस्कृति से चाहे-अनचाहे टकरावों से पैदा होती है.यह खूबसूरती जनार्दन के जोर्डन बनने की यात्रा में भी बनी रह सकती थी बशर्ते फिल्म उस यात्रा के रास्तों को पहचानने की, उन पर चलने की कोशिश करती. पर यहाँ तो न सड़कें थीं न सफर, बस मंजिल ही मंजिल थी. वह भी ऐसी मंजिल जो हसीन हादसों के इत्तेफ़ाक से हासिल हुई है.

हाँ, रॉकस्टार का जनार्दन किसी अंतर्संघर्ष की तपिश से पैदा हुआ कलाकार नहीं, एक सफल इत्तेफाक भर है, एक इत्तेफाक जो रॉक की ऊँचाइयों तक जा पंहुचता है. किन रास्तों से यह बताना फिल्म भूल गयी है. अपनी किसी दोस्त (जो लड़की है) की शादी में काश्मीर चले जाने की वजह से घर से निकाल दिए जाने का इत्तेफाक. (वैसे इसमें इतना गलत क्या था कि बात डांटडपट से ऊपर जाकर घर से निकाल देने पर रुके यह आखिर तक समझ नहीं आया.)

फिर खटाना जी जैसे दोस्त के घर न जाकर पूरे दो महीने निजामुद्दीन दरगाह पर रहने का इत्तेफाक. इस इत्तेफाक से उपजा वहाँ के कव्वालों से टकरा उनके हारमोनियम की संगत में अपना गिटार उतार देने का इत्तेफाक. (यूँ ईमानदारी से कहूँ तो गिटार और हारमोनियम की ये संगत इस फिल्म के सबसे बड़े दृश्यों में से है, या शायद समकालीन बोलीवुड के भी). फिर गिटार बजाते हुए एक बड़े शहनाईवादक उस्ताद द्वारा देख लिए, और उस्ताद के प्रभावित होने का इत्तेफाक. फिर म्यूजिक कंपनी के ऑफिस से लगभग असफल होकर निकलते हुए उस उस्ताद के पंहुच जाने का इत्तेफाक.

हाँ, इस मामले में यह फिल्म अपने समय की नब्ज को बिलकुल ठीक ठीक पहचानती है, पकड़ती है. शेयर बाजार के इत्तेफाकों से तय होते उतार चढ़ाव की लहरों पर सवार होकर धनकुबेर बनने के सपने देखनेवाले इन समयों में, कौन बनेगा करोड़पति खेलते इन समयों में, या फिर रियालिटी स्वयंवरों के इत्तेफाकों से निकले फैसले लेकर जीवनसाथी चुनने के इन समयों में सफलता के लिए इससे ज्यादा संघर्ष दिखाने की जरूरत भी क्या थी. वह दौर कोई और था जब बम्बई नाम के उस शहर में ‘स्ट्रगलर’ नाम की एक पूरी जमात हुआ करती थी. काश उन्हें भी कोई हीर कौल मिल जाती फिर तो हमारे पास दिलीप कुमार से लेकर अमिताभ बच्चन तक सब बहुवचन में होते!

खैर, खटाना भाई के दिए ज्ञान को पल्लू में बाँध रेडीमेड दर्द की तलाश में निकले हमारे जनार्दन को फिर बस एक ही रास्ता दीखता है, कोलेज की मशहूर दिलतोड़ू हीर से प्रेम का इजहार कर खारिज कर दिया जाना और उससे पैदा हुए दर्द को अपनी रचनाशीलता के ईंधन में डाल महान कलाकार बनने की यात्रा पर निकल पड़ना! उसके बाद जो है, अंग्रेजी में कहें तो बस ‘इतिहास’ है.

पर फिर, इस इतिहास में दर्द, वह भी इतना सारा, आया कहाँ से यह इतिहास शामिल नहीं है. बस स्टॉप पर बोर हो रही जनता का मनोरंजन कर रहे ‘जनार्दन’ की दिल्ली पुलिसिया पिटाई को भी भरपूर ‘फुटेज’ देने वाली यह फिल्म उसके दर्द के स्रोतों का कहीं कोई फुटेज नहीं देती. उसके तो खैर छोड़िये ही, जनार्दन के पूछे सवाल कि ‘कहीं तुझे मुझसे प्यार तो नहीं हो गया’ का विलंबित जवाब देती हीर कौल की ‘हाँ’ छोड़ें तो फिल्म में और कहीं कुछ भी ऐसा नहीं है जो इस दर्द का बयान कर सके.

इसका भी कि हीर के प्राग जाने और बीमार हो जाने के पीछे की वजह क्या है/थी. इसका भी कि मनोवैज्ञानिक बीमारी के अस्थि मज्जा (बोन मेरो) कैंसर में बदल जाने के पीछे इश्क-ए-हकीकी था या गम-ए-मजाजी! फिर से, सिर्फ एक दृश्य हीर के हाल की थोड़ी सी खबर देता है, जब उसका पति जोर्डन के बारे में सवाल कर्ता है और वह सिर्फ इतना कह पाती है कि ‘पता नहीं’!

शायद इस पता नहीं में ही जोर्डन के गुस्से का राज है. पर यह गुस्सा है किसके खिलाफ? उबलता हुआ आक्रोश तो ठीक है पर सिर्फ एक गाने में लहराते तिब्बत के झंडों से या कश्मीरी जनता की उपस्थिति से कुछ साफ़ नहीं होता. यह भी कि साडा हक छीना किसने है, इसे वापस लेना किससे है.

यही वह जगह है जहाँ आकार यह फिल्म बोझिल सी हो जाती है. काश्मीर की खूबसूरत वादियों में बारहा दौड़ती मोटरसाइकिल का बिम्ब कहीं अंदर यह भी महसूस कराने लगता है कि पहली ही बार के देखे में हम यह फिल्म बार बार देख रहे हैं. या शायद, यह गुस्सा हमारे समयों की छाती पर धंसा हुआ वह झंडा है जिसको सेंसर बोर्ड बार बार धुंधला कर देता है. जोर्डन का आक्रोश वह आक्रोश है जो गरीब जनता के छीने जाते हकों के बरअक्स छीजते जीवन मूल्यों वाले मध्यवर्गीय सपनों का भारत है, ३२ रुपये से नीचे जीने वाली ७० प्रतिशत आबादी के सामने चलो अमेरिका के सपने वाला इण्डिया. इस इण्डिया का गुस्सा बस इतना ही हो सकता है. इसके अस्तित्व की तलाश भी बस जिंदगी में पहली बार चाय बनाने के संकट से उपजी अपने आपे की खोज भर हो सकती है. फिल्म इस दिशा में इशारा भी करती है जब म्यूजिक कंपनी का मालिक कहता है कि सब कुछ 'इमेज' है.

टुकड़ों टुकड़ों में शाहकार यह फिल्म एक इमेज एक मूर्ति तो गढ़ती है, पर एक खंडित मूर्ति, और प्रशांत की बात बिलकुल सच है कि दुनिया का कोई समाज खंडित मूर्तियों की पूजा नहीं करता.

Comments

  1. सुन्दर समीक्षा...वास्तव में समर भाई जो भी लिखते हैं वो पूरे दिल से और काफी खुबसूरती से...और हमारे जैसे लेखक के लिए तो समर जी को पढ़ना और मजेदार हो जाता है जब विचारधारा से इतर चीज़ों पर लिख रहे हों...हा हा हा ....बहुत खूब और सुन्दर समीक्षा....!
    पंकज झा.

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  2. तुमने तो कहा था कि बोर फिल्म है, मत देखना. इसे पढकर तो फिल्म देखने का मन हो आया. अच्छा लिखा है. खासकर ये - ". वह कहानी जिसमे हमारे नायक को ‘दर्द’ तलाशना है, वह दर्द जो उसे बचपन में अपना शोषण ना होने से लेकर अपने माँ-बाप के अब तक जिन्दा होने की वजह से अजनबी सा लगता है. और फिर दिल टूटने का दर्द तो नीली जींस के ऊपर घर का बुना स्वेटर पहनने वाले इस लड़के के नसीब में था भी कहाँ. "

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  3. काव्यात्मक समीक्षा, विचारों की ऊष्मा के साथ...

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  4. खंडित मूर्तियां...
    एक शेर है जिसकी अंतिम पंक्ति है : "उठते नहीं है हाथ मेरे इस दुआ के बाद...".
    समर, अब इस समीक्षा से बढ़िया भी ('thread-bare') कोई समीक्षा हो सकती है, फिल्म 'रोक्स्टार' की ?
    हवाई दर्द, हवाई सपने(लोटरी या कौन बनेगा करोड़पति) हवाई ज़िंदगी...
    इम्तियाज अली को भी उनकी सो-कोल्ड रौशनी में दिखाई गई है, यह 'लालटेन...'
    शायद इस फिल्म की प्रसिद्धि या सफलता ही इतनी चकाचौंध करनेवाली है कि समर को यहाँ कुछ लिखना पड़ा हो... अपनी 'पीच' (pitch) को बचाते हुए...
    "देश के युवाओं का आक्रोश, मध्यवर्गीय सपनों का भारत, गरीब जनता के छीने जाते हकों के बरअकस छीजते
    जीवन मूल्य..." इन पड़तालों व सरोकारों से चूक जाना भी क्या सफलता है ?

    टुकड़ों-टुकड़ों में शाहकार...
    खंडित गडढों का पानी नदी नहीं बनाता, नदी बनने के लिए अस्खलित धारा चाहिए...

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  5. sach me mujae bhi logo ne kaha hai ki mat daekhna par lagta hai ab daekh kar hi comment karu tho accha hoga

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  6. Pranam bhaiya Rockstar mene dekhi or dekhne k bad aaj mene uspe di gai apki samiksha padi atayant prabhavit karne wali h or me puri trah sahmat hu apke vicharon se sivaye kuch pahlu ko chod k jaha apke sawalon ka ek prasanwachak lagta h mjhe lagta h me un prasno ka uttr de skti hu parantu yaha is waqt apne vichar prkat karte waqt ye sambhav ni h shayad pr itna jarur kahungi ki janardan urf jorden ke jo halat the wo aaj k samaj k har navyuva k h kyki saaf h unhe apne sapno ka pata h pr un par vishwas ni h or un sapno k badlte rahne ki prakriya ya yu khe ki un sapno ko pura karne ke marg ka pata na hona unke andr ki khisiahat ko zagzhorti h jisse jorden jaise angry young man bante h jinhe sach me koi ni samajh pata or wo khud ko hi ni samajh pate bs chalte h or yai unka dard h jo wo kbi bayaan ni kr pate. mjhe puri film bahut achi lagi or me uske har pahlu ko samjha sakti hu basarte use aaj k yuva k vicharon se jod k dekha jaye to.

    me apke vicharon pe apni tippadi dene ki gustakhi kr ri hu or ni janti ki me kitna samjha pai pr fr b aap k dwara ye prayatn kia mjhse koi galti hui ho to mafi chahti hu.

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  7. aapki tippani pasand aaee.
    yuvaa jeevan ke poore paripeksh ko samejhte hue, uski saari ki saari baarikiyon ko samajhte hue aage badha jaae, chhota saa chhota kaam bhi hanskar kar le, aur jo bhi aaj apne haath mein hai, maani jo kaam yaa kartavya aaj hamaare paas hai usse hi apne jeevan ka mahaantam kaam samajh karein, apno se badon ko samajh ne ki koshish karein, sabhi bade-boodhe sajjan nahin hote, fir bhi apna balance banae rakhe...educated or uneducated sabhi ke liye yah zaroori hai, aur khudko hi haushiyaar maatra n samjhe...jisne apni jaddojahad se, soojh-boojh se safal life ke patterns banae hain, unki baat bhi sune, sabhi se kuchh n kuchh seekhe, dushmani ke bhaav ko mann mein zyaada jagah n de, negative pratikriyaaon se bache...fir to lagta hi hai ke kuchh n kuchh to baat ban hi jaegi... yuvaaon ki...

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  8. बढ़िया लिखा है भाई साहब

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