क्योंकि दिलीप मंडल अन्ना हजारे नहीं हैं.

अरण्यरोदन था, भले जरूरत नहीं थी.
यह कोई ऐसी खबर नहीं थी कि इसको सुनते हुए पार्श्वसंगीत के रूप में अरण्यरोदन जरूरी हो. न ही यह ऐसी खबर थी इस पर प्रतिक्रिया के लिए करुण आर्तनाद की मुकेश के दर्द भरे नगमों से संगत करवानी जरूरी पड़ जाए. हकीकतन, खबर इसकी ठीक उलट थी, मुख्यधारा के मीडिया से अरसे बाद आई एक ऐसी खबर जिससे उम्मीद जगती हो.

दिलीप मंडल का इंडिया टुडे का कार्यकारी संपादक बनना एक उत्साहजनक बात है, खासतौर पर इस सन्दर्भ में कि उनके इस पद पर आने से हाशिए पर पड़ी आवाजों के मुख्यधारा में आने की गुंजाइश तो पैदा होती ही है. आखिर को दिलीप मंडल का इतिहास इन आवाजों के लिए, इन छूट गए सरोकारों के लिए लड़ने का इतिहास है. बेवजह नहीं था कि कथादेश के मीडिया वार्षिकी के संपादकमंडल में एक चेहरा दिलीप मंडल का भी था. उनके इतिहास के मद्देनजर यह उम्मीद की जा सकती है कि खुद को मिले इस मौके में वह मुख्यधारा की मीडिया की उन गलतियों को दुरुस्त करने की कोशिश करेंगे जिनके खिलाफ वह लगातार एक निर्मम लड़ाई लड़ते रहे हैं.

पर उम्मीद के ठीक विपरीत, इस खबर पर आयी प्रतिक्रियाएं बेहद निराशाजनक थीं. कोलावेरी डी के वाइरल होकर 1 करोड़ से ज्यादा हिट्स (तुलना संख्या की नहीं ‘रिस्पांस’ की है) मिलने के बाद यह खबर थी जिसने सोशल नेटवर्किंग की हिन्दी दुनिया में आग लगा दी थी. दुखद यह, कि प्रतिक्रियायों का मूल स्वर हिन्दी भाषा की दरिद्रता और क्षुद्रता दोनों का प्रतिनिधि स्वर था. प्रतिक्रियाएं तमाम थीं और बात सिर्फ एक. शब्द भी वही थे जो लौट लौट कर आ रहे थे. ‘बिक जाना’, चांदी का जूता हो तो, कारपोरेट मीडिया और जाने क्या क्या.

अफ़सोस कि इन तमाम बातों में गालियाँ बहुत थीं, तर्क कोई नहीं. ठीक वैसे ही जैसे जिंदगी चलाने के लिए किसी एनजीओ की नौकरी करने वाले वामपंथी साथी को यूनिवर्सिटी के प्रोफ़ेसर साम्राज्यवाद का दलाल बताएं. जैसे कि उनके वेतन का पैसा उसी साम्राज्यवादी/पूंजीवादी व्यवस्था के अंग भारत सरकार के मानव संसाधन विकास मंत्रालय से न आकर किसी अंतर्राष्ट्रीय सर्वहारा संगठन से आ रहा हो. जैसे कि सही गलत सब कुछ तय करने की कोई एक कमेटी हो जिसके वह आजीवन सदस्य हों. यह भी कि जैसे उस कमेटी के दरवाजे बाकी लोगों के लिए हमेशा हमेशा के लिए बंद हों.

मुखालफत का मतलब दुनिया छोड़ देना नहीं, लड़ना होता है.

समाज परिवर्तन के लिए कारपोरेट मीडिया की आलोचना हमारे समय का एक बेहद जरूरी कार्यभार है, लगभग क्रांतिकारी भी. दिलीप मंडल अपनी क्षमता मुताबिक़ करते भी रहे हैं. ठीक वैसे ही जैसे अरुंधती रॉय करती रही हैं, या फिर नोआम चोमस्की. वैकल्पिक मीडिया की दृष्टि से देखें तो ठीक यही काम जॉन पिल्जर जैसे फिल्म-निर्माताओं ने, नाओमी क्लीन जैसी लेखिकाओं ने किया है. पर इन सबने यह काम किया कहाँ है?अरुंधती के लेख कहाँ छपते रहे हैं? मेरे ख़याल से आउटलुक और कुछ भी हो, किसी मार्क्सवादी पार्टी का मुखपत्र तो नहीं ही है! नाओमी क्लीन की, अरुंधती की, चोमस्की की और ऐसे तमाम जनपक्षधर लोगों की किताबें जिन प्रकाशनों से छपती रही हैं उनके मालिकान कौन हैं? ये प्रकाशन कोई रेवल्युशनरी कमेटीज नहीं चलातीं. थोड़ा नजदीक अपने ही देश में आयें तो निर्विवाद रूप से इस देश के सबसे जनपक्षधर पत्रकार पी साईनाथ कहाँ लिखते हैं? ग्रामीण संकट को मुख्यधारा के विमर्श में लाने वाला समाचार पत्र ‘द हिन्दू’ किसी पत्रकार सहकारिता समूह की मिलकियत नहीं बल्कि एक परिवार के मालिकाने वाला समाचारपत्र है. यह भी कि हिन्दुस्तान में तानाशाही के सबसे नजदीक पंहुचने वाले आपातकाल के दिनों में लोकतांत्रिक मूल्यों की रक्षा के लिए मर-मिटे इन्डियन एक्सप्रेस जैसे अखबारों, और तमाम पत्रकारों का वर्गचरित्र क्या था.

काश कि दुनिया संघर्षों से नहीं हमारी सदिच्छाओं से चलती.

मसला साफ़ है की दुनिया हमारी सदिच्छाओं से नहीं चलती. दुनिया के चलने की अपनी एक गति है और यह गति सामाजिक-राजनैतिक शक्तियों के ऐतिहासिक प्रक्रियायों से लगातार टकराने के क्रम में जन्म लेती है. इसीलिए, हमारी सामाजिक--राजनैतिक प्रतिबद्धताओं के अभी के समाज से बिलकुल मुख्तलिफ होने के बावजूद हमें इसी समाज में रहना है, यहीं छोटी बड़ी लड़ाइयों के माध्यम से व्यवस्था परिवर्तन के लिए बढ़ना है. यह भी कि मजदूरी और सम्मान के लिए लड़ी जाने वाली छोटी छोटी ट्रेड-यूनियनाना लड़ाइयां ही क्रान्ति की पूर्वपीठिका बनती हैं. ऐसे कि जैसे रूस की क्रान्ति मार्क्सवाद के ‘अलगाव(एलीनेशन) या रीइफिकेशन जैसे सैद्धांतिक मसलों पर नहीं बल्कि रोटी, जमीन और शान्ति जैसे बुनियादी मुद्दों पर हुई थी.

नजर हो तो बात साफ़ हो जायेगी कि मुख्यधारा की मीडिया में दिलीप मंडल जैसे लोगों की उपस्थिति सत्ताधारियों के वर्चस्व (हेजेमनी) को चुनौती देने वाला कदम होता है, मुख्यधारा की मीडिया में हमारे समय सन्दर्भों और सरोकारों के लौटने का बायस बनता है. सत्ता की ताकत का अंदर से ‘सबवर्जन’, फिर से, क्रान्ति की बड़ी ‘टैक्टिक्स’ में से से एक रहा है. बेशक ऐसे कदमों के अपने खतरे होते हैं जिनमे बिक जाने का खतरा भी शामिल है. और बिकने को तो फिर दिलीप मंडल ही नहीं, कोई भी बिक सकता है. पर फिर, उम्मीद साईनाथ जैसों के, अरुंधती जैसों के न बिकने से पालें, या फिर हमारी बुर्जुआ नैतिकता के चरम विस्फोट में बिकने को ही नियति मान लें? और फिर, दिलीप मंडल अंतिम संघर्षशील साथी तो हैं नहीं कि अगर वह बिक भी गए (जिसकी उम्मीद मुझे नही है) तो बदलाव के रास्ते बंद ही हो जायेंगे. दिलीप मंडल के ’सम्म्मानित’ नेताओं में से एक शरद यादव दशक भर से भी ज्यादा से भाजपा के साथ हैं, तो क्या बदलाव की लड़ाई रुक गयी? या फिर दिलीप मंडल की राजनीति से उम्मीद रखने वाले सारे शरद के साथ चले गए?

पर फिर, फतवेबाजी, तात्कालिकता, और टीआरपी की खोज में अनवरत संघर्षरत तीक्ष्ण हिन्दीवालों को विमर्शों से खास मतलब ही क्या है? और उनकी बातों में विमर्शों और तर्कों की चीखती अनुपस्थिति मुझे अब चौंकाती भी नहीं है. आश्चर्य सिर्फ इस बात पर होता है कि इन बुद्धिजीवियों के अपने तर्क रोज बदलते रहते हैं और उन्हें इसका इलहाम भी नहीं होता. होता भी हो तो वह उसके लिए शर्मिंदा होते तो कम से कम नहीं ही दिखते हैं.

इनमे से ज्यादातर वह हैं जो अन्ना हजारे के समर्थन में लेट लेट जा रहे थे. लगभग उन्ही तर्कों के साथ जिनके सहारे उन्होंने दिलीप के खिलाफ मोर्चा खोल रखा है. अन्ना हजारे का एक इतिहास है, शिवसेना के साथ खड़े होने का इतिहास, बम्बई में उत्तर भारतीयों पर हमले के समर्थन का इतिहास और साम्प्रदायिक होने की हद तक पाकिस्तान विरोध का इतिहास. मंडल विरोधी (दिलीप जोड़ें या न जोड़ें इनमें से ज्यादातर के चरित्र में फर्क नहीं पड़ेगा) सारे लोग तब हमसे अन्ना का इतिहास भूलने की मांग कर रहे थे. वह हमें बता रहे थे कि कैसे ये मुद्दा इतना महत्वपूर्ण है कि हमें अन्ना के साथ खड़े होना चाहिए, बावजूद इसके कि अन्ना के साथ खड़े होने का मतलब ‘श्री श्री रविशंकर’ से लेकर रामदेव तक विश्व हिन्दू परिषद द्वारा ‘मान्यताप्राप्त’ संतों के साथ खड़े होना भी था.

अब यही लोग कह रहे हैं कि दिलीप मंडल का फैसल उनके ‘इतिहास’ की वजह से गलत है. चूँकि उन्होंने कारपोरेट मीडिया के बाजारवादी, आभिजात्य उच्चवर्गीय और जातिवादी चरित्र का लगातार विरोध किया है इसलिए उन्हें वहाँ नही जाना चाहिए. यह लोग मुतमईन हैं कि दिलीप अपने इतिहास से एक ‘क्लीन ब्रेक’ लेंगे. मुतमईन क्या, उन्होंने तो पहले ही दिलीप के बिक जाने की घोषणा कर दी है. (मुझे डर है कि अब वह कहीं एक ईमानदार पत्रकार को श्रद्धांजलि जैसा कोई कार्यक्रम भी न ठान लें). उनके लिए इस बात की कोई संभावना नहीं है कि दिलीप इंडिया टुडे के अंदर अपने मुद्दों को, दलित-बहुजन मुद्दों को बढ़ा सकें!

अन्ना के समय उनके लिए मसला भविष्य का होता है, दिलीप के समय अतीत का. वजह, शायद, हम साफ़ साफ़ समझ सकते हैं. खैर, दिलीप मंडल की इस नयी पारी से हमें उम्मीदें हैं कि प्रतिरोध का विमर्श मुख्यधारा का विमर्श बनेगा. दिलीप अगर ऐसा नहीं कर पाए तो हम निर्मम आलोचना के लिए भी तैयार बैठे हैं. पर पहले से ले लिए गए फैसलों के आधार पर फतवे देना हमसे नहीं हो पायेगा.

उनको एक ईमानदार सलाह बस इतनी ही है कि इतिहास से खेलना हमारा नहीं फासीवादियों का काम है. हम सिर्फ तथ्यों पर बात कर सकते हैं, विश्लेषण कर सकते हैं. ‘यकीन’ की, श्रद्धा की, ‘विश्वास’ की राजनीति जिनकी है उनके लिए छोड़ दें. दिलीप मंडल के इतिहास के तथ्य हमारे सामने हैं जिनके आधार पर हमने अब तक उनकी समझ बनायी है. उनके भविष्य के तथ्य भी एक दिन इतिहास का हिस्सा बनेंगे और तब हम अपनी राय सुधार लेंगे, बदल लेंगे, या और मजबूत कर लेंगे. उन्हें समय दें कि शायद हिन्दी में कोई साईनाथ, कोई अरुंधती पैदा हो रही हो.

Comments

  1. दिलीप मंडल के इंडिया टुडे की खबर पर कुछ लोगों की रुदाली समझ में आती है। हताशा में छाती पीट-पीट कर रोने वाले लोगों ने इतना भी धीरज नहीं रखा कि कुछ देर इंतजार कर लिया जाए। ऐसा कर रहे लोगों ने पता नहीं अपनी जमीन के बारे में क्या सोचा है। जितना दूसरों को पता होगा, इससे ज्यादा बेहतर वे लोग खुद जानते होंगे कि उनके खुद के धंधे क्या रहे हैं। टारगेट करके पिछले एक-डेढ़ साल से इंटरनेट सहित दूसरे संचार माध्यमों में नाम लेकर दिलीप मंडल के साथ-साथ कुछ और लोगों को जिस तरह एक खास खांचे में डाल कर ये लोग घृणा पैदा करने की हद तक फतवे जारी कर रहे थे, क्या यह उसी हताशा से फूटी हुई रुदाली है?

    दिलीप मंडल का क्या छिपा हुआ था। राजनीति से लेकर मीडिया और सामाजिक व्यवस्था के खिलाफ विचार- क्या छिपा रहा है? इसके बावजूद अगर इंडिया टुडे ने उन्हें मौका देने का फैसला किया, तो इसे एक ऐसी पहल के रूप में क्यों नहीं देखा जाए कि समाज के बहुलांश की अनदेखी और उनकी भागीदारी के सवाल इतने तल्ख होते जा रहे थे, इतने जोर पकड़ते जा रहे थे, इतने सच थे, कि उस पर सोचने के मामले में सबसे पहले इंडिया टुडे ने पहल की। बाजार किसी पर रहम नहीं करता, वह वक्त को भांपता है। और समाज के वंचित तबकों को अगर हक मिलना है तो राजनीति और बाजार के जरिए ही। सामाजिक सत्ताधारी तबके इसी तरह दूसरों का गला काटने की कोशिश करेंगे या फिर अपना सिर फोड़ेंगे।

    जहां तक दिलीप मंडल के "सम्मानित" शरद यादव का सवाल है, तो मुझे लगता है कि जाति जनगणना पर आधारित एक किताब में शरद यादव जरूर हैं, लेकिन दिलीप मंडल का सांप्रदायिकता पर जो स्टैंड रहा है, उसे देखते हुए शरद यादव को दिलीप मंडल के "सम्मानित" के रूप में देखना एक अजीब किस्म का अतिवाद है। जाति जनगणना के मसले पर लगभग सभी सांसदों की वकालत के बावजूद उसके बारे में सरकार के स्तर पर किस तरह का टालमटोल हुआ, यह सभी जानते हैं। फर्क यह है कि शरद यादव ने इस पर लिखा और वह दिलीप मंडल की किताब में शामिल हुआ। मेरे खयाल से उस किताब में कई और लेखक होंगे, जिनसे दिलीप मंडल की विचारधारा मेल नहीं खाती होगी, लेकिन जाति जनगणना के सवाल पर उनकी राय साफ होगी।

    जो लोग छाती कूट रहे हैं कि हमारा एक आलोचक चला गया, क्या उन्हें लगता है कि अगर वे कहीं नौकरी कर लेंगे तो उनका जमीर मर जाएगा? नौकरी करने के लिए अपने जमीर की हत्या करने की जरूरत नहीं होती है। इसके लिए बहुत ज्यादा तर्क देने की जरूरत नहीं है। खास तौर पर खुद आभिजात्य जीवनशैली के दीवानों को इतना फिक्रमंद होने की जरूरत नहीं है। दिलीप मंडल अगर इंडिया टुडे गए हैं तो हम सबके सामने कम से कम वह दिलीप मंडल हैं जिनसे सवाल किए जा सकते हैं। आज तो कोई इस लायक भी नहीं दिखता कि आप उससे पूछ सकें कि "ऐसा क्यों...।" अभी ऐसे रोना-धोना मचाने के बाद संभव है, कुछ समय बाद खुद को ही आईने में देख मुंह चुराने की नौबत आ जाए।

    बहरहाल, साहब, पहले देखिए तो सही कि इंडिया का रूप-स्वरूप आगे क्या होता है, दिलीप मंडल वहां क्या करते हैं, और कितने दिन उन्हें बर्दाश्त किया जा पाता है! यह देखने के लिए धीरज चाहिए। लेकिन कहां से लाएंगे वह धीरज...।

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  2. बहुत ही बढियाँ विश्लेषण.

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  3. उनके भविष्य के तथ्य भी एक दिन इतिहास का हिस्सा बनेंगे और तब हम अपनी राय सुधार लेंगे, बदल लेंगे, या और मजबूत कर लेंगे. उन्हें समय दें कि शायद हिन्दी में कोई साईनाथ, कोई अरुंधती पैदा हो रही हो.
    ......
    इतनी स्वतंत्रता हिंदी में, खासकर एक सह उत्पाद में तो मिलने की सम्भावना नहीं है. फिर भी, कुछ उम्मीद तो रहनी ही चाहिए.

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  4. सुन्दर लेख ...सदा की तरह.
    पंकज झा.

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  5. तुम्हारा लेख सही है. पर मुझे लगता है जितनी जल्दबाजी दिलीप मंडल के इण्डिया टुडे में जाने से निराश लोगों ने दिखाई है, उतना ही तुमने भी. और मुझे तो ये कतई नहीं लगा कि ये सब कहे वाले वो लोग थे जिन्होंने अन्ना का समर्थन किया था.
    दूसरी बात बार-बार 'हिन्दी वालों' कहकर आपलोग क्या सिद्ध करना चाहते हैं, ये मेरे समझ के बाहर है. हो सकता है कि इसका कोई गूढ़ अर्थ हो, लेकिन जहाँ तक मुझे समझ में आता है कि इससे यही लगता है कि हिन्दी वालों के पास वह वैचारिक दृष्टि नहीं होती, जो अंग्रेजी वालों के पास होती है. यहाँ मैं एक नारीवादी या राजनीति विज्ञान के विद्यार्थी नहीं, एक आम पाठक की तरह बात कर रही हूँ.

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  6. श्री दिलीप मंडल पर...
    Buzz पर तुम्हारा यह लेख आया तब में राग 'मिश्र गारा' पंडित शिवकुमार शर्मा से उनके संतूर पर सुन रहा था.उसे माईनस कर बेक्ग्राउंड मे राग बजने दिया और तुम्हारा लेख पढ़ना शुरु किया...पर क्या कहूँ राग और तुम्हारा आलेख, दोनों ही इतने महत्वपूर्ण थे कि एकाग्रता बनाए रखना भी जरूरी था...पहले तन्मयता से राग सुन लिया फिर उतनी ही तन्मयता से तुम्हारा लेख पढ़ा...

    इंडिया टूडे के कार्यकारी संपादक के पद पर दिलीप मंडल जी के चयन को लेकर तुम्हारी चिंताएं,अपेक्षाएँ और वर्तमान सुगबुगाहट वाजिब-सी लगी. जोकि दिलीप मंडल साहब की कार्यप्रणाली से, उनके सरोकारों से आने वाले दिनों में हम ज़रूर अवगत रहेंगे...साथ ही उनके standpoint और trend से भी...ओर इंडिया टूडे में उनके चयन की मंशा से भी.

    कुछ भी कहें,अन्ना हज़ारे जी का आन्दोलन कुछ कमजोर होता सा दिखता है पर लगता है लोगों का विश्वास उनमें अभी भी बरक़रार है.

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  7. लेख अच्छा है...ईमानदारी से लिखा गया है लेकिन इसका शीर्षक कुछ और भी हो सकता था....

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  8. सहमत ,कुछ तो उम्मीद होनी ही चाहिए ,सवाल तो पूछ सकते हैं .

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