ये अदम को याद करने के मौसम हैं..


[जनसंदेश टाइम्स में 21-12-11 को प्रकाशित लेख का विस्तारित रूप]

तासीर ही है जो मौसमों की पहचान बनती है, उन्हें मायने देती है. तासीर, यानी कि हिन्दुस्तानी जुबान का वह खूबसूरत लफ्ज़ जिससे पहला साबका कब पड़ा यह तो याद नहीं पर इतना जरूर याद है कि ठण्ड बढते ही माँ चाय में काली मिर्च डालने लगती थी कि काली मिर्च की तासीर गरम होती है. जिंदगी के तमाम सबक उसी दौर में याद हुए. जैसे कि ठण्ड लगे तो केला, चावल मत खाओ और गर्मी लगे तो मसाले कम करो, दही खाओ.

सामाजिकता मौसमों की एक और खास बात होती थी. जिन गाँवों-कस्बों से हम आते थे वहाँ मौसम हमारी जिंदगी की लय तक तय करते थे. ऐसे कि ठण्ड उतरे तो एक सी डिजाइन और रंग वाले हाथ के बुने स्वेटर हमारे कस्बों की छोटी सी बाजारों में भर जाएँ और गर्मियां आयें तो फिर वही कस्बे एक से अँगोछों के रंग में रंग जाएँ. यूँ भी यह उन वक्तों की बात है जब मौसमों के सीने पर चढ़ उनकी तासीर बदल देने वाली एयरकंडीशनिंग की तकनीक हमारे गाँवों के लिए अंतरिक्ष यान से भी ज्यादा अपरिचित शब्द थी. उस दौर की भी जब गाँवों में बिजली का आ जाना बच्चों की आकाशभेदी चीख के साथ खबर बनती थी जबकि उसका जाना खाली आँखों के साथ स्वीकार कर ली गयी नियति जैसा कुछ ही होता था.

मौसम हमारे कस्बों को इस कदर एकसार कर देते थे कि एक कस्बे को दूसरे से अलग पहचानना मुश्किल हो जाए. इन कस्बों की पहचानें, फिर, बस एक बात से बनती थी, अपने उन बच्चों से जिनके संघर्ष उनका कद बहुत बड़ा कर देते थे. फिर ये पहचानें अपने बच्चों की पहचानों के साथ इस कदर नत्थी हो जाती थीं कि कस्बे अनन्त काल तक अपने इन बच्चों की वजह से ही जाने जाने लगते थे. अदम गोंडवी एक ऐसा ही नाम थे, वह मील पत्थर जिसकी वजह से हिन्दुस्तान के तमाम लोग गोंडा को जानते थे. मेरे दिल के ज़रा और करीब क्योंकि जिला बस्ती का होने के बावजूद मेरा पूरा बचपन बभनान नाम के उस कस्बे में बीता है जो आधा गोंडा में है आधा बस्ती में.

अदम साहब का पैदाइशी नाम यूँ तो रामनाथ सिंह था पर फिर वह लोग ही क्या जिनकी चुनी हुई जिंदगियां और नाम उन पर लाद दी गयी पहचानों पर भारी न पड़ जाएँ. रामनाथ सिंह से अदम गोंडवी हो जाने का उनका फैसला उस जंग की भी एक बानगी था जो सामंतवाद, पितृसत्ता, पूंजीवाद और ऐसी तमाम प्रतिगामी प्रवित्तियों के खिलाफ वो सारी जिंदगी लड़ते रहे थे. ऐसी लड़ाई कि साफ़ कह सकता हूँ कि हमारे जैसे तमाम लोगों की जिंदगी में जनपक्षधरता न होती अगर उसकी नींव में अदम गोंडवी जैसे जनकवियों की कविताओं के पत्थर न पड़े होते.

जातिव्यवस्था की नृशंसता और उसे ध्वस्त करने की जरूरत का पहला सबक हमने समाजशास्त्र की किताबों से नहीं बल्कि अदम गोंडवी की कविता ‘चमारों की गली’ से पढ़ा था. देश के गहराते जाते कृषि संकट से हमारी पहली मुठभेडें अदम की उस गजल से हुई थीं जहाँ वह सरकारी फाइलों में गाँव के मौसमों के गुलाबी होने के खिलाफ सच का पहरुआ बन खड़े हुए थे. भ्रष्टाचार के हमारी जिंदगियों में जहर बन घुलते जाने के खिलाफ आज के प्रतिरोध के बहुत पहले अदम काजू भरी प्लेटों और व्हिस्की भरे गिलासों वाले ‘रामराज’ से लोहा लेते खड़े थे. खड़े तो अदम उस रामराज के खिलाफ भी थे जिसको किसी बाबर के किये, या न किये, जुल्मों का बदला हमारे गाँवों के जुम्मन चाचा से लेना था.

इन्ही वजहों से अदम एक व्यक्ति होने से कहीं बहुत आगे निकल गए थे. अदम वह जिंदगी थे जो हमें जीनी थी, उनकी कवितायें वह कवितायेँ थीं जो हमें लिखनी थी उनकी लड़ाई वह लड़ाई थी जो आख़िरी जीत तक हमें लड़नी थी. और ठीक इसी वजह से अदम से व्यक्तिगत परिचय होना न होना भी एक निहायत गैरजरूरी बात थी बावजूद इस सच के कि मैं उन्हें तमाम बार सुनने और एक बार ठीक से मिल सकने वाले लोगों की जमात में हूँ. मुझे अब भी सन 2000 या शायद २००१ की वह दोपहर याद है जब अंशु मालवीय जैसे दोस्त और उससे भी प्यारे कवि की वजह से इलाहाबाद के आर्य कन्या डिग्री कोलेज में आयोजित एक कवि सम्मलेन मे अदम साहब को देर तक सुनते रहने की बाद लगभग कांपते हुए उनसे बहुत देर तक बातें करता रहा था. रूमानियत और इन्कलाब की वयःसंधि पर खड़े होने के उस समय की उस लंबी बातचीत का बहुत कुछ याद नहीं, पर यह साफ़ साफ़ याद है कि उस गंवई आदमी ने मन पर कभी न मिटने वाला एक प्रभाव छोड़ा था. यह भी कि जब जब कमजोर पड़ा कुछ और प्रिय कवियों के साथ उनकी कविताओं की और लौटा.

आज इतने बरस बाद अदम गोंडवी की मृत्यु की खबर ने फिर कमजोर किया है. पर उससे भी ज्यादा इस सच ने कि उनको याद करने को दौड़ पड़ रहे उन लोगों ने भी फेसबुक से लेकर प्रिंट मीडिया तक को भर डाला है जिनका सारा इतिहास खुद को व्यवस्था के हाथ बेचने का इतिहास है. सोचिये कि लंबी काली कारों और हाथ में करारी नोटों से भरे लिफ़ाफ़े वाले उन लोगों के अदम को याद करने का क्या मतलब है. शायद कुछ लोगों के लिए लोगों को याद करने के, और इन यादों के सहारे खुद को और बेहतर बेच सकने की संभावनाओं की तलाश के मौसम भी होते हैं. और यादें भी ऐसी कि अदम की मौत के पीछे की वजह बीमारी नहीं, गरीबी नहीं शराब है. शर्म आती है कि हिन्दी कविता के ऊपर कलंक की तरह चस्पा बादल-पागल-घायल मार्का मंचीयता के धनी कुछ कवि ऐसे दावे कर भी कैसे पा रहे हैं. पर हमारे यहाँ तो कबीर की तरह घर जलाने के बरक्स कफ़न चोरों की भी परम्परा भी है ही. अच्छा हुआ, कि अदम के लिए मंत्रियों से मदद मांगने के दावों के समय उन्होंने सारी उम्र अदम की मदद करते रहने के दावे नहीं किये, वरना अदम के बाद उन दावों को खारिज कौन करता.

बेशक हम जैसे ‘असफल’ लोग अदम के लिए कुछ खास कर भी नहीं सकते थे कि हम उन्ही हारी हुई लड़ाइयों के साथ हैं जिन्हें अदम गोंडवी ने जिंदगी दी और फिर जिनसे हासिल गर्व भरी मुफलिसी ने उनकी जिंदगी ले भी ली. पर अदम को याद रखने का कोई मौसम नहीं होता, न होना चाहिए. अदम जीत और हार दोनों में हमारी लड़ाइयों के अंत तक हमारे साथ हैं. अलविदा अदम गोंडवी. इस वायदे के साथ कि हम आपकी यादों को उन कृतघ्नों से छीन लेंगे.

Comments

  1. आपकी भाषा के मुरीद हैं हम तो. गजब की क्रिएटिविटी है. यही अदम गोंडवी को सच्‍ची श्रद्धांजलि है.

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  2. पढा। यह भी संस्मरण कुछ बताता है।

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  3. बेहतरीन.

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  4. अदम गोंडवी को करीब से जाना धन्‍यवाद समर जी

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  5. chamaron ki gali padhte huye...pura drishya mere samne chal raha tha...maine turant apne ek sathi ko phone kiya bola ... is kavita ka natya rupantaran hona chahiye ....jawab mila ho gaya hai...kahne ka matlab adam kavita likhte nahi kavita jite the...adam ki kavitayen padhker taras ata hai un ghosit kaviyon pr jinka dharma unke bedroom simit hai... yadi apne sach me जातिव्यवस्था की नृशंसता और उसे ध्वस्त करने ka pahla path samajsastra ki kitab se nahi balki... chamaron ki gali... se padha hai to kafi ummidyen hain apse ........... imandari se likha hai apne padhkar maja aya..

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  6. chamaron ki gali padhte huye...pura drishya mere samne chal raha tha...maine turant apne ek sathi ko phone kiya bola ... is kavita ka natya rupantaran hona chahiye ....jawab mila ho gaya hai...kahne ka matlab adam kavita likhte nahi kavita jite the...adam ki kavitayen padhker taras ata hai un ghosit kaviyon pr jinka dharma unke bedroom simit hai... yadi apne sach me जातिव्यवस्था की नृशंसता और उसे ध्वस्त करने ka pahla path samajsastra ki kitab se nahi balki... chamaron ki gali... se padha hai to kafi ummidyen hain apse ........... imandari se likha hai apne padhkar maja aya..

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