आंकड़े बन गयी लड़कियों की याद में


[जनसत्ता के दैनिक स्तंभ 'दुनिया मेरे आगे' में 'सुविधा की खामोशी' शीर्षक के साथ 30-12-2011 को प्रकाशित]

अखबार के पन्ने से झांकती हुई मुस्कुराती हुई सी उस लडकी की तस्वीर किसी को भी असहज कर सकती थी. वजह ये कि अखबार में पेज थ्री से लगायत तमाम ऐसी जगहें थीं जहाँ मुस्कुराती हुई सी आँखों वाली उस लड़की की तस्वीर हो सकती थी, पर स्मृतिशेष/श्रद्धांजलि वाले उस पन्ने पर नहीं जहाँ वह हकीकत में थी.असहज करने वाली वजह एक और भी थी, यह कि उस युवा लड़की का चेहरा बहुत जाना पहचाना सा लगा था. शायद इसीलिये अखबारों के जिस पन्ने पर आमतौर पर नजर भी नहीं रुकती, ठिठकी हुई अंगुलियां जाने क्यों वही पन्ना पलट नहीं पाईं थी.

नाम पढ़ा तो सब कुछ साफ़ हो आया. तस्वीर सौम्या विश्वनाथन की थी, एक युवा पत्रकार जिसकी तमाम संभावनाएं और जिंदगी देश भर में महिलाओं के लिए सबसे असुरक्षित शहर के बतौर
प्रख्यात दिल्ली की कानून व्यवस्था की भेंट चढ गयी. उस शहर की, जो दुनिया के सबसे बड़े लोकतंत्र की राजधानी होने के साथ-साथ विश्वस्तरीय शहर होने का दम भी भरता है. अब जाने इस शहर को ‘नेशनल कैपिटल’ होने के साथ ‘रेप कैपिटल’ होना भी कैसा लगता होगा, पर यहाँ की मुख्यमंत्री के बारे में मुतमइन हूँ कि उन्हें इस बात से कोई फर्क नहीं पड़ता. अब भी याद है कि सौम्या की हत्या के बाद माननीया शीला जी के दिमाग में जो बात उठी थी वह क़ानून व्यवस्था की असफलता की नही बल्कि रात तीन बजे एक लड़की के अकेले अपनी कार में होने की थी. उन्होंने फिर महिलाओं को इतना ‘दुस्साहसिक’ न होने की सलाह भी दे डाली थी.

याद तो खैर वह गुस्सा भी है जो इस शहर की मध्यवर्गीय आबादी के दिलों में उबल उबल पड़ा था. वह नफ़रत भी जो हत्यारों से लेकर निकम्मे प्रशासकों तक के लिए पैदा हुई थी. होना लाजमी भी था, सौम्या हिन्दुस्तान के हाशिए पर पड़े किसी भूले बिसरे से गाँव की बेचारी बेटी नहीं, देश की राजधानी में रहने वाली एक मध्यवर्गीय कामकाजी युवती, माने कि हममें से एक थी. और ऐसा हादसा अगर उसके साथ हो सकता था तो फिर हममें से कोई सुरक्षित नहीं था.

फिर तो टीवी चैनलों की ‘प्राइमटाइम बहसों’ में बह चला यह गुस्सा मोमबत्तियों की शक्ल में इंडिया गेट पंहुचा था, सरकार से जवाबदेही तलब करने को मोर्चे निकाले गए थे और फिर, गैरसंजीदा सरकारी आश्वासनों की तरह यह गुस्सा भी ठंडा पड़ गया था. मध्यवर्गीय गुस्से की फितरत और नियति दोनों यही होती है. उबल पड़ना और फिर ठंडा हो जाना. पर इस गुस्से का एक और चरित्र होता है. यह फिर से उबल पड़ने की सम्भावनाएँ तो तलाशता रहता है पर इस कोशिश के साथ कि यह संभावनाएं ‘चेहरों’ के या ‘मुद्दे’ के बतौर ही पैदा हों न कि मुश्तरका, या मंजिल तक पंहुचाने वाले एक लगातार आंदोलन की शक्ल में. आंदोलन खैर, यूँ भी राजनैतिक होते हैं और राजनीति जैसी ‘गंदी’ चीज को मध्यवर्ग हाथ लगाए भी तो कैसे? फिर क्या फर्क पड़ता है कि राजनीति हमारा वर्तमान और हमारा भविष्य दोनों तय करती है.

इसीलिये, हम कभी सौम्या पर उबल पड़ते हैं, कभी आरुषी पर और कभी जेसिका की नियति हमारे गुस्से का सबब बनती है. ठीक इसी जगह से वह सवाल खड़ा होता है जिसको हल किये बिना यौनिक हिंसा के इस दुष्चक्र से मुक्ति संभव नहीं है. सवाल यह कि हमारा गुस्सा तमाम सदिच्छाओं के बावजूद सिर्फ और सिर्फ हमारे वर्ग पर हुए हमलों पर क्यों पैदा होता है? हमारी आवाज निम्नवर्गीय महिलाओं पर होने वाले अत्याचारों पर इतनी बुलंद क्यों नहीं होती? यह भी कि भंवरी देवी के लिए हमारी मोमबत्तियाँ क्यूँ नहीं जल पातीं?

आखिर को यह सारे हमले एक ही स्रोत से निकलते हैं, उस पितृसत्तात्मक व्यवस्था से जो हमारे ‘आधुनिक’ लोकतान्त्रिक ढांचे के अंदर के समाज का पूर्वआधुनिक सच है. यही व्यवस्था है जो न केवल इन हमलों को संभव बनाती है बल्कि इनके लिए स्वयं महिलाओं को ही दोषी भी ठहराती है. बेशक महिलाओं के अंदर भी वर्गीय विभाजन हैं, बेशक महिलायें एक ‘वर्ग’ नहीं हैं, पर यह व्यवस्था उनकी वर्गीय पहचानों को ध्वस्त कर उनकी सारी पहचान उनकी यौनिकता में सीमित कर देती है. सूजन ब्राउनमिलर इसी तरफ इशारा करती हैं जब वह कहती हैं कि ‘बलात्कार और कुछ नहीं बल्कि सभी पुरुषों द्वारा सभी महिलाओं को शाश्वत भय के अंदर रखने की सचेत प्रक्रिया है’.

सुनने में जरा अतिवादी सा लगने वाला यह वाक्य हकीकतन एक कड़वे सच की तरफ इशारा करता है. सभी पुरुष भले ही यौनिक हिंसा में सीधे शरीक न हों, पर ऐसी किसी भी घटना पर उनकी चुप्पी उन्हें इन अपराधों का सहभागी बना देती है. खासतौर पर तब जब नेशनल क्राइम रिकार्ड्स ब्यूरो के आंकड़ों के मुताबिक़ अकेले दिल्ली में २०१० में बलात्कार के ४८९, यौन उत्पीडन के ५५० और अपहरण के १३७९ मामले दर्ज हों. मतलब यह कि अगर न दर्ज होने वाले मामलों को छोड़ भी दें तो दुनिया के सबसे बड़े लोकतंत्र की राजधानी में हर १८ घंटे पर होते हुए एक बलात्कार और १४ घंटे पर एक यौन उत्पीडन की घटनाओं में हम बस ३-४ पर गुस्सा होते हैं, हो पाते हैं.

यकीन करिये कि बाकी मामलों पर हमारी चुप्पी यह भी तय कर देती है कि किसी सौम्या को कभी न्याय नहीं मिलेगा. यह भी कि शुरुआती गुस्से के बाद तमाम सौम्यायें बस एक आंकड़ा बन कर रह जायेंगी, उन फाइलों में कैद होकर जो फिर कभी नहीं खुलेंगी. यह भी कि तमाम शुरुआती शोर के बावजूद यह लडकियां धीरे धीरे अखबारों के श्रद्धांजलि पेज पर एक तस्वीर बन कर रह जायेंगी जिन्हें उनके परिवारों के अलावा कोई याद नहीं करेगा, बावजूद उस परिचय के जो उनके मरने के बाद उन्हे टीवी स्क्रीन पर देख के बना था.

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