आवारा ख़याल उर्फ एक दिन का मीडियानामा

इक ज़माने बाद आज हम थे, टीवी था और दिन भर को हासिल खलिहरई थी. खलिहरई बोले तो शहर इलाहाबाद का ईजाद किया हुआ वह लफ्ज़ जिसका दुनिया की किसी जुबान में तर्जुमा करना हिमालय पर येती ढूँढने जैसा मुश्किल काम है तो जिसे समझना इतना आसान जितना कि शहर इलाहाबाद की सड़कों/गलियों/कछारों में की गई लनतरानियाँ. अब लनतरानियों का मतलब हमसे न पूछियेगा, बस इतना समझ लीजिए कि खांटी इलाहाबादी, यानी कि हनुमान को भी लिटा देने पर बलि बलि जाने वाले बाशिंदों, के लिए लनतरानी वह शगल है जिसके सामने वह बौधिवृक्ष के नीचे बैठ ज्ञान पाने या सेब के पेड़ के नीचे बैठ गुरुत्वाकर्षण के सिद्धांत को ढूंढ निकालने जैसे कामों को ठेंगे पर रखा जा सकता है.

खैर, बात का लब्बोलुआब यह कि आज माबदौलत ने तय किया कि दिन भर कुछ ना करेंगे बस टीवी देखेंगे. बावजूद इसके कि हम ना कोई तीक्ष्ण मीडिया विश्लेषक हैं ना हमको टीवी के समाजशास्त्र, या राजनीतिक अर्थशास्त्र या किसी और शास्त्र या विज्ञान की विवेचना करने में कोई खास दिलचस्पी कभी रही है. हमने तो टीवी बस इसलिए चला दिया था कि हमारा कोई काम करने का दिल था नहीं और टीवी देखने को हमने कभी काम समझा नहीं. पर लीजिए जनाब. टीवी चलाने के पहले आधे घंटे में ही समझ आ गया कि यह तो बहुत बड़ा काम ठहरा. अरसे पहले कहीं कोई लेख पढ़ा था जिसके शीर्षक को हिन्दी में तब्दील करें तो बनेगा कि 'चैनल हजार और देखने को कुछ नहीं', आज वह लेख समझ भी आ गया. बस यह और कि उस लेख की प्रस्थापना में एक संशोधन पेश करना जरूरी बनता है. संशोधन यह कि देखने को भले कुछ नहीं हो, करने को बहुत कुछ है जैसे घड़ी घड़ी चैनल बदलना.

इसी जगह अगला संशोधन भी पेश है, कि इक जमाने बाद आज हम थे, टीवी था, खलिहरई थी और हांथो में रिमोट था. अब इस रिमोट को आप कोई हल्की चीज ना समझ लीजियेगा. मेरे और टीवी के बीच इसकी भूमिका वही थी जो भक्त और भगवान के बीच पुजारी की होती है. मुक्ति का रास्ता था यह रिमोट, स्वर्ग की सीधी सीढ़ी था यह रिमोट, नरक से बचने को टीवी और दर्शक के बीच की हॉटलाइन था यह रिमोट. समझ न रहें हो तो एकता कपूर के सीरियलों की बहुओं, देवरों साँसों और पतियों के बीच फंसे एक दर्शक की मनोस्तिथि से गुजरने की कोशिश करिये, हो सकता है कि मुझे आपका रिमोट कल आपके (अगर मुझसे उलट आप आस्तिक हैं तो) आपके पूजाघर में दिखाई दे और आप मुझे उसकी प्राणप्रतिष्ठा के लिए कोई पंडित ढूँढते हुए मिलें.

तो बस, अब हम थे टीवी था, खलिहरई थी और हांथो में रिमोट था. सिनेमा, लाइफस्टाइल, टेलीमार्केटिंग से भागकर न्यूज़ चैनल्स उर्फ इलेक्ट्रानिक मीडिया में शरण की संभावनाएं ढूंढ रहा एक दिमाग था. पर फिर लीजिए जनाब! यहाँ भी कामेडी सर्कस था, सास-बहुएं और साजिशें थीं. भारत-आस्ट्रेलिया क्रिकेट महायुद्ध था, धोनी के रिप्लेसमेंट में भारत देश की सभी समस्याओं का हल ढूंढते ऐंकर थे, चिल्लाते ज्यादा समझाते कम विश्लेषक थे और हद यह कि तमाम रूपों में मौजूद तमाम अर्नब गोस्वामी थे (खुदा खैर करे).

अब इसके बाद भी कुछ बचा हो तो कल के तमाम न्यूज चैनलों में मौजूद ये खबरें(?) थीं, विश्लेषण(??) थे. और उन्हें देख मन में उमड़-घुमड़ रहे आवारा ख़याल थे.

आज तक-- खास अन्ना हजारे के लिए की गयी फिल्म 'गली गली में चोर है' से वीना मालिक(याद है ना) का आइटम सांग 'एडिट' कर बाहर निकाल दिया गया था. (भाई, पूरे देश को 'मजा देने' की ख्वाहिश में आप एक आइटम सोंग डालते हैं और फिर अन्ना हजारे को उस 'मजे' से महरूम कर देते हैं. यह भी भ्रष्टाचार है, या शायद नहीं है क्योंकि अन्ना हजारे और उनके एनजीओ ने साल 2010 में 'पाकिस्तानी' कलाकारों की मौजूदगी वाले सीरियल्स/रियालिटी शोज़ के खिलाफ शिवसेना(भारत का सबसे धर्मनिरपेक्ष दल) के साथ प्रदर्शन किया था.

स्टार न्यूज़ कौन है फलक का गुनाहगार? दिल्ली सरकार की मंत्री किरण वालिया, सामजिक/जेंडर अधिकार कार्यकर्ता रंजना पाढ़ी और कुछ अन्य विशेषज्ञों के साथ आधे घंटे की वार्ता के बाद ऐंकर को बिलकुल ठीक समझ आ गया कि इस बच्ची के साथ हुए अत्याचार के मसले में गुनाहगार समाज है(बावजूद इस सच के पूरी वार्ता में किसी विशेषज्ञ को 'पितृसत्ता' शब्द याद नहीं आया). जैसे कि दहेज/सती/भंवरी/शाहबानो/मेहर/तलाक़/पर्दा/घूंघट/मथुरा जैसे मामले कभी हुए ही न हों. जैसे यह 'ब्रेकिंग न्यूज' हो जो स्टार न्यूज़ ने आज के आज 'ब्रेक' की हो. हद यह कि बच्ची और उसको अस्पताल लाने वाली बच्ची के लिए संवेदना जताते हुए भी ऐंकर साहिबा का अंदाज 'गौर से पहचान लीजिए ये चेहरा मार्का सनसनी'टाइप ही था.

इंडिया न्यूज़(इस चैनल का जिक्र करने के लिए माफी चाहता हूँ पर क्या करूँ कि इसका भी 'रजिस्ट्रेशन' न्यूज़ वाली 'कैटेगरी' में ही है, मनोरंजन/फिल्म/ज्ञान आदि में नहीं)- महिलाओं के लिए अब दिल्ली मेट्रो भी सुरक्षित नहीं. 'छेड़छाड़' (जीजा-साली या देवर-भाभी मार्का) को लेकर स्टेशन पर हुई जमके मारपीट. (यौन हमला, यौन हिंसा, जेंडर अत्याचार जैसे शब्द अगली सदी में प्रयोग करेंगें, अभी तो बस सामान्य चुहलबाजी दर्शाने वाला शब्द छेड़छाड़ ही ठीक है, क्या हुआ कि एक पूरा स्टेशन इस 'छेड़छाड़' की भेंट चढ़ गया.)

एनडीटीवी इंडिया- शराब बैरन पोंटी चड्ढा के ठिकानों पर छापे. नोएडा के उनके माल से मिली एक तिजोरी से बरामद हुए 125 करोड़ रूपये. मायावती के करीबी हैं चड्ढा. छापों के पीछे राजनीति की रणनीति की गुंजाइश. (जैसे कि इनकम टैक्स विभाग ने गलती कि उत्तर प्रदेश चुनावों के दौरान छापा मारकर. जैसे कि उत्तर प्रदेश के हर ठेके पर शराब की हर बोतल पर अधिकतम मूल्य(MRP) से 10 रुपये से 100 रुपये तक ज्यादा लिया जाना ठीक हो. जैसे कि कांग्रेस सरकार की गलती इन छापों में हुई देरी न होकर इनका समय हो. जैसे कि भूख से हजारों लोगों के रोज मर जाने वाले देश में 125 करोड़ एक तिजोरी में मिलना सामान्य सी बात हो. जैसे कि जानते न हों कि उद्योगपति किसी पार्टी/नेता के सगे नहीं होते, जैसे कि जानते ही न हों कि यही चड्ढा साहब पिछली सरकार के समय मुलायम सिंह यादव के बहुत करीबी थे.)

खबरें और भी थीं जैसे कि बाघ और बाघिन के बीच में आ गया है कोई और, जैसे कामेडी सर्कस में आज बनी कॉफी, कैसे बनी कॉफी, किसने बनायी कॉफी जैसी. इन गंभीर खबरों के बीच जयपुर में सलमान-शेम के बाद कोलकाता में तस्लीमा लज्जा जैसी 'अगंभीर' खबरों का फुटनोटिया अंदाज में जिक्र था.

हाँ, अब हम थे, टीवी था, रिमोट था पर न खलिहरई बची थी न लनतरानियाँ करने की ख्वाहिशें. बस यह ख़याल था कि खबरें ऐसी हों तो काटजू साहब के नाम का 'काट' वाला हिस्सा आम जनता को प्यारा लग ही सकता है.

Comments

  1. कुछ लोग ऐसे होते हैं, जो कुछ ना करते हुए भी बहुत कुछ करते रहते हैं :)

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