संबोधन के रंग और रंगों के संबोधन


[जनसत्ता में १२ जून २०१२ को प्रकाशित]

आप कैसे हैं चाचू? अगर उनसे मिलने अकेले गया होता तो शायद अपने सहकर्मी की पांच साला बेटी के इस बेहद सादे से सवाल में छिपी विडम्बना नजर भी नहीं आती. पर यहाँ तो सब कुछ साफ़ था. विदेशों में सप्ताहांत पार्टियां यूँ भी रिवाज जैसी होती हैं और हर सप्ताह कोई एक साथी बाकियों को अपने घर भोजन पर बुलाता है. अपने बहुदेशीय, बहुभाषीय और बहुसांस्कृतिक चरित्र वाले कार्यालय के हम कई सहकर्मी अपने बांग्लादेशी साथी के घर एक साथ गए थे और उनकी बेटी ने लगभग सबका अभिवादन किया था. बस यह, कि उस अभिवादन में एक खास बात थी. भूरी त्वचा वाले हम सभी दक्षिण एशियाई उसके ‘चाचू’ थे और अन्य किसी भी रंग के लोग अंकल.

सुन कर झटका सा लगा था क्योंकि नस्लीय भेदभाव के मामले में हांगकांग दुनिया के तमाम और मुल्कों की तुलना में कहीं बेहतर है. बेशक यहाँ भी प्रछन्न भेदभाव के तमाम मसले सामने आते रहते हैं पर प्रत्यक्ष भेदभाव यहाँ लगभग अनुपस्थित ही है. न भी होता, तो इतनी छोटी सी बच्ची के लिए उन्हें पहचानना ही जटिल कार्य होता, उन्हें पहचान कर उससे अपना सामाजिक व्यवहार निर्धारित करना तो लगभग असंभव सा है. यूँ भी, अंतर्राष्ट्रीय संगठनों के अंदर की सांस्कृतिक बहुलता उनमें काम करने वाले लोगों के परिवार के बच्चों के विकास में बड़ी भूमिका निभाती है और सामान्यतया ये बच्चे अन्य बच्चों की तुलना में कहीं ज्यादा उदार, लोकतांत्रिक और भेदभाव विरोधी होते हैं. मित्र की बेटी भी ऐसी ही है, सबके साथ सहज, सबके साथ मित्रवत.

फिर अभिवादन में यह अंतर क्यों, दिमाग में यह सवाल लगातार गूँज रहा था कि फिर एक और घटना याद आई. हांगकांग से हजारों किलोमीटर दूर अपने देश के कानपुर शहर में ऐसा ही एक सवाल एक और बच्ची ने अपनी माँ और मेरी मित्र से पूछा था. एक ब्रिटिश विश्वविद्यालय के दुबई परिसर में मनोविज्ञान पढ़ाने वाली इस मित्र के छुट्टियों में घर आने की सूचना पर हम दोनों ने मिलने का कार्यक्रम बना लिया था. उन्होंने अपनी बेटी को बताया कि मेरा दोस्त मिलने आ रहा है तो उसने पूछा कि आपका दोस्त लड़का है या लड़की. मित्र इतने पर ही अचंभित हुई थीं, पर जवाब सुनकर बेटी की प्रतिक्रिया इससे भी कहीं ज्यादा अचंभित करने वाली थी. ममा, यह अच्छा नहीं है. लड़कियों को लड़कियों से दोस्ती करनी चाहिए और लड़कों को लड़कों से.

भारतीय समाज में नब्बे के दशक के बाद आये ‘खुलेपन’ के पहले के दौर में भी लड़कों के साथ सहज और स्वाभाविक सी दोस्तियों, और इन मित्रताओं के परिवार द्वारा सहज स्वीकार की अभ्यस्त रही इस दोस्त के लिए अचंभित होना लाजमी भी था. घर से लेकर बेटी के दुबई स्थित स्कूल तक कहीं भी कुछ भी ऐसा नही था जो बेटी को लैंगिक भेदभाव सिखा भर सके, उसके आधार पर माँ को मित्रों के चुनाव में सलाह देने की स्थिति तो खैर अकल्पनीय ही ठहरी. इस घटना के बारे में मुझे बताते हुए मित्र के चेहरे पर हंसी के साथ साथ गहरा अचरज भी था. पर सबसे दिलचस्प यह, कि मित्रताओं के लैंगिक विभाजन की तरफदार सी लगती इस बच्ची के अपने व्यवहार में यह विभाजन कहीं नहीं था. मिलने के आधे घंटे के अंदर हम गहरे दोस्त बन चुके थे और वह मुझे दीवार पर टंगे नक़्शे में बने अंगरेजी किले में कैद राजकुमारी को आजाद करवाने के रास्ते बता रही थी और इस विषय में मेरे अज्ञान पर आनंदित और अचंभित दोनों हो रही थी.

मतलब साफ़ है कि नकारात्मक रूढिगत पूर्वधारणाओं के अचेतन में उतर आने के स्रोत उनकी रिहाइश के आसन्न परिवेश तक सीमित नहीं हैं. सुबह घर में आने वाले अखबार में समाज के हाशियों पर पड़े तबकों की सिर्फ हादसों या ‘पीड़ितों’ के रूप में उपस्थिति, घर में काम करने वाली बाईजी के रूप में अपने वर्ग से इतर एल अलग, और वंचित वर्ग के प्रतीकचिन्ह जैसी मौजूदगी, टेलीविजन पर आने वाले विज्ञापनों में गोरा करने वाले उत्पादों की उपस्थिति, बच्चों के मन को कुंठित करने वाली यह पूर्वधारणाएं हर जगह मौजूद हैं. हम भले ही बच्चों को सामाजिक श्रेणीबद्धता और लैंगिक भेदभाव से उपजने वाली इन चीजों के बारे में न बताना चाहें, समाज में इनकी उपस्थिति इतनी गहरी है कि बच्चों के कोमल मन पर इनका प्रभाव न पड़े यह हो ही नहीं सकता.

पर फिर, इस कुप्रभाव से कहीं ज्यादा चिंताजनक यह है कि भले ही इन पूर्वधारणाओं से उनके तात्कालिक व्यवहार पर कोई असर न पड़ रहा हो, विभाजन के इन प्रतीकचिन्हों की पहचान उनके भविष्य के व्यवहार को प्रभावित कर सकने में सदैव सक्षम हैं. आखिरकार, नकारात्मकता और वैमनस्य सामाजिक हिंसा के तमाम प्रकारों के लिए पूर्वपीठिका भी होती है और पूर्वशर्त भी. अब तय हमें करना है कि हम अपने बच्चों को एक सुखद और सौहार्दपूर्ण भविष्य देना चाहते हैं या फिर एक ऐसा समाज जो अपने मूल चरित्र में हिंसक और प्रतिगामी है.

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