अदम उन यादों के चितेरे थे जिन्हें सरकारें खारिज करने पर आमादा थीं.

['कल के लिए' के अदम गोंडवी विशेषांक में प्रकाशित.]
I
प्रसिद्द लोगों की तुलना में अनाम लोगों की स्मृतियों को सम्मान देना ज्यादा कठिन होता है.
वाल्टर बेंजामिन

अदम गोंडवी की मृत्यु की खबर सुन कर जो पहला ख़याल आया था वह यही था. नाजी सेनाओं से भागते उस आदमी का ख़याल जो जार्ज स्टेनर के मुताबिक़ बीसवीं सदी का सबसे बड़ा आलोचक था. उस आदमी का ख़याल जिसने जिंदगी के ऊपर मौत चुन ली थी, और रास्ता बनाया था मारफीन को.

पर फिर अदम और कुछ भी हों, अनाम तो नहीं ही थे. अनाम तो वह रामनाथ सिंह थे जिनको अदम अपनी जिंदगी से कब का खारिज कर आये थे. सामाजिक-राजनैतिक शक्ति संबंधों की नियामक जाति जैसी पूर्व आधुनिक संरचनाओं को खारिज कर आये अदम गोंडवी, जिनकी चुनी हुई जिंदगी उन पर लाद दी गयी पहचानों से लड़ने और जीतने की मिसाल बन गयी थी. रामनाथ सिंह से अदम गोंडवी हो जाने का सफर उस जंग की भी एक बानगी था जो सामंतवाद, पितृसत्ता, पूंजीवाद और ऐसी तमाम प्रतिगामी प्रवित्तियों के खिलाफ वो सारी जिंदगी लड़ते रहे थे. ऐसी लड़ाई कि साफ़ कह सकता हूँ कि हमारे जैसे तमाम लोगों की जिंदगी में जनपक्षधरता न होती अगर उसकी नींव में अदम गोंडवी जैसे जनकवियों की कविताओं के पत्थर न पड़े होते.

फिर अदम के हिस्से में ऐसी गुमनाम सी मौत क्यों आई? ठीक उस वक्त जब अदम कई दिन तक लगातार संजय गांधी पीजी इंस्टिट्यूट के सामने पड़े मौत से जूझ रहे थे हम अपने कमरों में आराम की नींद कैसे सोते रहे? क्या वजह हो सकती है कि सूचना क्रान्ति के विस्फोट के इस युग में हम तक यह खबर तब पंहुची जब करने को ज्यादा कुछ बचा ही नहीं था.

एक वजह तो शायद यह कि अस्मिताओं के संघर्षों के दौर में भी अदम महा-आख्यानों के झंडाबरदार थे. इतिहासों के पुनर्लेखन के दौर में, स्मृतियों की सापेक्षिक दावेदारियों के दौर में भी अदम की कविता के मुहावरे समाजशास्त्रियों के सिद्धांतों से नहीं बल्कि समाज के व्याकरण से निकल रहे थे. अदम, शायद, अब भी उसी दौर में रुके थे जब शोषित-वंचित जनता की तमाम वंचनाओं के बावजूद उनकी सामूहिकता में सरकारों को हिला देने वाली ताकत होती थी. वर्ग संघर्षों के दम पर मुक्ति के सपने देखते रहे अदम और उनकी पीढ़ी को शायद समझ ही नहीं आया कि षडयंत्रकारी शोषक कब जनता को जातीय/सामुदायिक/साम्प्रदायिक विभाजन रेखाओं के आधार पर बाँटने में सफल हो गए. बेशक, ऐसा यूँ ही नहीं हो गया था. बेशक, अदम की इस असफलता, और दुश्मनों की इस सफलता के पीछे बहुत सारे साथियों का पीछे हटना, और कुछ और का बिक जाना भी एक बड़ा कारण था, मगर सवाल इसे देखने और पहचानने का था.

अदम ने कभी खुद को बेचना नहीं चाहा, न अपनी ऐसी ‘ब्रांडिंग’ करने की कोशिश की कि अस्मिता की, पहचानों की तमाम लड़ाइयों में से किसी एक के लिए इस कदर जरूरी बन जाएँ कि उनकी उपेक्षा करना असंभव सा हो जाए. पर शायद न ये अदम को गवारा था न ही उनके पास ऐसा कर पाने की सलाहियत थी. यूँ भी ऐसी सलाहियत हासिल करने का रास्ता व्यकतिगत महत्वाकांक्षाओं की पतली गली से होकर जाता है और ये वह गली थी जिसने न अदम को गुजरना था न वे गुजरे.

अदम को जिंदगी साफ़ साफ़ दिखती थी, ठीक वैसी जैसी वह है. अदम के गाँव में उनको दो तरह के लोग मिलते थे, एक वो जो वेदों के मालिक थे और दुसरे वे, जिनका जिक्र वेदों के हाशियों तक में नही आया था. अब हाशिये वालों को अदम और छोटे छोटे खांचों में बाँटते भी कैसे जब उनको साफ़ दिख रहा था कि हर नया खांचा साझी लड़ाई और जीत की सम्भावना दोनों को कमजोर करेगा! अदम की यह समझदारी उस फलसफे से निकलती थी जिसे ग्राम्सी आबद्ध बुद्दिजीवी कहते थे. अदम जनता के साथ उर्ध्वाधर नहीं बल्कि क्षैतिज साझीदारियों के चितेरे थे. अदम की कविताओं में ही नहीं बल्कि अदम की जिंदगी में भी कवि और मनुष्य का, जीवन और साहित्य का, और जन और विशिष्ट का कोई भेद कभी रहा ही नहीं. अदम ने मार्क्सवाद पढ़ा नहीं, सीखा नहीं बल्कि जिया था. उस दौर में जब तमाम क्रांतिकारी क्रान्ति कैसे होगी से लेकर के मार्क्स की फलां लाइन का असली मतलब क्या है जैसे नुक्तों पर बहसें करते हफ्ते गुजार देते थे, अदम की कविता और कुल्हाड़ी दोनों खेतों में लगी थीं.

मैं मुतमइन हूँ कि कविता और कुदाल दोनों थामे हुए यह आदमी ‘प्रैक्सिस’ के बारे में कुछ भी नहीं जानता था. यूँ भी सिद्धांत और व्यवहार की एकता के बारे में जानना कोई आसान काम नहीं है. यह तो इतना मुश्किल सिलसिला है कि हिन्दुस्तानी मार्क्सवादियों ने जिस एक चीज पर सबसे कम बहस की वह यही है, सिद्धांत और व्यवहार की एकता. फिर इस एकता को जीवन में जीता यह आदमी आदमी आजीवन बाहरी रहने को, आउटसाइडर होने को अभिशप्त न होता तो क्या होता.

अदम सारी उम्र इस अभिशाप को अपनी नियति का हिस्सा बना अपने काँधे पर ढोते रहे.इस कदर की यह समझने को उनसे व्यक्तिगत परिचय होना न होना भी एक निहायत गैरजरूरी हो जाता था, बावजूद इस सच के कि मैं उन्हें तमाम बार सुनने और एक बार ठीक से मिल सकने वाले लोगों की जमात में शामिल हूँ.

मुझे अब भी सन 2000 या शायद २००१ की वह दोपहर याद है जब अंशु मालवीय जैसे दोस्त और उससे भी प्यारे कवि की वजह से इलाहाबाद के आर्य कन्या डिग्री कोलेज में आयोजित एक कवि सम्मलेन मे अदम साहब को देर तक सुनते रहने की बाद लगभग कांपते हुए उनसे बहुत देर तक बातें करता रहा था. रूमानियत और इन्कलाब की वयःसंधि पर खड़े होने के उस समय की उस लंबी बातचीत का बहुत कुछ याद नहीं, पर यह साफ़ साफ़ याद है कि उस गंवई आदमी ने मन पर कभी न मिटने वाला एक प्रभाव छोड़ा था. यह भी कि जब जब कमजोर पड़ा कुछ और प्रिय कवियों के साथ उनकी कविताओं की और लौटा.


II
प्रतिरोध का कुल जमा मतलब है हमें अपना इतिहास, अपना वर्तमान भुला देने को मजबूर करती ताकतों के साथ हमारी सामुदायिक स्मृतियों की जंग. प्रतिरोध का मतलब है अन्याय की, शोषण की, बेदखली की कोशिशों के साथ साथ हमारे सपनों की दुनिया को अपनी यादों में संजोये रखना.
एडवर्ड सईद

अदम की कवितायेँ सिर्फ कवितायें नहीं बल्कि हमारे समय के दस्तावेज हैं, हमारी वह स्मृतियाँ हैं जो हुक्मरान चाहते हैं कि भुला दी जाएँ. दुनिया का सबसे बड़े लोकतंत्र होने का दम भरने वाले देश के शासकों के लिए लाजमी बनता है कि वह ऐसी हर स्मृति दफ़न आकर दें जो उनके दावों और सच के बीच के फर्क को जगजाहिर कर देती है. जैसे कि यह कि गांधीवादी सिद्धांत पर चलने का दावा करने वाला भारत का उत्तर औपनिवेशिक शासन जाति के आधार पर होने वाले बर्बर अत्याचारों को छिपाने की कोशिश में लगा रहता था, आज भी है. हो सकता है कि शासन में कुछ ऐसे प्रबुद्ध लोग हों जो ‘निचली’ जातियों के ‘उत्थान’ को लेकर गंभीर हों पर उनकी चिंता भी अक्सर वहीं जा कर ध्वस्त हो जाती है जहाँ सशर्त समावेशन (जैसे कि तुम सूअर का मांस खाना छोड़ दो हम तुम्हे हिन्दू मान लेंगे) के मूल आधार वाला उनका दर्शन सस्ते श्रम की जरूरत को पूरा करने के लिए समाज के एक हिस्से को सदैव गुलाम बनाए रखने की बाजारवादी मांग से टकरा जाय. ऐसे में शासन की कुल जमा ख्वाहिश यह होती थी/है कि ऐसे सवाल व्यापक विमर्श का हिस्सा न बनें, बाकी समाजशास्त्रीय अध्ययनों मे कोई यह सब लिखता रहे तो उनकी बला से, यूँ भी ज्यादातर अंगरेजी में होने वाला ऐसा विमर्श पढता भी कौन है.

अब लीजिए, ये खड़े हो गए अदम. जातिव्यवस्था की नृशंसता से टकराते हुए, उसे ध्वस्त करने की जरूरतों पर बल देते हुए. इतना ही नहीं, सरकारी तंत्र की बेईमानी से सीधे सीधे मोर्चा लेते हुए अदम यह भी दिखा रहे थे कि क़ानून व्यवस्था बनाए रखने की जिम्मेदारी वाला पुलिस विभाग अपने मूल चरित्र में सामन्तों से भी ज्यदा सामंतवादी है. ठीक उस वक्त जब सरकारें यह सच छिपाने की पुरजोर कोशिश में लगीं हों, संयुक्त राष्ट्र संघ को प्रतिवेदनों पर प्रतिवेदन दे रही हों कि ‘जाति भारत का आतंरिक मामला है’ और इसे ‘नस्लीय भेदभाव’ के अंदर शामिल न किया जाय, अदम अपनी कविता ‘चमारों की गली’ से एक समूची पीढ़ी को जातिगत उत्पीडन का समाजशास्त्र पढ़ा रहे थे! सरकारों को दिक्कत तो होनी ही थी, और उन्हें भी जिन्हें सरकारों की दिक्कत से दिक्कत थी.

सरकारें देश की प्रगति के आर्थिक विकास के आंकड़े हमारे मुंह पर पार साबित करने की कोशिश में लगी थीं कि सब कुछ सही है, बेहतर है और यहाँ अदम थे कि आत्महत्या कर रहे किसानों का सच, गहराते जा रहे कृषि संकट का सच लेकर हमारे सामने खड़े थे. सरकारी फाइलों में दर्ज गांवों के मौसम के गुलाबी होते जाने के झूठ के खिलाफ अदम अपनी कविताओं में जर्द हो रहे पत्ते, सूखते खेत और भूख से मर रहे किसानों का स्याह सच का पहरुआ बन खड़े हुए थे. भ्रष्टाचार के हमारी जिंदगियों में जहर बन घुलते जाने के खिलाफ आज के प्रतिरोध के बहुत पहले अदम काजू भरी प्लेटों और व्हिस्की भरे गिलासों के रास्ते विधायक निवासों में हर शाम उतर आने वाले ‘रामराज’से लोहा लेते आ रहे थे. लोहा तो अदम उस रामराज से भी ले रहे थे जिसको किसी बाबर के किये, या न किये, जुल्मों का बदला हमारे गाँवों के जुम्मन चाचा से लेना था.

सबसे बड़ी बात यह कि अदम की नजर व्यवस्था में, समाज में धीरे धीरे घुलते जा रहे इस जहर पर तब से थी जब ‘नयी आर्थिक नीतियों’ के नाम पर भारत के गरीब, मजदूर और सर्वहारा वर्ग को हर हक से मरहूम करने की फैसलाकुन कोशिशें ठीक से शुरू भी नहीं हुई थीं. देश के रंगमंच पर अभी उस पगड़ी वाले बहुरूपिये का आगमन होना बाकी था जिसे बाद में ‘प्रधानमंत्री’ होने का अभिनय करने के लिए जाना जाना था. जुम्मन चाचा को तलाशती रामनामी छूरियों वाले हाथ तो तब भी दीखते थे मगर उनके नियंताओं को, असली मालिकान को पहचाना जाना अभी बाकी था. बाकी तो अभी वह आंदोलन भी था जिसकी परिणिति इमरजेंसी के बाद हिन्दुस्तान की जम्हूरियत के सामने खड़े सबसे बड़े हादसे यानी कि बाबरी मस्जिद की शहादत में होनी थी.

अदम उस दौर में यह सब लिख और बोल रहे थे जब वह पगड़ी वाला बहरूपिया हिन्दुस्तान में किसी ‘जेहादी’, या ‘पैन इस्लामिक आतंकवाद’ के किसी हरकारे के न होने का दावा कर सकता था. हाँ, क्योंकि तब गुजरात भी होना बाकी था. समाज पर ऐसी सीधी नजर सिर्फ उस आदमी की हो सकती थी जिसका समाज से नाभि-नाल जैसा जुड़ाव हो, और अदम वैसी ही शख्सियत थे. अदम उन यादों के चितेरे थे जिन्हें सरकारें खारिज करने पर आमादा थीं.

III
मानव इतिहास में कुछ तो ऐसा है जो वर्चस्वकारी व्यवस्थाओं की पंहुच के परे है, फिर इन व्यवस्थाओं ने चाहे समाज में कितनी भी गहरी जड़ें क्यों न जमा ली हों. स्पष्टतया, यही है जो परिवर्तन को संभव बनाता है.
एडवर्ड सईद

अदम खुद ही सत्ताओं की पंहुच के बाहर के कवि हैं. न केवल पंहुच के बाहर के बल्कि सत्ताओं से सीधी मुठभेड़ के भी. नवउदारवाद और साम्प्रदायिक फासीवाद जैसे प्रयोगों को छोड़ ही दें, अदम तो उन चीजों में छिपे नुकसान भी साफ़ देख लेते थे जिन्हें ‘लोकतांत्रिकरण’, ‘विकेन्द्रीकरण’ और ग्राम स्वराज जैसे भले शब्दों के लिफ़ाफ़े में लपेट पेश किया जाता था. याद करें, कि ९३वें संविधान संशोधन विधेयक के आने बाद, गांवों में पंचायती राज की स्थापना के बाद बुद्धिजीवी भी सरकार की इस ‘कल्याणकारी’ नीति के समर्थन में लहालोट हुए जा रहे थे. समाजशास्त्र की किताबों को यह सबक हासिल करने में वक्त लगना था कि जब तक गांवों में जाति के आधार पर शक्ति और संसाधनों के विभाजन के ढाँचे को नेस्तोनाबूत नहीं किया जाता, इसका भी फायदा उन्ही सामंती और दबंग जातियों को होना है जो अब तक गांवों पर राज करते आये हैं.

उन गांवों में जहाँ आज भी सिर्फ पानी पी लेने के अपराध में दलितों के हाथ काट दिए जाते हों, जहाँ बेगार से मन करने पर बस्तियां जला दी जाती हों वहाँ शक्ति-संबंधों में आधारभूत परिवर्तन किये बिना इन ‘कास्मेटिक’ परिवर्तनों का कुछ खास हासिल नहीं था, यह अदम साफ़ समझ पा रहे थे. इसीलिये उन्होंने नवनिर्वाचित प्रधानों के एक सम्मेलन में आमंत्रित किये जाने पर जो कविता पढ़ी वह थी.. “जितने हरामखोर थे कुर्बो-जबार में,परधान बनके आ गए अगली कतार में.” देखिये, लोकतांत्रिक प्रक्रिया से चुने गए नवनिर्वाचित प्रधानों के मूल चरित्र पर कही गयी बात में जो इशारा है वह भारतीय राजनीति के बढते अपराधीकरण की तरफ है. यह भी कि जिस वक्त अदम यह बात कह रहे हैं वह राजनीति के अपराधीकरण के मुद्दा बनने से कम से कम दशक भर पहले की बात है.

यही नजर थी जिसकी वजह से अदम एक व्यक्ति होने से कहीं बहुत आगे निकल गए थे. अदम हमारे वक्त की नब्ज पर हाथ धरे बैठे वैद्य थे. अदम वह जिंदगी थे जो हमें जीनी थी, उनकी कवितायें वह कवितायेँ थीं जो हमें लिखनी थी उनकी लड़ाई वह लड़ाई थी जो आख़िरी जीत तक हमें लड़नी थी.

IV

“केवल वह इतिहासकार अतीत की राख में आशा की आग को हवा दे पायेगा जो आश्वस्त है कि अगर दुश्मन जीत गया तो फिर मुर्दे भी माफ नहीं किये जायेंगे.’
वाल्टर बेंजामिन

“इस व्यवस्था ने नई पीढ़ी को आखिर क्या दिया/सेक्स की रंगीनियाँ या गोलियाँ सल्फ़ास की” लिखते हुए अदम जब याद आते हैं तो वह कवि याद आता है जो बहुत साफ़ देख रहा था कि व्यवस्था हमें किन किन स्तरों पर मार रही थे. एक जरूरी कीटनाशक का एक समूची पीढ़ी की मौत का सामान बन जाना इतिहासकारों से छूट गया सच था जिसे अदम जैसा कोई सिरफिरा ही दर्ज कर सकता था. आर्य श्रेष्ठता के नाम पर तैयार होती हत्यारों की नयी फसल को उनकी चुनौती भी ऐसी ही थी- तारीख़ बताती है तुम भी तो लुटेरे हो/क्या द्रविड़ों से छीनी जागीर बदल दोगे ? मुझे नहीं पता कि अदम ने रोमिला थापर को पढ़ा था या नहीं, पर आर्यों के भी बाहरी होने का तथ्य जानने के लिए अदम को शायद उनकी जरूरत भी नहीं थी. अदम जन-इतिहास की परंपरा के सिपहसालार थे, ऐसे कि वह ही कह सकते थे कि हममें कोई हूण, कोई शक, कोई मंगोल है/दफ़्न है जो बात, अब उस बात को मत छेड़िए.

अदम के यहाँ सिर्फ इशारे नहीं थे. अदम को अपनी जनता पर भरोसा था, अपने लोगों की ताकत पर यकीन था. क्रान्ति की अवश्यम्भावता के रूमान में जीते थे अदम, ललकारते थे कि हैं कहाँ हिटलर, हलाकू, जार या चंगेज़ ख़ाँ/मिट गए सब, क़ौम की औक़ात को मत छेड़िए. बस यही वह जगह हैं जहाँ मुझे अदम का रूमान सच की उनकी समझ पर भारी पड़ता दीखता है. उनसे हुई हर मुलाक़ात में कहना चाहता था उनसे कि दादा क्रांतियां ऐसे नहीं होतीं, मुफलिसी और गरीबी की वजह से लोग विद्रोह करते तो आज दुनिया के हर मुल्क में सर्वहारा सरकारें होतीं. कहना चाहता था उन्हें कि दादा आपकी कविताओं को, आपके अशआर को अब एक कदम और आगे बढ़ना है. इतिहास दर्ज करने की जगह से आगे बढ़ कर लड़ाइयों की कमान संभालने की ओर जाना है उन्हें.

पर कहाँ कह पाया. अदम की ठेठ ग्रामीण निश्चलता और उससे भी बड़ी ईमानदारी हमेशा शब्द छीन लेती थी. याद आता था कि रुमान ही तो है जो इस क्रान्तिविरोधी दौर में भी हमारा विश्वास अक्षुण्ण रखता है, हमें आगे बढ़ने का, लड़ने का हौसला देता है. फिर सफलता असफलता के मायने ही कहाँ रह जाते हैं. आज अदम नहीं हैं, और हमें शर्मिंदा होना चाहिए कि उनके न होने के कसूरवार हम भी हैं. इस बात के लिए भी कि अदम के न रहने पर सबसे ज्यादा दुःख उन्हें हुआ लगता जिनका सारा इतिहास खुद को व्यवस्था के हाथ बेचने का इतिहास है. लंबी काली कारों और हाथ में करारे नोटों से भरे लिफ़ाफ़े वाले उन लोगों का अदम के लिए उमड़ पड़ रहा दुःख समझना ज्यादा मुश्किल नहीं है, आखिर इस देश में कबीर की अपना घर जला के रोशनी करने की परम्परा के बरअक्स कफ़नचोरों की भी तो एक परंपरा है ही. अदम ने खुद को नहीं बेचा, पर उनके लिए झूठी यादें और झूठे दुःख में खुद को और बेहतर बेच सकने की संभावनाओं की तलाश साफ दिखती है.

पर ये वो नहीं हम हैं जो अदम के गुनाहगार हैं. हम जो अदम के लिए लड़ नहीं सके, हम जो उन्हें बचा नहीं सके. बेशक हम जैसे ‘असफल’ लोग अदम के लिए कुछ खास कर भी नहीं सकते थे कि हम उन्ही हारी हुई लड़ाइयों के साथ हैं जिन्हें अदम गोंडवी ने जिंदगी दी और फिर जिनसे हासिल गर्व भरी मुफलिसी ने उनकी जिंदगी ले भी ली. अब हमारा फ़र्ज़ बनता है कि हम अगले किसी साथी को अदम जैसी मौत न मरने दें, यही अदम को हमारी कामरेडाना श्रद्धांजलि हो सकती है. उनकी यादों को उन कृतघ्नों से छीनना भी हमारा ही काम बनता है.
विदा अदम कि आप जीत और हार दोनों में हमारी लड़ाइयों के अंत तक हमारे साथ हैं. अलविदा अदम,

Comments

  1. उस अंक के मेरे प्रिय लेखों में से है यह. साथ ही तुम्हारी वाल पर सीना ठोंक के यह श्रेय ले सकता हूँ कि यह लेख तुमसे लिखवा लेने मेरे जैसे जिद्दी और बेशर्म आदमी के बस की ही बात थी :)

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  2. एक बार शुरू किया तो आखिर में जा कर थमा ,पढ़ने के बाद लिखा हुआ लेख कम लगा ..शानदार

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