पुराने अंदाज में शुरू की जाएँ तो कहानियों में यादों की छौंक सी पड़ जाती है. परियों की, राजकुमारों की और राक्षसों की स्मृतियों की छौंक. तो लीजिये साहबान, ये लेख उसी अंदाज में शुरू करता हूँ.
एक समय एक देश में चेतन भगत नाम का एक आदमी रहता था, ठीक वैसे जैसे कभी एक गाँव में एक गरीब ब्राह्मण रहता था. अब यहाँ जरा ठहरिये और सोचिये की अगर कहानियों की मान लें, तो लगेगा इस देश में गरीब केवल ब्राहमण होता था! मेरा भी ध्यान कहाँ गया था इस बात पर जब तक जेनयू की एक सुबह छोटे भाई जैसे दोस्त दीपक भास्कर ने इस तरफ इशारा नहीं किया था. केसी में चौधरी साहब की दूकान पर भर दोपहरी में सुबह की पहली चाय (अब जेनयू की जो सुबह है वह जरा देर से होती है) पीते हुए दीपक ने पूछा था की कहानियों के सब गरीब ब्राह्मण ही क्यों होते थे समर भैया और ये लीजिये साहिबान.. ग्राम्शी का हेजेमनी, यानी की वर्चस्ववाद वाला सिद्धांत ठीक ठीक समझ आ गया था. गांवो के गरीब दलित-बहुजन और कहानियों के ब्राह्मण! यह होता है हुक्मरानों के विचारों का अंतरीकरण.
खैर, कहानी उन कहानियों वाले ब्राह्मणों की थोड़े ही है, यह तो चेतन भगत की कहानी है. सो वापस आते हैं उस देश में जहाँ एक समय चेतन भगत नाम का यह आदमी रहता था. अब कहानियों वाले गरीब ब्राह्मणों को छोड़ दें तो जो लोग रहते हैं उन्हें जीने के लिए कुछ काम भी करना पड़ता है. तो हजरात, चेतन भगत नाम का यह आदमी खूब लिखता और उससे भी ज्यादा छपता था. कहने वाले तो यहाँ तक कहते हैं कि लिखने और छपने के मामले में चेतन भगत को टक्कर सिर्फ और सिर्फ मस्तराम नाम का वह प्रख्यात लेखक दे सकता था जिसकी किताबें उस देश की तमाम युवा पीढ़ियों के लिए यौन ज्ञान (जो बाद में सेक्स एजुकेशन नाम से जाना जाने लगा) की इकलौती, प्रामाणिक और असली वाली स्रोत थीं. न न, यह बिलकुल मत सोचियेगा कि मैं चेतन भगत की तुलना मस्तराम से कर रहा हूँ. ईशनिंदा होगी यह और ऐसी धृष्टता मैं सपने में भी नहीं कर सकता. चेतन भगत की ही भाषा में कहें तो मस्तराम (जी?) सार्वकालिक 'बेस्टसेलर' हैं और ठीक ठीक कहें तो उनके सामने तो चेतन भगत अभी पैदा भी नहीं हुए हैं. खैर, यह कहानी मस्तराम (जी?) की भी नहीं है, सो आइये फिर से वापस आते हैं चेतन भगत नाम के उस आदमी पर जो एक समय एक देश में रहता थे.
अब लिखने को तो चेतन नाम का यह आदमी वैसा ही लिखता था जैसे रामगोपाल वर्मा अपनी फैक्ट्री में फिल्मों का उत्पादन करते हैं पर फिर भी, इस आदमी के लिखने में एक ख़ास बात थी. वह ख़ास बात जो एक और छोटे भाई नीलोत्पल मृणाल शांडिल्य से बेहतर तरीके से बयान की ही नहीं जा सकती. सो जनाब नीलोत्पल ने चेतन भगत का नाम सुनते ही फरमाया कि ये तो वही आदमी है न जो सिर्फ हिन्दी जानने वालों के लिए अंगरेजी में किताब लिखता है. तो सिर्फ हिन्दी जानने वालों के लिए अंगरेजी में किताब लिखने वाले इन चेतन भगत को एक और काम में महारत हासिल थी. और यह काम था दुसरे, और उनसे बड़े और बढ़िया लेखकों से गाली खाने में. खैर गालियाँ तो इन्होने औरों से भी बहुत खायी हैं. जैसे पहले के सुपरस्टार और आजकल के सत्यमेव जयते फेम समाजसुधारक आमिर खान से. फिल्म 3 इडियट को लेकर हुए विवाद में आमिर ने इन्हें लालची और पब्लिसिटी का भूखा तक बता दिया था, पर वो कहानी फिर सही.
फिर एक बार चेतन साहब गुलज़ार से भी टकरा गए थे. ऐसे कि जैसे कोई साइकिल हवाई जहाज से टकरा जाये. हुआ ये था कि एक पैनल चर्चा मे चेतन साहब ने उनका परिचय यह कहके कराया था कि 'गुलज़ार साहब बड़े आदमी हैं और 'कजरारे कजरारे' गीत इन्ही का है. बदले में गुलज़ार साहब ने इनसे इस गाने की दो पंक्तियों 'तेरी बातों में किमाम की खुशबू है/तेरा आना भी गर्मियों की लू है' के मायने बताने को कह दिया और लीजिये साहिबान.. चेतन भगत का चेहरा सफ़ेद. पर बात अभी ख़त्म कहाँ हुई थी. गुलज़ार साहब ने उसके बाद इनको बताया कि मियाँ 'जो चीजें पता न हों उन पर 'एक्सपर्ट कमेन्ट' मत किया करो. (पूरी कहानी पढनी हो तो लिंक यह रहा)
पर अब ये कहानी गुलजार साहब की थोड़े है, यह तो उस आदमी की कहानी है जो एक समय एक देश में रहता था और नसीहतों से जिसका रिश्ता वही था जो 'गौमाता' खानदान के एक जंतु विशेष का लाल नामक रंग विशेष के कपड़े से होता है. लब्बोलुआब यह कि बिना जाने बिना समझे ‘एक्सपर्ट कमेन्ट’ देने की चेतन भगत की आदत गयी नहीं. तो लीजिए साहिबान, इस बार चेतन भगत कूद पड़े 2014 मे होने वाले लोकसभा चुनावों मे प्रधानमंत्री कौन होना चाहिए इस पर राय देने. राय भी कोई अपनी नहीं, बल्कि इस देश के युवाओं की. खैर उनका हक बनता है, क्यों क्योंकि वो कोई आम इंसान तो हैं नहीं, वो चेतन भगत है जो एक समय एक देश मे रहते थे.
रुकिये, शायद यहाँ फिर थोड़ा सा ठहरना तो बनता है. चेतन के मन मे जो पहला ख्याल आया था वह राय देने जैसा कुछ नहीं था. उनके खुद के मुताबिक उनको तो बस जरा सा ‘मजा लेना’ था. सो उन्होंने मजे मजे मे अपने फेसबुक और ट्विटर पे पूछ लिया कि 2014 में देश का प्रधानमंत्री किसे होना चाहिए? सिर्फ पूछा नहीं, विकल्प भी दिए. राहुल गांधी, नरेन्द्र मोदी और इन दोनों मे से कोई नहीं. कितना आसान है न जनमत जानना! पता नहीं कौन बेवकूफ हैं जो विश्वविद्यालयों मे जाके उम्र गुजार देते हैं शोध प्रविधियां उर्फ रिसर्च मेथोडालाजी पढ़ने मे. क्या तो सैम्पलिंग/रैंडम सैम्पलिंग/टार्गेटेड सैम्पलिंग वगैरह वगैरह करते रहते हैं. क्या तो हाइपोथीसिस बनाते रहते हैं.
चेतनजी से सीखना चाहिए उन बेवकूफों को. फिर तो रिसर्च करना मजे लेना जितना आसान हो जाये. ऐसे ही थोड़े चेतनजी वह चेतन जी बन गए हैं जो एक समय एक देश मे रहते थे. अब देखिये उनके दिए गए विकल्प. पहला राहुल गांधी, जो प्रधानमंत्री बनने को तैयार ही नहीं हैं. बेचारे सीटवार्मर सीट गरम रखते रखते जल गए हों, राहुल आबा पर फर्क ही नहीं पड़ता. और दूसरे नरेन्द्र मोदी जिनकी खुद की पार्टी मे दोस्त से ज्यादा उनके दुश्मन हैं. (वैसे केशुभाई पटेल ने पार्टी छोड़ दी है या नहीं?) इतने कद्दावर नेता हैं मोदी जी कि भाजपा के एक महासचिव संजय जोशी को निकलवाने के लिए उन्हें कैकेयी की तरह कोपभवन मे जा के बैठ जाना पड़ा. इतने कद्दावर कि उसके बाद भी भाजपा के मुखपत्र ने अपने सम्पादकीय मे ही उन्हें ज्यादा जल्दी मे न रहने की सलाह दे डाली. इतने कद्दावर कि एनडीए के बड़े नेता और बिहार के मुख्यमंत्री नीतीश सुशासन कुमार ने उन्हें अपने राज्य मे घुसने तक नहीं दिया.
पर ये कहानी नरेन्द्र मोदी या राहुल गांधी की थोड़े ही है. तो साहिबान आइये वापस चलें उस देश जिसमे एक समय चेतन भगत रहते थे. यह और बात कि वह देश जमीन पर नहीं आभासी बोले तो वर्चुअल दुनिया मे था. इस देश को कुछ लोग यंगिस्तान बोलते थे और इसका नक्शा फेसबुक और ट्विटर पे पाया जाता था. अब इसका भी क्या करें कि इस देश के भी सिर्फ 10000 लोगों ने उनके सर्वे मे हिस्सा लिया और ये लीजिए चेतन भगत को इलहाम हो गया कि ‘देश’ नरेन्द्र मोदी के साथ खड़ा है. जो नहीं खड़ा है वो देश ही नहीं है. देश बोले तो मोदी समर्थक नेटिजन! मोदी समर्थक नेटिजन बोले तो देश! चेतन बाबा क्या जानें कि सिर्फ 2011 मे आत्महत्या कर लेने वाले किसान 14000 से ज्यादा थे, बोले तो उनके सर्वे मे हिस्सा लेने वालों से लगभग दो गुना! (लगभग पर मत जाइयेगा क्योंकि चेतन बाबू के सर्वे मे भी 10 हजार नहीं ‘लगभग’ 10 हजार लोगों ने हिस्सा लिया था!) पर किसान फेसबुक पे थोड़े होते हैं, और जो फेसबुक पे नहीं होते वे फिर देश भी कहाँ होते हैं?
लेकिन प्रधानमंत्री चुनने वाले मसले मे एक रगड़ा है.हजरात वो ये, कि एक समय एक देश मे चेतन भगत रहते थे लेकिन उसी समय एक ऐसा भी देश था जहाँ चेतन भगत नहीं रहते थे. और चुनाव मे वोट यही वाला देश डालता था, चेतन वाला नहीं. बरसों पहले यही बात प्रमोद महाजन नहीं समझ पाए थे. और फिर हो गया था इण्डिया शाइनिंग! इस मौके पे पता नहीं क्यों एक पुरानी फिल्म का पुराना सा संवाद याद आ रहा है. चुटकी भर सिन्दूर की कीमत तुम क्या जानो रमेश बाबू टाइप संवाद.
बाकी तो बस ये कि जाने क्यों चेतन और चमन मे ध्वनिसाम्य है. न न, उर्दू वाला चमन नहीं, देश/काल/भाषातीत इलाहाबाद वाला चमन. कानपुर वाला चमन. लखनऊ वाला चमन. च से चेतन. च से चमन. बाकी गुलजार साहब की नसीहत तो है ही.
एक समय एक देश में चेतन भगत नाम का एक आदमी रहता था, ठीक वैसे जैसे कभी एक गाँव में एक गरीब ब्राह्मण रहता था. अब यहाँ जरा ठहरिये और सोचिये की अगर कहानियों की मान लें, तो लगेगा इस देश में गरीब केवल ब्राहमण होता था! मेरा भी ध्यान कहाँ गया था इस बात पर जब तक जेनयू की एक सुबह छोटे भाई जैसे दोस्त दीपक भास्कर ने इस तरफ इशारा नहीं किया था. केसी में चौधरी साहब की दूकान पर भर दोपहरी में सुबह की पहली चाय (अब जेनयू की जो सुबह है वह जरा देर से होती है) पीते हुए दीपक ने पूछा था की कहानियों के सब गरीब ब्राह्मण ही क्यों होते थे समर भैया और ये लीजिये साहिबान.. ग्राम्शी का हेजेमनी, यानी की वर्चस्ववाद वाला सिद्धांत ठीक ठीक समझ आ गया था. गांवो के गरीब दलित-बहुजन और कहानियों के ब्राह्मण! यह होता है हुक्मरानों के विचारों का अंतरीकरण.
खैर, कहानी उन कहानियों वाले ब्राह्मणों की थोड़े ही है, यह तो चेतन भगत की कहानी है. सो वापस आते हैं उस देश में जहाँ एक समय चेतन भगत नाम का यह आदमी रहता था. अब कहानियों वाले गरीब ब्राह्मणों को छोड़ दें तो जो लोग रहते हैं उन्हें जीने के लिए कुछ काम भी करना पड़ता है. तो हजरात, चेतन भगत नाम का यह आदमी खूब लिखता और उससे भी ज्यादा छपता था. कहने वाले तो यहाँ तक कहते हैं कि लिखने और छपने के मामले में चेतन भगत को टक्कर सिर्फ और सिर्फ मस्तराम नाम का वह प्रख्यात लेखक दे सकता था जिसकी किताबें उस देश की तमाम युवा पीढ़ियों के लिए यौन ज्ञान (जो बाद में सेक्स एजुकेशन नाम से जाना जाने लगा) की इकलौती, प्रामाणिक और असली वाली स्रोत थीं. न न, यह बिलकुल मत सोचियेगा कि मैं चेतन भगत की तुलना मस्तराम से कर रहा हूँ. ईशनिंदा होगी यह और ऐसी धृष्टता मैं सपने में भी नहीं कर सकता. चेतन भगत की ही भाषा में कहें तो मस्तराम (जी?) सार्वकालिक 'बेस्टसेलर' हैं और ठीक ठीक कहें तो उनके सामने तो चेतन भगत अभी पैदा भी नहीं हुए हैं. खैर, यह कहानी मस्तराम (जी?) की भी नहीं है, सो आइये फिर से वापस आते हैं चेतन भगत नाम के उस आदमी पर जो एक समय एक देश में रहता थे.
अब लिखने को तो चेतन नाम का यह आदमी वैसा ही लिखता था जैसे रामगोपाल वर्मा अपनी फैक्ट्री में फिल्मों का उत्पादन करते हैं पर फिर भी, इस आदमी के लिखने में एक ख़ास बात थी. वह ख़ास बात जो एक और छोटे भाई नीलोत्पल मृणाल शांडिल्य से बेहतर तरीके से बयान की ही नहीं जा सकती. सो जनाब नीलोत्पल ने चेतन भगत का नाम सुनते ही फरमाया कि ये तो वही आदमी है न जो सिर्फ हिन्दी जानने वालों के लिए अंगरेजी में किताब लिखता है. तो सिर्फ हिन्दी जानने वालों के लिए अंगरेजी में किताब लिखने वाले इन चेतन भगत को एक और काम में महारत हासिल थी. और यह काम था दुसरे, और उनसे बड़े और बढ़िया लेखकों से गाली खाने में. खैर गालियाँ तो इन्होने औरों से भी बहुत खायी हैं. जैसे पहले के सुपरस्टार और आजकल के सत्यमेव जयते फेम समाजसुधारक आमिर खान से. फिल्म 3 इडियट को लेकर हुए विवाद में आमिर ने इन्हें लालची और पब्लिसिटी का भूखा तक बता दिया था, पर वो कहानी फिर सही.
फिर एक बार चेतन साहब गुलज़ार से भी टकरा गए थे. ऐसे कि जैसे कोई साइकिल हवाई जहाज से टकरा जाये. हुआ ये था कि एक पैनल चर्चा मे चेतन साहब ने उनका परिचय यह कहके कराया था कि 'गुलज़ार साहब बड़े आदमी हैं और 'कजरारे कजरारे' गीत इन्ही का है. बदले में गुलज़ार साहब ने इनसे इस गाने की दो पंक्तियों 'तेरी बातों में किमाम की खुशबू है/तेरा आना भी गर्मियों की लू है' के मायने बताने को कह दिया और लीजिये साहिबान.. चेतन भगत का चेहरा सफ़ेद. पर बात अभी ख़त्म कहाँ हुई थी. गुलज़ार साहब ने उसके बाद इनको बताया कि मियाँ 'जो चीजें पता न हों उन पर 'एक्सपर्ट कमेन्ट' मत किया करो. (पूरी कहानी पढनी हो तो लिंक यह रहा)
पर अब ये कहानी गुलजार साहब की थोड़े है, यह तो उस आदमी की कहानी है जो एक समय एक देश में रहता था और नसीहतों से जिसका रिश्ता वही था जो 'गौमाता' खानदान के एक जंतु विशेष का लाल नामक रंग विशेष के कपड़े से होता है. लब्बोलुआब यह कि बिना जाने बिना समझे ‘एक्सपर्ट कमेन्ट’ देने की चेतन भगत की आदत गयी नहीं. तो लीजिए साहिबान, इस बार चेतन भगत कूद पड़े 2014 मे होने वाले लोकसभा चुनावों मे प्रधानमंत्री कौन होना चाहिए इस पर राय देने. राय भी कोई अपनी नहीं, बल्कि इस देश के युवाओं की. खैर उनका हक बनता है, क्यों क्योंकि वो कोई आम इंसान तो हैं नहीं, वो चेतन भगत है जो एक समय एक देश मे रहते थे.
रुकिये, शायद यहाँ फिर थोड़ा सा ठहरना तो बनता है. चेतन के मन मे जो पहला ख्याल आया था वह राय देने जैसा कुछ नहीं था. उनके खुद के मुताबिक उनको तो बस जरा सा ‘मजा लेना’ था. सो उन्होंने मजे मजे मे अपने फेसबुक और ट्विटर पे पूछ लिया कि 2014 में देश का प्रधानमंत्री किसे होना चाहिए? सिर्फ पूछा नहीं, विकल्प भी दिए. राहुल गांधी, नरेन्द्र मोदी और इन दोनों मे से कोई नहीं. कितना आसान है न जनमत जानना! पता नहीं कौन बेवकूफ हैं जो विश्वविद्यालयों मे जाके उम्र गुजार देते हैं शोध प्रविधियां उर्फ रिसर्च मेथोडालाजी पढ़ने मे. क्या तो सैम्पलिंग/रैंडम सैम्पलिंग/टार्गेटेड सैम्पलिंग वगैरह वगैरह करते रहते हैं. क्या तो हाइपोथीसिस बनाते रहते हैं.
चेतनजी से सीखना चाहिए उन बेवकूफों को. फिर तो रिसर्च करना मजे लेना जितना आसान हो जाये. ऐसे ही थोड़े चेतनजी वह चेतन जी बन गए हैं जो एक समय एक देश मे रहते थे. अब देखिये उनके दिए गए विकल्प. पहला राहुल गांधी, जो प्रधानमंत्री बनने को तैयार ही नहीं हैं. बेचारे सीटवार्मर सीट गरम रखते रखते जल गए हों, राहुल आबा पर फर्क ही नहीं पड़ता. और दूसरे नरेन्द्र मोदी जिनकी खुद की पार्टी मे दोस्त से ज्यादा उनके दुश्मन हैं. (वैसे केशुभाई पटेल ने पार्टी छोड़ दी है या नहीं?) इतने कद्दावर नेता हैं मोदी जी कि भाजपा के एक महासचिव संजय जोशी को निकलवाने के लिए उन्हें कैकेयी की तरह कोपभवन मे जा के बैठ जाना पड़ा. इतने कद्दावर कि उसके बाद भी भाजपा के मुखपत्र ने अपने सम्पादकीय मे ही उन्हें ज्यादा जल्दी मे न रहने की सलाह दे डाली. इतने कद्दावर कि एनडीए के बड़े नेता और बिहार के मुख्यमंत्री नीतीश सुशासन कुमार ने उन्हें अपने राज्य मे घुसने तक नहीं दिया.
पर ये कहानी नरेन्द्र मोदी या राहुल गांधी की थोड़े ही है. तो साहिबान आइये वापस चलें उस देश जिसमे एक समय चेतन भगत रहते थे. यह और बात कि वह देश जमीन पर नहीं आभासी बोले तो वर्चुअल दुनिया मे था. इस देश को कुछ लोग यंगिस्तान बोलते थे और इसका नक्शा फेसबुक और ट्विटर पे पाया जाता था. अब इसका भी क्या करें कि इस देश के भी सिर्फ 10000 लोगों ने उनके सर्वे मे हिस्सा लिया और ये लीजिए चेतन भगत को इलहाम हो गया कि ‘देश’ नरेन्द्र मोदी के साथ खड़ा है. जो नहीं खड़ा है वो देश ही नहीं है. देश बोले तो मोदी समर्थक नेटिजन! मोदी समर्थक नेटिजन बोले तो देश! चेतन बाबा क्या जानें कि सिर्फ 2011 मे आत्महत्या कर लेने वाले किसान 14000 से ज्यादा थे, बोले तो उनके सर्वे मे हिस्सा लेने वालों से लगभग दो गुना! (लगभग पर मत जाइयेगा क्योंकि चेतन बाबू के सर्वे मे भी 10 हजार नहीं ‘लगभग’ 10 हजार लोगों ने हिस्सा लिया था!) पर किसान फेसबुक पे थोड़े होते हैं, और जो फेसबुक पे नहीं होते वे फिर देश भी कहाँ होते हैं?
लेकिन प्रधानमंत्री चुनने वाले मसले मे एक रगड़ा है.हजरात वो ये, कि एक समय एक देश मे चेतन भगत रहते थे लेकिन उसी समय एक ऐसा भी देश था जहाँ चेतन भगत नहीं रहते थे. और चुनाव मे वोट यही वाला देश डालता था, चेतन वाला नहीं. बरसों पहले यही बात प्रमोद महाजन नहीं समझ पाए थे. और फिर हो गया था इण्डिया शाइनिंग! इस मौके पे पता नहीं क्यों एक पुरानी फिल्म का पुराना सा संवाद याद आ रहा है. चुटकी भर सिन्दूर की कीमत तुम क्या जानो रमेश बाबू टाइप संवाद.
बाकी तो बस ये कि जाने क्यों चेतन और चमन मे ध्वनिसाम्य है. न न, उर्दू वाला चमन नहीं, देश/काल/भाषातीत इलाहाबाद वाला चमन. कानपुर वाला चमन. लखनऊ वाला चमन. च से चेतन. च से चमन. बाकी गुलजार साहब की नसीहत तो है ही.
बहुत सुन्दर अद्भुत और पैना लिखा है आपने. बस ये बात और है कि मोदीफोबिया का भयंकर प्रदर्शन. न अपन चेतन से सहमत हैं और न ही कूद कर मोदी जी को प्रधानमंत्री बनाने चले हैं. फिर भी यह तथ्य है कि चेतन ने अपने लेख में कहीं ये नहीं लिखा है उसके सर्वे पर राष्ट्रपति को मुहर लगानी बस शेष है. और न ही कहीं यह लिखा कि उसने चौदह हज़ार किसानों की आत्मा से ये सवाल पूछा था. उसने इतनी तो इमानदारी बरती ही है कि साफ़-साफ़ लिंक देकर यह कहा है कि उसने फेसबुक पर ही यह सर्वे किया था. और ये भी इसे देश का जनमत नहीं माना जा सकता.
ReplyDeleteजहां तक सवाल हायपोथेसिस का है तो यह एक आम सी राय जैसी दिखती है कि जब भी प्रधानमंत्री का सवाल आता है तो दो चेहरे दिखते हैं सामने. एक मोदी जी और दुसरे राहुल जी. इसमें भारत के फेसबुकी नागरिक का सोचना क्या है यही तो कहा है उसने. इसमें ज्यादा बौखलाने की बात कहां से आ गयी? मुझे हर वक्त यही लगता है कि नरेंद्र मोदी जी का सबसे भला उन्हें गाली देने वाले आप जैसे लोग ही करते हैं. कोई 'आंतरिक' सांठ-गाँठ हो तो मुझे नहीं मालुम. :) बहरहाल सुन्दर आलेख.
बढ़िया ...धारदार ..यूँ भी चेतन भगत की ५ पोइंट्स के अलावा कुछ और पढ़ा ही नहीं गया मुझसे तो.
ReplyDeleteबहुत दिनों बाद अच्छा व्यंग्य पढ़ने को मिला. करारा है एकदम लिज्ज़त पापड़ जैसा.
ReplyDeleteतथ्य से दूर होने के वज़ह से गुलजार साहब की नसीहत से सिख लेना फिलहाल मेरे लिए ज्यादा श्रेयस्कर होगा। मैं यहाँ आपकी थोड़ी प्रशंशा करना चाहूँगा कि लेखनी और भाषा-शैली सुदृढ़ है और आपका कार्य वास्तव में प्रशंशनीय है।धन्यवाद !
ReplyDeleteभटका हुआ व्यंग्य/लेख. जिस चीज़ को ढूँढने के लिए लेख पढ़ना शुरू किया था वैसा कुछ नहीं मिला. चेतन भगत खूब लिखता है, और जैसा भी लिखता है खूब बिकता और पढ़ा जाता है (अब चाहे कोई भी पढ़े और पसंद करे)इस बात को हम काट नहीं सकते. उनके सामान्य ज्ञान और बाकी विवादों से उपजी परिस्तिथियों से उनके साहित्यिक ज्ञान के स्तर को भी हम जानते ही हैं. तो यहाँ मुझे उम्मीद थी की उनके लेखन पर कोई करारी समीक्षा पढ़ने मिलेगी जो कि एक लेखक (जैसा भी हो) पर बात करने कि तर्कसंगत प्रणाली होती. अब फलाने ने मोदी को लेकर एक सर्वेक्षण और लेख खड़ा कर दिया इसलिए उस पर हर कोई स्पेशल एडिशन निकाला जा रहा है!
ReplyDeletebahut achchha laga
ReplyDeleteजरूरी दखल...। बहुत मजबूती से। लेकिन यह लाइन खटकने वाली है-
ReplyDelete"इतने कद्दावर कि एनडीए के बड़े नेता और बिहार के मुख्यमंत्री नीतीश सुशासन कुमार ने उन्हें अपने राज्य मे घुसने तक नहीं दिया."
नीतीश कुमार मौजूदा राजनीतिक परिदृश्य में एक बेहद सॉफिस्टिकेटेड व्यक्ति हैं। जिस वक्त उन्होंने नरेंद्र मोदी को बिहार में "घुसने नहीं दिया" था, उसके कुछ ही दिन बाद वे लुधियाना में एक मंच पर मोदी के साथ हाथ में हाथ जोड़े फोटू खिंचवा रहे थे। इसके बाद का पाखंड भी लगातार जारी है। वे बाढ़ राहत के लिए गुजरात से भेजा गया पैसा नरेंद्र मोदी का निजी पैसा समझ कर वापस कर देते हैं, लेकिन नरेंद्र मोदी की पार्टी के मोदी के बाकी झंडाबरदारों के सहारे सरकारी रसगुल्ला उड़ाने में उन्हें कोई हिचक नहीं होती। फिर फारबिसगंज में जो हुआ, ब्रह्मेश्वर मुखिया की हत्या के बाद जो तांडव हुआ, उसे हम "मोदी-चरित्र" से कैसे अलग करके देख सकते हैं...? (हालांकि अब यह खुलासा हुआ है रणवीर ब्रह्मेश्वर सिंह महज रंगदारी का विरोध करने जैसे बेहद मामूली कारण से मारा गया। यानी उसका शहीद होने पर सवाल...! लेकिन क्या सचमुच यही कारण है और नीतीश के पहलवान सुनील पांडे का नाम ब्रह्मेश्वर के परिवार वालों ने किसी गलतफहमी में ले लिया था?)
पंकज भाई-- तारीफ़ का शुक्रिया. रही बात मोदी-फोबिया की, तो इस मुद्दे पर आपकी बात इसलिए भी गंभीरता से लूँगा कि आप संघ कबीले के उन बहुत कम लोगों में से हैं जिन्होंने सार्वजनिक रूप से मोदी का विरोध किया है, वजह भले चाहे कोई और रही हो इस दौर में संघी खेमे से मोदी का विरोध ही बड़ी बात है. तो उसके लिए बधाई के साथ सिर्फ यहाँ कहूँगा कि 'न भूलो न माफ़ करो' प्रतिरोध की परंपरा में सबसे बड़ा और पैना हथियार रहा है. अब यहीं देखिये न, मोदी की अपनी स्वीकार्यता बढाने की सारी कोशिशें हम जैसे लोगों की वजह से ही जमींदोज हुई हैं साहब.
ReplyDeleteशिखा वार्ष्णेय जी-- धन्यवाद
नीलाम्बुज-- नवाजिश भाई. तुम जैसे छोटे भाइयों के दिए हौसले से ही हिन्दी में हाथ पाँव मार रहा हूँ.
रोहित जी- शुक्रिया
अमित शर्मा उपमन्यु जी-- क्षमा चाहता हूँ कि आपको निराश किया. वैसे मेरा कोई इरादा नहीं था कि मैं भगत कि किसी किताब की समीक्षा करूँ, समीक्षा के लिए किताब में कुछ तो होना चाहिए न सर. बाकी भगत जी ने 'मजा लेने के लिए' सर्वे कर दिया था और मैंने उनके मजे का मजा लेने के लिए यह लेख लिख मारा. अब इसका क्या करें कि पुरानी बीमारी है राजनीति, कितना भी रोकें बातों में आ ही जाती है.
ReplyDeleteशेष जी--
ReplyDeleteपूरी सहमति है आपसे. देख भी पा रहा हूँ कि मुझसे 'चूक' कहाँ हुई है. हुआ यह कि लिख तो मैं नीतीश 'सुशासन' कुमार रहा था पर यह 'इन्वर्टेड' कामा फिर जाने कैसे छूट गया. शायद उससे बात पूरी तरह स्पष्ट हो जाती, बाकी नीतीश पर मेरी राय तो आप जानते ही हैं
इतना करारा व्यंग्य :)
ReplyDeleteवाकई चेतन च से होता है।
ReplyDeleteएकध बार चेतन भगत (जी) को टीवी पर देखा है बात करते हुये। अब क्या कहें छोडा जाये। देश के लोकप्रिय लेखक हैं। आईआईटी, एमबीए किये हैं। बहुत पैसा ठुका है देश का उन पर। कुछ कहना ठीक नहीं लगता।
ReplyDelete(y) बाँध कर रखा है अंत तक...
ReplyDeleteहमने भी हालिया दिनों में पढ़ा चेतन भगत को , और बेशक पढने की वजह वही यंगिस्तान है,जो अगली पीढ़ी के तौर पर हमारे परिवार में पनप रही है पब्लिक स्कूलों में पढने वाले रीडर्स, और मुझे लगा for a change किसी lekhk को पढने में क्या हर्ज है।
हाँ ये तो है की हिंदी जानने वाले लोगों के लिए वो अंग्रेजी में लिखता है :),पर साहित्य ना ढूंढा जाय इसमें..तो क्या बुरा है ये,बस धर्मार्थ जानिये इसे..
फिलहाल आपने व्यंग्य धारदार लिखा है।
चेतन की दिवाली मना दी
ReplyDeleteअ्च्छा और सटीक व्यगात्मक लेख।
ReplyDeleteमैंने देर से पढ़ी ये पोस्ट पर आज भी सटीक ही है ..अब तो कई बातें और भी जुड़ गई हैं , जैसे रोमन में हिंदी लिखने का आग्रह ही .
ReplyDeleteवैसे अब उनकी लोकप्रियता काफी घटी है .एक बार एयरपोर्ट पर देखा था .छुपी नजरों से देख रहे थे कि लोग आकर शायद उनसे बातें करे,औटोग्राफ लें पर कोई पास नहीं फटका . कुछ युवा लड़के लडकियां भी थे पर वे भी नहीं गए .
सुना है किसी डांस शो में जज बन कर आ रहे हैं .अब आ गए हैं,अपनी सही जगह :)
Seriously... मज़ा ही आ गया पढ़कर… :p
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