यौनहिंसक मर्दों के देश के 'शर्मिंदा' सभ्य नागरिकों के नाम!

हम फिर से शर्मिंदा हैं. इस बार गुवाहाटी में बीच सड़क एक लड़की के ऊपर हुए यौन हमले को लेकर, उसे बचाने की जगह घटना को रिकार्ड करने वाले मीडियाकर्मियों को लेकर, इस हमले के आधे घंटे से भी ज्यादा समय तक चलते रहने को लेकर, हम शर्मिंदा हैं. हम गुस्से से उबल रहे हैं की पुलिस इतनी देर से क्यों पंहुची, कि सड़कें इतनी असुरक्षित क्यों हैं, कि हम अब भी ऐसे आदिम समयों में जी रहे हैं. सिर्फ शर्मिंदा नहीं हैं हम, इस बार तो हम गुस्से में उबल भी रहे हैं. हमने कसम खा ली है कि इस बार हम ‘पीड़िता’(हिन्दी मीडिया का प्रिय शब्द) को न्याय दिला कर ही मानेंगे.

पहले शर्मिंदा होना फिर गुस्से में उबल पड़ना हमारे राष्ट्रीय शौक जैसा बन गया है. शक हो तो याद करें कि इसके पहले हम कितनी बार ठीक इसी तरह शर्मसार और गुस्सा हो चुके हैं, वह भी ठीक इसी तरह की घटनओं को लेकर. वैसे जैसे तब हुए थे जब इसी आसाम में एक आदिवासी लड़की को निर्वस्त्र कर सड़कों पर दौड़ाया गया था और भारतमाता के कुछ वीर ‘सपूतों’ ने उस घटना का भी वीडियो बनाया था. हम तब भी शर्मिंदा थे, बाकी उस लड़की को न्याय मिला या नहीं इसका पता नहीं. बहुतों को कोई खास जरूरत भी नहीं होगी, आदिवासियों के लिए इतना भी क्या सोचना वाले अंदाज में.

या तब, जब बम्बई में पांच सितारा होटल से अपने साथियों के साथ निकलती दो महिलाओं पर ठीक इसी तरह की एक भीड़ ने यौन हमला किया था. साल 2008 की आख़िरी शाम अपने साथियों के साथ निकलते हुए उन दो स्त्रियों ने शायद सपनों में भी अपने साथ ऐसा कुछ हो सकने की संभावना के बारे में नहीं सोचा होगा. कहाँ जानती होंगी वे कि प्रतिगामी समाजों में पितृसत्ता अक्सर ही वर्गीय विभाजन से हासिल ‘सुरक्षा’ पर भारी पड़ती है. सत्तर-अस्सी पुरुषों द्वारा उनपर किया गया हमला शायद और भी बर्बर और भी भयानक रहा होगा, आखिर भारतमाता के इन वीर सपूतों की वीरता उनके झुण्ड के समानुपाती होती है. गुस्सा तो हम उस बार भी हुए थे, कसमे हमने उस बार भी खायी थीं, बाकी उन स्त्रियों को न्याय मिला या नहीं यह पता नहीं. खैर, इतना क्या सोचना उनके बारे में, कोई अपने घर की थोड़े ही थीं.

एक बात तो कहना भूल ही गया था. शर्म हर बार एक ही जैसी नहीं होती. यूं कि बम्बई वाले इस हमले के अगले दिन ‘युवा हिन्दू ह्रदय सम्राट राज ठाकरे’ ने देश को बताया था कि हमलावर सब भैयालोग, यानी उत्तर भारतीय थे. ऐसे कि जैसे उन महिलाओं में हुए हमले से ज्यादा दुःख और शर्म उन्हें इस बात की हो कि बम्बई में उत्तर भारतीय अब भी बचे हुए हैं. ऐसे भी जैसे अभी कुछ दिन पहले असम में ही एक गर्भवती विधायिका के ऊपर इसी तरह हुए हमले को लेकर पैदा हुई शर्म भी न तो देशव्यापी थी, न इतनी ज्यादा कि तमाम खबरिया चैनलों के ऐंकर्स रो रो पड़ें. हो भी नहीं सकती थी, आखिर को पहले एक विवाह तोड़ना और फिर एक मुस्लिम के साथ रहने के निर्णय की इससे कम कोई सजा बनती भी तो नहीं थी. वैसे अगर आपको उस हमले पर किसी ऐंकर के इतना दुखी हो जाने की बात याद हो तो कृपया मुझे भी बता दें.

ज्यादा शर्मिंदा तो हम तब भी नहीं हुए थे जब श्रीराम सेने ने बंगलौर में पब जाकर भारतीय संस्कृति को चुनौती देने वाली स्त्रियों को ठीक ऐसा ही वीरोचित सबक सिखाया था. या फिर वह सबक ठीक ऐसा नहीं था, उस बार तो मीडिया प्रमोद मुथालिक के साथ ही गया था कि ऐसी अभद्र लड़कियों को सुधारे जाने की प्रक्रिया अपने कैमरे में दर्ज कर सके. उस बार भी कुछ लोग शर्मिंदा हुए थे, मगर सारे लोग नहीं.

ठीक वैसे ही ‘सम्मान हत्यायों’ को लेकर सभी लोग दुखी नहीं होते. ठीक वैसे ही जैसे सीधे सीधे इन हत्यायों के समर्थन में न सही, इस मुल्क के तमाम ‘माननीय सांसद’ इन हत्यायों के लिए जिम्मेदार खाप पंचायतों के समर्थन में उतर आते हैं. अब इसका भी क्या करें कि उन ‘माननीयों’ में देश भर को ‘झंडा’ पकड़ा देने वाले नवीन जिंदल जैसे ‘युवाओं के आदर्श’ भी शामिल हैं. बात साफ़ है कि शर्म अपनी जगह है और संस्कृति (मतलब हमारी महान संस्कृति) अपनी जगह. और जो भी लड़कियां, जो भी लड़कियां, इस संस्कृति के खिलाफ जाने वाले काम करेंगी उनपर होने वाले हमले तो जायज ही हुए न.

पर इन सब बातों से आप कहीं यह न समझ लीजियेगा कि हमले केवल ‘ऐसी’ लड़कियों पर होते हैं. न भाई, हमला करने वालों को लड़कियों की उम्र, कपड़ों, जाति, धर्म किसी भी चीज से कोई फरक नहीं पड़ता. वे तो हरियाणा के ‘अपना घर शेल्टर होम’ में रहने वाली बच्चियों से लेकर हुगली के पुनर्वास केंद्र में रहने वाली मानसिक रूप से कमजोर युवतियों के साथ एक समान बलात्कार करते हैं. हाँ हमें तब ज्यादा शर्म नहीं आती. मतलब कुछ बेवक़ूफ़ तो शर्मिंदा होते ही होंगे पर ऐसी गरीब बच्चियों या मानसिक रूप से कमजोर (और गरीब) युवतियों के ऊपर हुए हमलों पर इतना भी क्या सोचना, क्या शर्मिंदा होना.

हम तब भी शर्मिंदा नहीं होते जब ‘मनचले’ (ध्यान दें कि अपराधी नहीं, सिर्फ मनचले) बसों में, सडकों में, ट्रेनों में और यहाँ तक की ‘देश की शान’ मेट्रो तक में लड़कियों के साथ ‘छेड़छाड़’ (फिर ध्यान दें, यौन हिंसा नहीं सिर्फ छेड़छाड़ जैसे कि लड़कियां छेड़े जाने का जवाब इन ‘मनचलों’ को ‘छाड़’ कर देती हों. अब यह छाड़ना क्या बला है मुझसे न पूछियेगा, मैं नहीं जानता. बाकी दिल्ली के किसी भी आम शहरी से पूछ लें).

पर अब यहाँ रुकिए और मुझे बताइये कि अगर ‘मनचलों’ को बसों में लड़कियों को ‘हाथ लगाने’ की इजाजत होगी तो फिर वो इससे ज्यादा मौका मिलने पर और आगे क्यों नहीं बढ़ेंगे? बाकी तब तक आइये, हम सब मिल कर शर्मिंदा हों, अपने अपने सर झुका लें और गुस्से से उबल पड़ें. आइये अपने गुस्से से फेसबुक भर डालने, चैनलों को एसएमएस पर एसएमएस भेज कर उनका राजस्व बढ़ाएं और फिर अपने अपने ऑफिसों से वापस घर जाते हुए ‘अन्यों’ द्वारा की जाने वाली छेड़छाड़ का ‘मजा लें’. प्रतिरोध करने वाली लड़कियों का कभी गलती से भी साथ न दें, और उन्हें बतायें कि ‘मैडम, भीड़भाड़ में इतना तो होता ही है’. या फिर यह कि ‘इतना सोचती हैं तो ऑटो ले लिया करिये मैडम’ या फिर यह कि ‘लेडीज कम्पार्टमेंट में क्यों नहीं बैठतीं.

और हाँ, अगली बार जब फिर कहीं कोई गुवाहाटी हो तो फिर शर्मिंदा हों, गुस्से से उबल पड़ें जैसे पिछली बार हुए थे.

Comments

  1. अंत को छोड़ कर लेख बहुत बढ़िया है. अंत आते आते जैसे सारा क्षोभ, सारा आक्रोश दिशा बदल कर उनलोगों के ही खिलाफ खड़ा हो गया, जो आप ही की तरह बेचैन हैं, हतप्रभ हैं. ऐसे समय जब इस कुकृत्य के समर्थन में भी आवाज उठने लगी हो, ऐसा अंत चाहे-अनचाहे यथास्थिति के साथ ही ले जाता है.

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  3. यही तन्त्र है, जो नस नस में घुस कर छील रहा है हम सब की सम्वेदना को और कुण्ठित करता रहता है. इस जनविरोधी दैत्य की धम्भी सत्ता से लड़ने का अर्थ इस तन्त्र की असलियत की पहिचान को लोगों तक पहुचाना है, वरना लोग तो किसी भी घटना के समय केवल इस या उस घटक को ही प्रत्यक्ष देख पाते हैं.समग्र दृष्टि देना ही वैचारिक लेखन का दायित्व है. इसी रूप में विचारधारात्मक लेखन की उपयोगिता है. और इस तरह के एक एक लेख को प्रचारित भी तो करना ही पड़ेगा.

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  4. लेख पर कुछ कहने को नहीं है, बस इतना ही कि मैं हर एक बात से सहमत हूँ.

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