जिनके लिए मानसून मौत का नाम है.


[दैनिक जागरण राष्ट्रीय संस्करण में 08-08-12 को प्रकाशित मेरे लेख का (जरा सा ) विस्तारित रूप ]

मानसून का मौसम हमारे मुल्क के लिए इन्तेजार का मौसम होता है. हो भी कैसे न, आज भी सिंचाई के लिए ज्यादातर बारिशों पर ही निर्भर ह मारी कृषिप्रधान अर्थव्यवस्था का भविष्य मानसून ही तय करता है. यूं मानसून सिर्फ किसानों के लियी ही नहीं बल्कि बीते दशक में हमारे मुल्क में कुकरमुत्तों की तरह उग आये खबरिया चैनलों के लिए भी बड़ी राहत लेकर आता है. इस महीने में उन्हें खबरें तलाशनी नहीं पड़तीं, न ही सास बहू मार्का टीवी सीरियल्स को खबर बनाना पड़ता है. यह महीना उनके लिए केरला में तैनात अपनी ओबी वैनों को मानसून के आते ही उसके पीछे दौड़ा देने का होता है.

मगर अफ़सोस, इसी मुल्क में तमाम जगहें ऐसी भी हैं जहाँ मानसून का जिक्र भर लोगों को अंदर तक सिहरा देता है. यूं तो इन लोगों की भी जिंदगी खेती, और इसीलिये मानसून, पर निर्भर है पर फिर भी इनके लिए मानसून बारिश का नहीं मौत का नाम है. इनकी रिहाइशॉन में मानसून कभी अकेला नहीं आता, वह हमेशा अपने साथ जापानी इंसेफ्लाइटिस और एक्यूट इंसेफ्लाइटिस नाम की बीमारियाँ, आम भाषा में दिमागी बुखार, लेकर आता है.

मानसून के साथ आने वाली इन दोनों बीमारियों ने बीते बरस सरकारी आंकड़ों के मुताबिक़ 1358 बच्चों की जान ली थी. केन्द्रीय सरकार के स्वास्थ्य राज्य मंत्री सुदीप बंदोपाध्याय ने राज्यसभा में पूछे गए एक सवाल के जवाब में 15 नवंबर 2011 को माना था कि उस तारीख तक 884 बच्चों की जान जा चुकी थी, और इनमे से 501 तो अकेले उत्तर प्रदेश से ही थे. इस निर्मम स्वीकारोक्ति बाद उन्होंने बीमारी को रोकने के लिए कदम उठाने के दस्तूरी वादे किये, इसकी रोकथाम के लिए स्वदेशी टीका विकसित करने की घोषणा की और दावा किया की फरवरी तक यह टीका सभी प्रभावित इलाकों में पंहुच जाएगा. बस यह कि ऐसा कुछ हुआ नहीं और इस साल फिर यह बीमारी फिर मौत बरसा रही है.

आसानी से रोकी जा सकने वाली एक ऐसी बीमारी जिसका टीका भी है हर साल इतने बच्चों की जान ले ले यह बात अपने आप में इस देश के हुक्मरानों को शर्मसार करने के लिए काफी होनी चाहिए. या सिर्फ शर्मनाक नहीं बल्कि आपराधिक है. साफ़ है कि ये बच्चे मर नहीं रहे हैं, इनकी हत्या हो रही और इन हत्यायों के लिए टीकाकरण और समुचित चिकित्सकीय व्यवस्था उपलब्ध करा पाने में नाकाम प्रदेश और केंद्र सरकार जिम्मेदार हैं.

सबसे बुरा तो यह कि यह कोई नयी समस्या नहीं है. मस्तिष्क ज्वर के यह दोनों रूप तीन दशक से ज्यादा से कहर बरपा रहे हैं. और अगर सबसे अनुदार अनुमानों को भी माना जाय तो बीते 34 सालों में इनका शिकार हुए बच्चों की संख्या 34000 से भी ऊपर है. अनुदार इसलिए कि यह आंकड़े सिर्फ अस्पतालों में दर्ज मौतों के आधार पर बनाए गए हैं. जिन बच्चों को अस्पताल पंहुच पाने तक का मौका नहीं मिला उनकी मौतें इन आंकड़ों तक से खारिज हैं. अनुदार इसलिए भी कि इन आंकड़ों में इस महामारी के शिकार गांवों की दुर्गम परिस्थितियों के लिए कोई जगह नहीं है. इसीलिये, सामाजिक और स्वास्थ्य कार्यकर्ता मानते हैं कि दिमागी बुखार ने इस देश में कम सेकम 50000 बच्चों की बलि ली है और फिर यह कि यह आंकड़ा भी उदार अनुमान ही है.

स्थिति की भयावहता का अनुमान इससे लगाया जा सकता है कि इतनी मौतें तब भी हो रही हैं जब सिर्फ इस बीमारी पर नजर रखने और उसकी रोकथाम के लिए सरकारों के पास 54 ‘सेंटीनेल’ और 12 ‘अपेक्स रेफरल लेबोरेटरीज’ जैसे संसाधन मौजूद हैं. यह तंत्र कितना प्रभावी है इसका पता इसी बात से चल जाता है कि केवल इस साल मरने वाले बच्चों की संख्या 700 के पार तब जा पंहुची है जबकि सितम्बर महीना यानी इस बीमारी का चरम दौर काफी दूर है. इस तंत्र के बावजूद यह बीमारी इतने बच्चों की बलि क्यों ले लेती है इस सवाल का जवाब खोजें तो बस यह मिलेगा कि सरकारी बेपरवाही, निष्क्रियता और उदासीनता है.

बीमारियों पर नियंत्रण करने के सभी सरकारी प्रयास तो असफल नहीं होते. इतिहास गवाह है कि सरकारों ने चाहा है तो बीमारियों पर नियंत्रण ही नहीं उन्हें लगभग समूल नष्ट भी कर दिया है. सबूत के बतौर पिछले दशक के मध्य में दिल्ली में डेंगू के प्रकोप को देखा जा सकता है. सरकार को न तो डेंगू पर नियंत्रण करने में ज्यादा वक्त लगा न ही और उसके बाद इसकी रोकथाम में. लगातार चलाये जाने सफाई अभियान हों या मच्छर पनप सकने की संभावना वाली किसी भी जगह पर नजर रखने वाले सरकारी दस्ते, डेंगू को लेकर सरकार की गंभीरता और राजनैतिक इच्छाशक्ति साफ़ दिखाई देती है.

दिल्ली में डेंगू को लेकर इतनी गंभीर सरकार फिर गोरखपुर, देवरिया या कुशीनगर जैसे इलाकों में दिमागी बुखार के प्रति निर्ममता की हद तक उदासीन क्यों हो जाती हैं? क्या यह जगहें भारतीय गणतंत्र का दिल्ली से कम हिस्सा हैं या इनमें रहने वाले लोग दिल्ली और अन्य महनगरों में रहनेवालों से ‘कम नागरिक’ हैं? अगर नहीं तो महानगरों की स्वास्थ्य सुरक्षा को युद्ध स्तर पर लेनी वाली सरकारें पिछड़े इलाकों के प्रति आपराधिक रूप से लापरवाह क्यों होती हैं?

सरकारें उदासीन हों भी तो सवाल बनता है कि राष्ट्रीय मीडिया इस विषय को गंभीरता से क्यों नहीं लेता? बेशक मीडिया इस विषय को उठाता है, सबूत के लिए इस लेख में इस्तेमाल किये गए ज्यादातर आंकड़े मीडिया में आई खबरों से ही लिए गए हैं. हाँ इस मसले को लेकर मीडिया एक बनेबनाये खांचे में काम करता दीखता है. बीमारी का प्रकोप फैलने के साथ ही स्थानीय मीडिया में ख़बरें आती हैं, राष्ट्रीय मीडिया में एकाध सम्पादकीय और खबरिया चैनल एकाध कार्यक्रम प्रसारित कर देते हैं. और उसके बाद वह खामोशी जो अगले साल फिर इसी प्रक्रिया से टूटती है बस पीडितों के बदले नामों के अलावा मौत के प्रेक्षागृह तक वही रहते हैं.

मीडिया की उदासीनता इसलिए भी अखरती है कि यही मीडिया हर अन्याय के प्रति ऐसे ही उदासीन नहीं होता. साल दर साल कहर बरपाने वाले दिमागी बुखार की रिपोर्टिंग की तुलना ‘जस्टिस फॉर जेसिका’ जैसे मीडिया अभियानों या दिल्ली के बलात्कार राजधानी में बदलते जाने को लेकर मीडिया के गुस्से से करें और फर्क साफ़ नजर आता है. इन सारे मामलों पर मीडिया शुरुआती खबरनवीसी के बाद चुप नहीं बैठा था. उसने जनता के गुस्से को आवाज दी थी और हुक्मरानों को कदम उठाने पर मजबूर कर दिया था. यही उचित भी था क्योंकि क़ानून के शासन वाले किसी भी देश में न्याय हर नागरिक का धिकार होता है और लोकतंत्र के चौथे खम्भे के बतौर मीडिया की जिम्मेदारी है कि वह बुनियादी अधिकारों पर ऐसे घृणित हमलों के खिलाफ पूरी ताकत से लड़े, उनके खिलाफ राष्ट्रीय चेतना पैदा करे.

पर फिर जापानी इंसेफ्लाइटिस पर ऐसी खामोशी क्यों? वह इसके लिए जिम्मेदार अधिकारियों या सरकारों के खिलाफ अभियान क्यों नहीं चलाता? खबरिया चैनल इस विषय पर ऐसी पैनल चर्चाएं क्यों नहीं आयोजित करते जिनसे अपने घरों में आराम से बैठे मध्यवर्ग को स्थिति की भयावहता का अंदाजा लग सके. शासक तो गरीब और उत्पीड़ित तबकों को भूलते ही हैं, पर क्या हम मीडिया से भी यही उम्मीद कर सकते हैं? ठीक है कि इस बीमारी के ज्यादातर शिकार नए मीडिया के ‘ग्राहक’ नहीं हैं, उसके अपने वर्ग के नहीं हैं पर फिर कहीं दूर सीरिया में हो रही मौतों से प्रभावित होने वाले मीडिया को अपने देश के बच्चों को लेकर भी चिंतित होना ही चाहिए.

ऐसा क्यों नहीं होता इस सवाल के जवाब उन बुनियादी दोषों में छिपे हैं जो हमारे देश के त्रुटिपूर्ण लोकतंत्र को परिभाषित करती हैं. वे गैरबराबरी के उस आधारभूत ढाँचे में मिलते हैं जो ऊंचनीच पर आधारित उस सामाजिक श्रेणीबद्धता को जन्म देती है जो अपने ही समाज के ‘निचले’ पायदानों पर खड़े लोगों को मानवीय गरिमा से खारिज और इसीलिए सहज त्याज्य मानती है. दिमागी बुखार ही नहीं, ऐसी तमाम बीमारियों से मारे जाने वाले लोग इस व्यवस्था के लिए इंसान ही नहीं हैं. उनकी जिंदगियां बेहद सस्ती हैं. श्रम के अलावा उनके जीवन में ऐसा कुछ नहीं है जिसकी भविष्य की महाशक्ति भारत को जरूरत है.

अफ़सोस, हमारे जैसी जनसँख्या वाले देश में कुछ हजार लोगों के मर जाने से श्रम की उपलब्धता पर भी तो कोई फर्क नहीं पड़ता. मर गए लोगों की जगह लेने को लोग सदैव उपलब्ध हैं. शासकों के लिए या लोग नहीं सिर्फ जनसँख्या हैं और फिर उन्हें तो हमेशा से ही बताया गया है कि जनसँख्या इस देश की सबसे बड़ी समस्या है. फिर जो लोग जनसँख्या हैं वो समस्या ही हुए और उनके मर जाने से फिर किसी को क्यों दिक्कत होनी चाहिए? शायद यही वजह है कि उत्तर प्रदेश जैसा 'गरीब' राज्य भी इस बीमारी के मद में 18 करोड़ देने का मजाक करते हुए एक पार्क पर 685 करोड़ रुपये खर्च कर सकता है.

परन्तु मानव जीवन के ऐसे आपराधिक अपमान के बावजूद ऐसी खामोशी, सामुदायिक आक्रोश की ऐसी अनुपस्थिति के पीछे के कारण समझ लेने भर से कोई भी दोषमुक्त नहीं हो जाता. हमारे नौनिहालों की हर बरस हो रही इन हत्यायों के लिए हम सब जिम्मेदार हैं. मीडिया, नागरिक समाज, सरकार और यहाँ तक की हम भी, जो सब देखते हुए भी चुप है.

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