आज अखबारों में कितना कुछ था.


आज अखबारों में कितना कुछ था. कोयले की खदानों में अवाम की गाढ़ी कमाई को लूट कांग्रेस का बनाया मोटा माल था. इस मोटे माल को पहचानने वाली परम ईमानदार बेलारी वाले रेड्डी बंधुओं की भाजपाई माँ सुषमा स्वराज थी. सबसे गरीब मजदूर की खरीदी माचिस तक से काटे गए टैक्स की चोरी पर जवाब देने की जगह शेर पढता घुन्ना प्रधानमंत्री था. भाजपा को करारा जवाब देने की घोषणाएं करती सोनिया गांधी थीं. कभी सिर्फ कांग्रेसी लुटेरों को पहचानने वाली टीम अन्ना का भाजपा कांग्रेस दोनों पर चढाई करता बचा खुचा हिस्सा था. इस बचे खुचे हिस्से से भी बच गयी, भाजपा को बेहतर बता रही पूर्व पुलिस अधिकारी थीं.

पर समाज में तो कितना कुछ और भी था जिसको इन अखबारों के भीतर के पन्नों में बॉक्स भर की जगह न मिलनी थी. जैसे बलात्कारी सुशासन वाले नीतीशिया राज में गैंगरेप का शिकार हुई लड़की के अपराधियों का जिक्र. जैसे ‘सिविल सोसायटी’ के काफिलों की राहों में न पड़ने वाले फारबिसगंज में अल्पसंख्यकों की हत्या कर उनकी लाश पर कूदने वाले ‘बहादुर सिपाहियों’ को सजा मिलने का जिक्र. जैसे उसी ‘सुशासन’ के कारिंदों द्वारा पत्रकारों को आफिस में अधमरा कर देने का जिक्र. जैसे सारी जिंदगी अवाम को बेहतर कला देने में खपा देने वाले ए के हंगल की अंतिम यात्रा में सत्यमेव जयते मार्का आमिर खानों तक के न पंहुचने का जिक्र.

जैसे 1894 में सिखों के नरसंहार का नेतृत्व करते जगदीश टाइटलरों और सज्जन कुमारों के अब भी माननीय होने का जिक्र. जैसे कांग्रेस के राज में मेरठ के हाशिमपुरा में मुसलमानों को मार के नहर में फेंक देने के जिम्मेदार लोगों को सजा का जिक्र. जैसे गुजरात में हुए नरसंहार के मुख्य आरोपी के अब तक माननीय मुख्यमंत्री बने रहने का जिक्र. जैसे उन्ही भगवा हत्यारों द्वारा उड़ीसा के कंधमाल में ईसाई आदिवासियों के जनसंहार का जिक्र.

जैसे यौन अपराधियों द्वारा तेज़ाबी हमले से झुलस गए चेहरे और और जिंदगी वाली सोनाली का जिक्र. जैसे उन अपराधियों को न्याय दिलाने के लिए अब तक लड़ रही इस बहादुर लड़की की मांगो को अनसुना करते आए और फिर भी देश के कर्णधार बने बैठे खादी वाले धवल कुर्तों का जिक्र. जैसे महाशक्ति बनने का सपना देखते और फिर भी अमरीकी साम्राज्यवाद के सामने बिछ बिछ जाते हमारे जैसे देशों के दौर में जूलियन असांज को शरण दे उपनिवेशवाद को आख़िरी चुनौती देते इक्वाडोर का जिक्र. 

जैसे देश के 42 प्रतिशत बच्चों के कुपोषण का शिकार होने को राष्ट्रीय शर्म बताने वाले उस चुप्पे प्रधानमंत्री द्वारा कोई कदम न उठाने का जिक्र. जैसे अपने शपथ ग्रहण में भूख से बड़ा कोई अपमान न होने की बात कर चैन से सो जाने वाले राष्ट्रपति का जिक्र. जैसे निर्दोष आदिवासियों को नक्सली बता मार दिए जाने पर सिर्फ ‘सॉरी’ कहने वाले पूर्व गृहमंत्री का जिक्र. जैसे दशक भर से ज्यादा से लड़ रही इरोम चानू शर्मिला का जिक्र. जैसे ‘राष्ट्रीय ग्रीन ट्रिब्यूनल’ द्वारा महेश्वर बाँध में 154 मीटर की ऊंचाई तक पानी भरने के आदेश के बाद वहाँ के विस्थापितों द्वारा जल समाधि ले लेने के फैसले का जिक्र.

पर इससे यह न समझ लीजियेगा कि इन इनका जिक्र कभी आया ही नहीं. जिक्र तो आया है, बाजाप्ता आया है. अखबारों ने रस्म अदायगी में कभी कमी नहीं बरती है. उनका जिक्र दिल्ली में अपने हक के लिए लड़ने पंहुचे लाखों मजदूरों की वजह से दिल्ली में हुए ट्रैफिक जामों की वजह से भी आया है और उसके उलटे एक दिन सोनाली के लिए टेसुए बहाते सरोकारी पत्रकारों के रस्मी गुस्से की वजह से भी आया है. बस यह कि सास बहू मार्का सीरियलों की कहानियों पर टनों कागज खर्चा करने वाले अखबारों को इन कहानियों को ‘फोलो’ करने का ख्याल कभी नहीं आया. आये भी क्यों, आज के मीडिया के ग्राहक दूसरे हैं. उन्हें पता है कि सुबह की चाय के साथ अखबार पढते अपने मध्यवर्गीय ग्राहकों  को ‘निगेटिव’ न्यूज देना भारी भी पड़ सकता है. फिर सरोकारों का, सच का, समयों का करना भी क्या है अगर ये ग्राहक और उनसे आने वाले विज्ञापन न हुए तो?

पर फिर यह तय कौन करता है कि किसकी ख़बरें ख़बरें है और किसकी ख़बरें फूटनोट? कौन तय करता है कि किन ख़बरों का फालोअप करना हैं और किन्हें एक कोलम में दफ़न कर देना है? क्या शहर दर शहर खरपतवार से उग आये पत्रकारिता के संस्थान सिखाते हैं अपने विद्यार्थियों को कि ख़बरों का मतलब ग्लैमर है, मध्यवर्ग है चलो अमेरिका वाले सपने हैं? और उनमे से कुछ सिखाते भी हों तो कभी मिशन समझे जाने वाले इस पेशे में आ रहे नए रंगरूटों को क्या हो जाता है कि वह मान भी लेते हैं? कहाँ से प्रेरणा मिल रही है उन्हें? बरखा दत्तों से? वीर सांघवियों से? नीरा राडियों से? या अपराधियो को, धोखेबाजों को सजा देने में रोज असफल हो रहे अपने समाज से? राडियागेट के इतने बरस ब आद भी रोज नैतिकता पर प्रवचन देती बरखा दत्त का 'आदर्श' बन जाना शायद लाजमी ही है. 

ऐसे आदर्शों से, मगर, न अखबार चलते हैं न समाज.  बस उन्हें ये पता नहीं होता कि जिक्र रोक देने से न लोग गायब हो जाते हैं न उनकी जिंदगियों की जद्दोजहद. और जिक्र तक से खारिज ये लोग उनसे बहुत ज्यादा हैं जिन्हें अखबार अपना ग्राहक समझते हैं. ऐसे में धीरे धीरे एक चीज छीज जाती है, वह चीज जिसका नाम विश्वास है. और विश्वास खो गया तो लोकतंत्र का चौथा खम्भा होने का दर्प सत्ता के महल के पाए में बदल जाने की शर्म में तब्दील हो जाता है.  

Comments

  1. आपका भी अपना एक माईंड सेट है,लिखने की एक हथौटी है .....निकलती धारदार सतरें हैं .......बनाये रखिये !

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  2. @अरविन्द मिश्र..
    विश्वदृष्टि कह लें, नजरिया या परिप्रेक्ष्य.. होती तो है ही न..

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