बचपन का त्यौहार
थी दीवाली. दिए अच्छे लगते थे पर जान तो पटाखों में ही बसती थी और उनमे भी सबसे ज्यादा हरे 'एटम बम' (शहरी हो जाने के पहले के उन दिनों में उच्चारण बम्ब होता था ) और कसबे के आतिशबाज से लाये उन सुतली
बमों में जिनकी आवाज पर आज तक कोई और आवाज भारी नहीं पडी. उन बमों के इस्तेमाल भी
तमाम होते थे. आख़िरी, पर सबसे प्रिय, काम होता था बीतती रात के साथ कम होते जा रहे
सुतली बमों से बहनों के बड़ी मेहनत से बनाए घरौंदों को उड़ा देना. अब फिर कस्बाई
सामाजिकता में जिसमे अपनी बहनें ही नहीं बल्कि मोहल्ले की सारी लड़कियां बहनें होती
थीं, घरौंदे कम नहीं पड़ते थे बस बम ख़त्म हो जाते थे. फिर सुबह होती थी और बहनों का रोना. एकाध बार
माँ से पिट जाना भी हो जाता था पर वो बस एकाध बार ही होता था बाकी तो उन्हें चुप
होने की सलाहें ही होती थीं, घरौंदा ही तो था की डाँट के साथ.
बहनों के घरौंदे उड़ा कर खुश
होने वाले उन समयों में पितृसत्ता के बारे में कहाँ पता था. इसका भी कि इन तमाम
त्यौहारों का कितना करीब का रिश्ता है उस व्यवस्था को बनाए और बचाए रखने में. पितृसत्ता
की हमारी कक्षाएं तो पैदा होने के साथ ही शुरू हो जाती थीं शायद, तबसे जब हमें
बोलना भी नहीं आता था पर अपनी ही बहन का घरौंदा उड़ा देने वाली हिंसात्मक पितृसत्ता
से सीधी मुठभेड़, या आत्मसाक्षात्कार का बायस दीवाली ही बनती थी. हाँ, यह तब खटकता
नहीं था.
खटकता तो शायद और भी बहुत
कुछ नहीं था. जैसे यह कि और तमाम त्योहारों के मुकाबले दीवाली बहुत आभिजात्य, बहुत
दिखावे वाला, और उत्सवधर्मिता को खारिज करने की हद तक निजी त्यौहार है. न तो इसमें
वह गंगाजमनी सामाजिकता है जिसमे पूरा का पूरा क़स्बा होली में एक दूसरे के साथ खुशी
बाँटते रंग लगाते बह जाता है न वह गर्मजोशी जो ईद में लगभग अजनबियों को भी गले
लगाते हुए महसूस होती थी. इन सबके उलट दीवाली इस सामाजिकता को बांटने वाला, लोगों
को उनके सबसे छोटे घेरे में ले जाने वाला त्यौहार ही है, बस तब समझ नहीं आता था अब
समझ आता है. वाली अब भी याद है कि कस्बों की वर्गीय आधार पर मिली जुली बसावटों में
दीपावली रईसी की दिखावट के साथ साथ गरीबों को मुंह चिढ़ाने का सबसे बढ़िया वक़्त होता
था. बात पर थोड़ी भे असहमति हो तो गई रात तक मंहगे पटाखे फोड़ते बच्चों को सूनी
आँखों से देखते गरीब बच्चों को याद करिए और सोचिये की क्या यह दिवाली का सबसे आमफहम
दृश्य नहीं है?
हाँ, दिवाली के ठीक अगले
दिन आने वाले ‘परुआ’ की बात और होती थी. वह दिन जो ‘हिन्दू पंचांग का शायद सबसे अशुभ
दिन माना जाता है. इतना अशुभ कि माँ तक बताती थी की इस दिन कलम पकड़ना तक पाप होता
है. (इसीलिये तब के बाल-विद्रोही समर बाबू और किसी दिन अपने मन से पढ़ें लिखें या न
पढ़ें लिखें, इस दिन वह पढ़ते भी थे और लिखते भी.) ऐसा दिन जिसमे कस्बे की सारी
दुकानों पर ताले लटके होते थे और बाजार में शमशानी सन्नाटा पसरा होता था. अब चूंकि
कस्बों में दैनिक दिनचर्या से अलग कुछ करने को कोई ख़ास काम होते हैं न घूमने जाने
को पार्क/माल, सो बंद दुकानों वाली सारी भीड़ कस्बे की दो टूरिंग टाकीजों में जमा
हो जाती थी. कमाल यह की उस दिन यह भीड़ फिल्म के परे जाकर फिल्म देखती थी, फिल्म
कोई भी हो, चारों शो हाउसफुल जाने ही जाने हैं. मुझे अब भी लगता है की मेट्रो,
महानगरीय हिन्दुस्तान में दीवाली ‘बम्पर कलेक्शन’ का दिन हो, मुफस्सिल हिंदुस्तान
में यह तमगा ‘अशुभ’ परुआ ही ले जाता होगा. वैसे परुआ अशुभ क्यों होता था ये आज तक
पता नहीं चला.
खैर, जिन्दगी के सफ़र में वो
बचपन वाली दीवाली तो न जाने कब खो गयी. और अच्छा ही हुआ कि खो गयी, न खोती तो आज
भी न समझ आया होता की सम्मान हत्यायों की मंजिल तक पंहुचने वाले सफ़र की शुरुआत
बहनों के घरौंदे उड़ाने से ही होती थी. उस खोयी दीवाली की याद मगर अक्सर आ जाती है.
तब जब उल्लू पर बैठ के आने वाली लक्ष्मी की कपोल कल्पनाओं की बधाई कोई दोस्त दे
जाए, तब जब अब बड़ी हो गयी बहन अपने बच्चे को पटाखे दिलाये और वही पूजा करती मिले
जो माँ करती थी. तब जब फेसबुक वाइरल बधाईयों की बाढ़ से बह सा जाए.
और तब जब आप दिवाली के दिन
भी ऑफिस में काम करते हुए देख/सुन पा रहे हों क्योंकि आप जिस मुल्क में हैं वहां
दिवाली पर कोई छुट्टी नहीं होती. वह भी तब जब उस मुल्क में ‘40000’ से ज्यादा हिन्दू रहते हों.
काश अपने वतन के धर्मध्वजाधारी देख पाते यह, और समझ पाते की न तो बहुसंख्यक होने
का सुख सिर्फ उनका है न अल्पसंख्यक होने की त्रासदी उनके चुने हुए दुश्मनों की.
तब तक एक आत्म स्वीकार-- नास्तिक
हो चुके होने के बाद की यह पहली दीवाली है जिस पर घर, दोस्त, वतन सब बहुत याद आये.
त्यौहार की वजह से नहीं, बस सिर्फ इसलिए कि इस बार दीवाली को दूर से, लगभग
निस्पृहता से देखने को मजबूर था. उस शहर के अकेलेपन से जिसमे पटाखे फोड़ने को भी
पुलिस की परमीशन लेनी पड़ती है (और वह मिलती नहीं.) कल्पना करिए ऐसे शहर की, अपने
मुल्क के बरक्स जहाँ भगवा और हरे दोनों तरफ के बमबाज बम विस्फोट के लिए भी किसी की
इजाजत नहीं लेते.
लो जी फिर आ गया 'बाल दिवस' - ब्लॉग बुलेटिन बाल दिवस की हार्दिक बधाइयाँ और शुभकामनाएं स्वीकार करें ... आज की ब्लॉग बुलेटिन मे आपकी पोस्ट को भी शामिल किया गया है ... सादर आभार !
ReplyDeleteयहाँ देश से दूर बैठे हम अपने ही देश में होने का अहसास जबरदस्ती करने पर तुले रहते हैं. लन्दन में रहना एक साफ़ सुथरे और थोड़े से सभ्य हिन्दुस्तान में रहना जैसा ही है. यहाँ पटाखों पर भी कोई पाबन्दी नहीं न इजाजत की जरुरत है...फिर भी ...कहीं कुछ है ...जो अपने देश जैसा नहीं है..शायद आपकी आखिरी पंक्ति..
ReplyDeleteबहुत कुछ गुजर गया नजरों के सामने से.
"बहनों के घरौंदे उड़ा कर खुश होने वाले उन समयों में पितृसत्ता के बारे में कहाँ पता था."
ReplyDeleteबहुत अच्छे और व्यावहारिक उदहारण के साथ पितृसत्ता के बारे में बताया है कि ये बचपन से ही हमारे भीतर घर कर जाती है |
सादर
ढेर सारे सवाल, जैसे आपके पोस्ट में अक्सर रहते हैं. ज़रूरी क्यूं हो कि हर विचार से सहमति या असहमति ही व्यक्त किया जाय. सुन्दर पोस्ट..अच्छा लगा पढ़ कर. घटनाओं का सुन्दर विवरण, बांकी विश्लेषण हम खुद ही कर लेंगे. :) दीपावली की हार्दिक शुभ कामना.
ReplyDelete"हम तो हैं परदेश में ,देश में निकला होगा चांद " घराने का दरद है इसमें तो।
ReplyDeleteयहाँ मेरी टिप्पणी नहीं दिखा रही ... स्पैम देखिएगा
ReplyDelete@संगीता स्वरुप जी-- क्षमा चाहता हूँ पर स्पैम में भी नहीं दिखी. संभव हो तो फिर से लिख दें, आपकी राय जानना ही चाहूँगा.
ReplyDeleteसादर
अपना देश,अपने लोग ऐसे में बहुत याद आते हैं 1
ReplyDeleteदिवाली में अमीरी-गरीबी साफ़ दिखती है लेकिन घर दोनों के ही रौशन होते हैं. चाहे मिट्टी के दियें से हो या जगमग करती इलेक्ट्रिक जुगनुओं से हो.....
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