जिस मुल्क का सैन्य बजट बाकी की पूरी दुनिया के
सैन्य बजट के लगभग आधे के बराबर हो, जिसकी सेना कम से कम 46 देशों में फैले 900 से ज्यादा सैन्य केन्द्रों
में सक्रिय रूप से उपस्थित हो और जिसका घोषित लक्ष्य सारी दुनिया का ‘फुल
स्पेक्ट्रम डोमिनेन्स’ हो, उसके राष्ट्रपति के चुनाव में बाकी सारी दुनिया की दिलचस्पी
स्वाभाविक ही है. यह भी की उसका एक बड़ा हिस्सा आक्रामक तेवर वाले रिपब्लिकन मिट
रोमनी के ऊपर डेमोक्रेट बराक हुसैन ओबामा के दुबारा राष्ट्रपति चुने जाने पर राहत
की सांस ले. पर फिर, सवाल यह है की ओबामा की इस जीत के निहितार्थ क्या हैं?
यही वह सवाल है जिसका जवाब वह परतें खोलता है जो
अमेरिकी राष्ट्रपति चुनाव को अद्भुत अंतर्विरोधों का सामंजस्य बनाता है. पहला यह
कि अमेरिकी चुनाव अपने मूल चरित्र में एक नहीं बल्कि दो बिलकुल अलग अलग चुनाव है
और दो बिलकुल अलग जगहों पर लड़ा जाता है. इनमे से पहला मोर्चा है अमेरिका की विदेश
नीति और उस पर अमेरिकी चुनावों का प्रभाव. इसका दूसरा मोर्चा उनकी अपनी सीमाओं के
अन्दर खुलता है और चुनाव के बाद आने वाले नीतिगत परिवर्तनों का आम अमेरिकी
नागरिकों पर प्रभाव इस मोर्चे का सबसे जरूरी सवाल होता है. दूसरा अंतर्विरोध यह भी
है कि इन दोनों मोर्चों की अंतर्सबंधीय परस्परता का एक बहुत छोटा सा हिस्सा छोड़
दें तो इनका आपस में कोई रिश्ता नहीं होता.
पहले मोर्चे को ध्यान से देखें तो अमेरिकी
राष्ट्रपति चुनावों में में किसी भी पार्टी या व्यक्ति की जीत अमेरिका की विदेश
नीति और उससे गहरे रूप से जुडी सैन्य नीति पर कोई ख़ास प्रभाव नहीं डालती. हकीकत यह
है कि अमेरिकी विदेश नीति और उससे जुड़ी घरेलू नीतियाँ दशकों पहले से वहाँ के
राजनैतिक नेतृत्व के हाथ से निकल कर सैन्य-औद्योगिक संकुल ( मिलिटरी इंडस्ट्रियल
काम्प्लेक्स) के नाम से जाने जाने वाले उस हित समूह के पास चली गयी हैं जिसके
कुप्रभावों के बारे में अमेरिका के पूर्व राष्ट्रपति ड्वाइट डी आइजनहावर ने 1961 में अपना पद छोड़ते हुए ही
आगाह कर दिया था. आइजनहावर की चिंता और चेतावनी दोनों साफ़ थी कि अगर इसके प्रभाव
को रोका या कम से कम संतुलित नही किया गया तो अमेरिकी नीतियाँ सिर्फ और सिर्फ इसी
संकुल के प्रभाव में बनेंगी और चलेंगी.
तब से अब तक के पांच दशकों में यह चेतावनी लगभग
सभी अर्थों में इस हद तक सही साबित हुई है कि रिपब्लिकन और डेमोक्रेटिक पार्टी के
बाद सेना को अमेरिकी राजनीति का तीसरा खम्भा माना जाने लगा है. राजनीति में सेना की स्थिति का अंदाजा
इस बात से भी लगाया जा सकता है कि परिवर्तन की, असैन्यीकरण न सही कम से कम अपने
जवानों को घर वापस लाने की राजनीति करने वाले ओबामा को भी अमेरिकी हितों की रक्षा
के लिए ‘बहुत मजबूत’ सेना रखने की जरूरत पर बल देना पड़ता है.
मतलब साफ़ है कि निकट
भविष्य में विदेशी जमीनों पर मौजूद अमेरिकी सैनिकों के बैरकों में लौट जाने के
ख्वाब देखने वाले वास्तविकता से उतनी ही दूर हैं जितना अरब बसंत के बाद तमाम अरब
देशों में लोकतंत्र आ जाने की ख्वाहिश वाले लोग थे. हाँ, ओबामा की जीत इस मायने
में महत्वपूर्ण जरूर है कि अब ईरान और उत्तर कोरिया जैसे देशों में संयुक्त
राष्ट्र संघ को धता बताते हुए अमेरिकी दखल का खतरा जरूर कम हो गया है और इस मामले
में भी की पाकिस्तान जैसे देशों में जहाँ अमेरिका गैर-राज्य शत्रुओं से छाया युद्द
में उलझा हुआ है वहां स्थिति और गंभीर नहीं होगी. आखिरकार ड्रोन हमले लोकतंत्र के
हित में हों या न हों, ओबामा के पूर्ववर्ती रिपब्लिकन राष्ट्रपति जार्ज बुश जूनियर
की कारपेट बोम्बिंग से कम हिंसक तो हैं ही.
यह अमेरिकी चुनाव का दूसरा, घरेलू मोर्चा है जिस
पर एक तरफ लगातार गहराती आर्थिक मंदी के कुप्रभावों से जूझ रहे वंचित अमेरिकियों और
दूसरी तरफ अस्मितागत पहचानों जैसे अश्वेत, हिस्पैनिक, समलिंगी, अकेली या बिनब्याही
माओं का तबका है जिसके लिए ओबामा की जीत बड़ी राहत बन कर आयी है. इनमे से पहला तबका वह है जिसके लिए रिपब्लिकन
पार्टी और उसके लिबर्टेरीअन
(इच्छास्वातंत्र्यवादी) खेमे का प्रतिनिधित्व करने वाले मिट रोमनी की जीत उनके
ताबूतों में आखिरी कील साबित हो सकती थी. आर्थिक मंदी के फलस्वरूप बड़े स्तर पर
अपने कर्जे के घर खो चुके इस तबके के लिए लगातार मंहगी और पंहुच के बाहर होती जा
रही बुनियादी सेवाओं को बचाना सबसे बड़ी लड़ाई थी. और वे साफ़ देख पा रहे थे की सभी,
ख़ास तौर पर गरीब, अमेरिकियों को सस्ती और सुनिश्चित स्वास्थ्य सेवाएँ उपलब्ध कराने
के उद्देश्य वाली ओबामा की महत्वाकांक्षी ‘रोगी सुरक्षा एवं वहनयोग्य देखभाल
(पेशेंट प्रोटेक्शन एंड अफोर्डेबल केयर एक्ट) और चिकत्सकीय देखभाल एवं शिक्षा
सामंजस्य एक्ट (हेल्थ केयर एंड एजुकेशन रिकोंसिलियेशन एक्ट) अमेरिकियों की सामाजिक
सुरक्षा के स्वास्थ्य पहलू को सुनिश्चित करने में बड़ी भूमिका निभा सकती है.
इन
कानूनों का सबसे महत्वपूर्ण पहलू यह था की इनके लागू होने के बाद बीमा कम्पनियां
बीमारियों की दृष्टि से उच्च-जोखिम माने जाने वाले समूहों को न तो बीमा देने से
इनकार कर सकती थीं न ही वे इनसे अतिरिक्त प्रीमियम उगाह सकती थीं. इसीलिये इन
कानूनों के पास होने का सीधा प्रभाव इन कंपनियों के फायदे पर पड़ना था और फिर लाजमी
था की वह इस सार्वभौमिक स्वास्थ्य योजना का तीखा विरोध करें और इसे पारित होने से
रोकने के लिए अपनी पूरी ताकत झोंक दें. मुक्त बाजार एवं कम से कम सरकारी हस्तक्षेप
की समर्थक होने की वजह से ऐतिहासिक रूप से अमीरों की हितपोषक समझे जानी वाली
रिपब्लिकन पार्टी का इन कानूनों का विरोध करना भी लाजमी ही था, मगर यह किसी ने
नहीं सोचा होगा कि इस विरोध में रोमनी 47 प्रतिशत अमेरिकियों को राज्य-पराश्रित
और परजीवी घोषित करते हुए अपनी जीत की स्थिति में इन कानूनों को वापस लेने की
घोषणा कर देंगे. वह भी तब जब अमेरिका के सर्वोच्च न्यायालय ने इन कानूनों के
संविधान-असम्मत होने के उनके तर्क को खारिज करते हुए ओबामा को इन्हें लागू करने की
इजाजत दी थी.
इस
तबके के ओबामा पर यकीन में जो थोड़ा संशय रह भी गया होगा वह अमेरिकन इतिहास की सबसे
बड़े और विनाशकारी प्राकृतिक आपदाओं में से एक हरीकेन सैंडी ने आकर दूर कर दी. इस
तूफ़ान की लायी तबाही से जूझ रहे अमेरिकी गरीबों की स्मृतियों में न्यू ओरलियंस में
आये हरीकेन कैटरीना से निपटने में रिपब्लिकन जार्ज बुश की लगभग आपराधिक अक्षमता भी
ताजा थी और यह समझ भी की ऐसी आपदाओं से निपटने के लिए एक सक्षम और सक्रिय
केन्द्रीय सरकार की जरूरत होती है न की ऐसी सरकार की जो अपना हस्तक्षेप कम से कम
करने और सब कुछ बाजार पर छोड़ देने में यकीन करती हो.
पर
रिपब्लिकन मिट रोमनी की जीत के कुप्रभाव आर्थिक समस्यायों की मार से जूझ रहे इस
तबके से बहुत ज्यादा वंचित अस्मिताओं पर पड़ने वाले थे. यूं तो रिपब्लिकन पार्टी
हमेशा से दक्षिणपंथी ईसाईयत वाले रुझान की थी मगर बीते डेढ़ दशकों में उसका यह रुझान
लगातार और खतरनाक होता गया है. व्यक्तिगात स्वातंत्र्य से जुड़े हुए सभी अधिकारों
जैसे महिलाओं को गर्भपात के चुनाव का अधिकार, स्त्री पुरुष बराबरी का अधिकार,
समलिंगी विवाह का अधिकार पर इस दौर में न केवल रिपब्लिकन पार्टी के हमले बढ़ें हैं
बल्कि अपने प्रभुत्व वाले राज्यों में उसने इन अधिकारों को रोकने के सक्रिय प्रयास
भी बढ़ाये हैं. इसके ठीक उलट बराक ओबामा न केवल इस वर्ग के साथ खड़े रहे हैं बल्कि
उन्होंने सेना जैसी पितृसत्तावादी जगह में भी समलैंगिकों के प्रति भेदभावपूर्ण ‘न
पूछो, न बताओ’ नीति को ख़त्म कर उन्हें सेना में गरिमामयी प्रवेश देने जैसे बड़े कदम
भी उठाये हैं. ठीक यही नीति उनकी समलिंगी विवाह और गर्भपात के अधिकार को लेकर भी
रही है.
ऐसे
में आर्थिक मंदी की मार झेल रहे होने और उससे निपटने में असफल रहे ओबामा की
नीतियों से असंतुष्ट होने के बावजूद इस वर्ग के पास इस चुनाव में अन्य कोई विकल्प
था ही नहीं. ओबामा का विकल्प बन सकने वाले रोमनी इन सारे मुद्दों पर न केवल उनके
खिलाफ खड़े थे बल्कि इन अधिकारों को छीन लेने पर भी आमादा थे. इन सब विषयों पर
रोमनी की राय से पहले ही असहज आम अमेरिकियों को आप्रवासियों, और ख़ास तौर पर अवैध
आप्रवासियों को लेकर उनका कटुतापूर्ण विद्वेष और भी असहज कर रहा था. यह विद्वेष,
और अवैध आप्रवासियों को जबरन वापस भेज देने की रोमनी की घोषणा आखिरकार उस मूल
भावना के ही विरोध में खड़ी थी जो अमेरिका को अप्रतिम संभावनाओं और सफलताओं का देश बनाती है और विश्व राजनीति
से लेकर उद्योगजगत तक में अमरीकी सफलता की कहानी आप्रवासियों ने ही लिखी है.
इसीलिये
ओबामा की यह जीत वस्तुतः उनकी जीत नहीं बल्कि एक तरफ रोमनी और रिपब्लिकन दक्षिणपंथ
की हार है तो दूसरी तरफ अब भी अमेरिका की मूल भावना में यकीन करने वाले आम अमेरिकी
की जीत. पिछला चुनाव ओबामा ने ‘बदलाव’ के वादे पर कमाए समर्थन के दम पर जीता था,
इस बार बदलाव के जमीनी समर्थन ने उन्हें जिताया है.
बेशक
इससे अमेरिका की विदेश नीति और अन्य देशों के आतंरिक मामलों में उसके अनुचित
हस्तक्षेपों में कोई बड़ा बदलाव नहीं आएगा पर अमेरिकी गरीब लोगों के जीवन में छोटा
ही सही एक सकारात्मक बदलाव जरूर कर सकेगी. इस चुनाव का यही पाठ किया जा सकता है.
Comments
Post a Comment