यह कुंठाओं के विस्फोट का समय है. न, उनके पैदा होने का नहीं क्योंकि
जातीय और धार्मिक ऊंचनीच (नंदी साहब के समाजवैज्ञानिक होने के सम्मान में चाहें तो
उसे सामाजिक श्रेणीबद्धता भी कह ही सकते हैं) की नींव पर खड़े समाज में अपने मूल चरित्र
में लोकतांत्रिक राजनैतिक व्यवस्था स्थापित कर दिये जाने पर दो ही चीजें पैदा
होतीं है- शोषित वंचित तबकों में स्वतंत्रता और बराबरी की चेतना और उसके लिए लड़ने
का अदम्य साहस और अब तक सत्तासीन रहे तबकों में अपनी शक्ति के छीजते जाने से उपजती
कुंठा. हाँ यह जरूर है कि एक व्यक्ति एक वोट आधारित समाज में अब तक पिछड़े रहे
तबकों के लगातार बढते प्रभाव के साथ साथ राजनैतिक रूप से सही बने रहने की जरूरत इस
कुंठा को छिपाये रखना इन पूर्व-शक्तिमानों की मजबूरी बना देती है.
पर फिर आप कुंठाओं को आखिर कैद भी कब तक रख सकते हैं? सो एक दिन आशीष
नंदियों, आसाराम बापुओं, अभिजीत मुखार्जियों, अबू आज़मियों के अंदर पलती ये
कुंठायें फट ही पड़ती हैं और अपने भीतर की तमाम गंदगी,
दलित/स्त्री/पिछड़े/जनजाति/अल्पसंख्यक आदि तमाम उत्पीड़ित अस्मिताओं के खिलाफ तमाम नफ़रत
ले कर फट पड़ती हैं. यह फट पड़ना भी अकारण नहीं होता. इस विस्फोट के पीछे उन तमाम और
प्रयासों की असफलता भी छिपी होती है जो इन कुंठाओं को राजनीतिक/सामजिक रूप से
स्वीकार्य बनाने के लिए किये जाते रहे हैं.
यूँ देखें कि समकालीन भारतीय इतिहास के बीते कुछ दशक उत्पीड़ित अस्मिताओं
के संघर्षों के साथ साथ उन संघर्षों को झूठी समन्यवादी विचारधाराओं में समेट लेने
की कोशिशों का भी इतिहास रहा है. ‘जिसकी जितनी संख्या भारी उसकी उतनी हिस्सेदारी’
के लोहियावादी नारे के साथ शुरू हुए सामाजिक न्याय के संघर्ष को ‘सामाजिक समरसता’
के भावनात्मक नारे में लपेट खत्म कर देने की कोशिशें और इन कोशिशों के पराजित होने
के बाद मंडल के खिलाफ कमंडल खड़ा करने के प्रयास अभी खत्म नहीं हुए हैं.
इन प्रयासों की एक और किस्म रही है. इन समुदायों से विभीषण (ब्राह्मण
जाति से उदाहरण लेना जानबूझकर किया गया काम है) पैदा कर उन्हें समुदाय के खिलाफ
इस्तेमाल करने की रणनीति वाली किस्म. सो जब तब आपको अन्ना हजारे नाम के ऐसे ओबीसी(और
यह बात आपको अन्ना कम अन्ना के ‘हैंडलर’ ज्यादा बतायेंगे) दिखाई देंगे जो सारी
जिंदगी अपने गाँव में वर्णाश्रम लागू करवाने के लिये जाने जाते रहे हैं और योगेन्द्र
यादव जैसे भी जो उच्च शिक्षा में ओबीसी आरक्षण लागू होने की बात होते ही अपना
वैकल्पिक, ज्यादा बराबर, ज्यादा मेरिटोरीयस बिल पेश कर देंगे भले ही उसके पहले न
उन्हें कभी बराबरी की याद आयी हो, न मेरिट की. हाँ, तमाम उत्पीड़ित अस्मिताओं ने
ऐसे प्रयासों के पीछे की राजनीति साफ़ साफ़ पहचानते हुए उन्हें लगातार धूल चटाई है.
फिर पराजय तो कुंठा बढ़ाती ही है न.
नंदी आज फटे हैं, पर यह कुंठा तो इसके पहले भी बहुत साफ़ साफ़ दिखती रही
है. याद करिये कि तमाम अखबार और इलेक्ट्रानिक मीडिया बहन मायावती को कैसे संबोधित
करते रहे हैं, कैसे उन्होंने लालू यादव को मसखरे में तब्दील कर देने की लगातार
कोशिशें की हैं. याद करिये कि एनडीए के जमाने के पेट्रोल पम्प घोटाले की तुलना में
बहुत बहुत छोटे भ्रष्टाचार की ख़बरें उन्हें सिर्फ इसलिए बड़ी लगती थीं कि वह
मायावती के शासन से आ रही थीं. और अब यह सोचिये कि जन मत (पब्लिक ओपिनियन) बनाने
वाले इस खबर उद्योग का अपना ‘जातीय चरित्र’ क्या है, कितने दलित, कितने पिछड़े इस
उद्योग में निर्णय लेने वाली जगहों पर बैठे हैं और तमाम चीजें अपने आप साफ़ हो
जायेंगी.
पर एक बात फिर भी साफ़ नहीं होगी. वह यह, कि आशीष नंदी जैसे ‘समाजवैज्ञानिक’
क्या कुछ भी कह सकते हैं? बिना किसी तार्किक आधार के? समाजविज्ञान भी विज्ञान होने
का दावा करता है, अनुभवों के मापन पर चलता है. सो आशीष नंदी ने भी कुछ तो मापा होगा
यह कहने के पहले कि ‘ज्यादातर भ्रष्ट ओबीसी और दलित समुदाय, और अब जनजातियों से भी
आते हैं’. सिर्फ यही नहीं, इस बात को पुष्ट करने के लिए उन्होंने सबसे ‘साफ़ सुथरे’
राज्य बंगाल का उदाहरण भी दिया और कारण बताया कि आज तक वहाँ ‘कोई दलित, ओबीसी
सत्ता के आस पास भटक नहीं पाया है’.
अब आइये जरा इस बयान को तर्क की कसौटी पर कसें. स्वतंत्रता के बाद से
भ्रष्टाचार के सिद्ध/असिद्ध सबसे बड़े आरोपियों में से कौन कौन रहे हैं? कृष्ण
मेनन, राजीव गांधी, नरसिम्हाराव, सुखराम, जार्ज फर्नांडीज, राम नाईक, सुरेश
कलमाड़ी, ए राजा, जे जयललिता, मनमोहन सिंह (चौंके मत कोल-गेट), नितिन गडकरी. आप
चाहें तो इसमें बंगारू लक्ष्मण को भी जोड़ लें. अब बतायें नंदी साहब कि ज्यादातर
भ्रष्टाचारी कहाँ से आ रहे हैं? और फिर, तथ्यतः गलत पाये जाने पर यह बतायें कि यह
बयान भड़काऊ-बयान/हेट स्पीच क्यों नहीं है और इसके लिये आशीष नंदी पर कार्यवाही
क्यों नहीं होनी चाहिये.
इस सवाल का जवाब बहुत कुछ साफ़ कर देता है. उन लोगों के चेहरे और असली
पहचानें भी जिनको मायावती के तमाम बयान (सबसे निर्मम याद करें तो गाँधी को जूते से
मारना चाहिये) असहनीय और घृणास्पद तो लगते ही थे पर साथ ही जिन्हें ऐसे बयानों के
लिये मायावती को जेल भेजने से कम कुछ भी मंजूर नहीं था. आज उन तमाम लोगों को
अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता याद आ रही है, एक बुद्धिजीवी/समाजवैज्ञानिक के विशेषाधिकार
नजर आ रहे हैं. वे तमाम लोग जो अकबरुदीन ओवैसी पर ‘हेट स्पीच’ के लिये मुकदमा
चलाने के लिये मरे जा रहे थे वे सब अचानक असली लोकतंत्रवादी होनिर्बाध स्वतंत्रता
के भाषण देने लगेंगे.
ऐसे लोगों से सवाल बहुत साफ़ है. अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता के नहीं, वह
तर्क दीजिए जो या तो यह साबित कर दे कि दलित/पिछड़े समुदाय ही नहीं हैं इसलिए यह
बयान किसी समुदाय के खिलाफ नहीं है, और अगर वे समुदाय हैं (जो कि हैं) तो यह कि
आशीष नंदी का यह बयान हेट स्पीच न होकर एक तार्किक तथ्यात्मक प्रस्थापना(निष्कर्ष
तो यह हो ही नहीं सकता) है अन्यथा नंदी साहब के ऊपर कानूनी कार्यवाही होने पर हाय
तौबा न मचायें. मचायेंगे, तो भ्रष्टाचार से ज्यादा आपका जातीय चरित्र साफ़ दिखेगा.
भ्रष्टाचार के विरुद्ध अभियान को नंदी ने हल्का कर दिया है! और भ्रष्टाचार के लिए जाति नहीं व्यक्ति जिम्मेदार होता है !
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