वे भ्रष्टाचार से गणतंत्र बचाने निकले है.

छीजती यादों के दौर में कुछ भी सहेज कर रख पाना कितना मुश्किल होता है, ख़ासतौर पर तब जब ये यादें हर शाम टेलीविजन के पर्दों पर बनती-बिगड़ती छवियों से बावस्ता हों. पर फिर, दिमाग पर जरा सा जोर डालें तो याद आएगा कि पिछले बरस ठीक इसी बसंती मौसम में कुछ आम आदमी गणतंत्र बचाने की कोशिशों में दूसरा गांधी-तीसरे जेपी और चौथे न जाने क्या क्या की तलाश में थे और गर्मियों के आते न आते उन्होंने अन्ना हजारे नाम का स्वयंभू गांधीवादी मसीहा देश को दे मारा था. तब भी ऐसे ही उन्मादित नारे थे, हवाओं में लहराते तिरंगे थे, वन्दे मातरम के जयघोष थे. ये सब थे क्योंकि गणतंत्र खतरे में था और इन आम आदमियों ने कसम खाई थी कि वे गणतंत्र को बचा के ही मानेंगे.

एक बरस बाद भारतीय गणतंत्र फिर से खतरे में है, मानो गणतंत्र न हुआ मजहब हो गया. 

हाँ एक बात है, इस बीते एक बरस में खतरे में पड़े इस गणतंत्र में बहुत कुछ बदल गया है. जैसे यह, कि पिछले बरस गणतंत्र को भ्रष्टाचार से खतरा था जबकि इस बरस भ्रष्टाचार ही गणतंत्र का पहरुआ बन के उभरा है. चौंके नहीं, मोटा मोटा यही बयान है जो महान समाजवैज्ञानिक और गांधीवादी(वैसे सवाल यह भी है कि जाति के सवाल पर यह गांधीवादी लोग ही क्यों गड़बड़ा जाते हैं) आशीष नंदी साहब ने दिया है. बात आगे बढ़ाने के पहले आइये हुजूर सरकार के बयान पर नजर डाल लेते हैं पर पूरा बयान जरा लम्बा है (यहाँ पढ़ सकते हैं) सो यहाँ केवल वह हिस्सा जो तूफ़ान का सबब बना है. 
यह बहुत अमर्यादित और लगभग अश्लील बयान होगा. पर तथ्य यह है कि ज्यादातर भ्रष्ट ओबीसी, दलित समाज और अब जनजातीय समुदायों से आते हैं. और जब तक यह होगा, भारतीय गणतंत्र बचा रहेगा. और मैं आपको एक उदाहरण भी दूंगा, सबसे कम भ्रष्टाचार वाले राज्यों में सीपीएम के रहने तक पश्चिम बंगाल एक था. और मैं प्रस्तावित करना चाहता हूँ, आपका ध्यान इस बात की तरफ खींचना चाहता हूँ कि बीते 100 सालों में ओबीसी, पिछड़े और दलित समाज के लोग वहां सत्ता के आसपास फटक तक नहीं पाए हैं.
(अगर आपको फटक पाने पर ऐतराज हो तो यह भाषा नंदी साहब की है, मेरी नहीं—मूल अंग्रेजी देखें “ nobody... have come anywhere near power in West Bengal.)बेशक इन बेहद दिक्कततलब पंक्तियों के पहले उन्होंने कुछ और भी कहा है जिसको अगर उन्ही की एक लाइन उधार लेकर कहें तो
“हमारा भ्रष्टाचार उतना भ्रष्ट नहीं दीखता, उनका दिखता है.
Our corruption doesn't look that corrupt, their corruption does.
अगर नजर हो तो आपको साफ़ साफ़ दिखेगा कि नंदी किस ‘लोकेशन’ से बोल रहे हैं, और क्यों बोल रहे हैं. यह ‘हमारा’ वह लोकेशन है , वह अवस्थिति है एक तटस्थ समाजवैज्ञानिक की हो ही नहीं सकती. यह अवस्थिति साफ़ करती है कि न केवल नंदी एक खेमे में खड़े हैं बल्कि उनका उस खेमे में खड़ा होना अनजाने में नहीं बल्कि सचेत चुनाव है. और फिर जब नंदी साहब के लिए एक तरफ का भ्रष्टाचार उनका अपना है तो वह फिर अपने बचाव में एक बुद्धिजीवी को मिलने वाली अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता नहीं मांग सकते. यह हम और उन का फासला वही फासला है जो इस मुल्क की अर्थ-राजनैतिक और सामाजिक-सांस्कृतिक ही नहीं बल्कि अध्ययन के क्षेत्र में भी दाखिल और खारिज लोगों का फासला है. 

पर बात सिर्फ इतनी भर नहीं है. इस हमारे और उनके भ्रष्टाचार के बीच दिखने का सवाल भी एक बड़ा सवाल है. आशीष नंदी साहब ने यह तो बताया कि ‘उनका’ वाला भ्रष्टाचार कम दिखता और और दलित बहुजन वर्ग का ज्यादा पर यह बताना भूल गए (या यह भूलना भी सचेतन की गयी कार्यवाही है) कि ऐसा क्यों है. मामला इतना सीधा और मासूम है नहीं जितना उन्होंने यह कह कर बनाने की कोशिश की मेरे द्वारा आप की मदद के बदले में आप मेरे बच्चों को स्कालरशिप दे सकते हैं. नंदी साहब का यह कारनामा वस्तुतः एक गंभीर मसले को ‘ट्रिवीअलाइज़’ करना, उसे हास्यास्पद बना देना भर है. 

हकीकत में नंदी साहब की तरफ वाला भ्रष्टाचार इसलिए नहीं दिखता क्योंकि तंत्र (गण से उन्मुक्त) अपनी सारी ताकत उसे छिपाने में, और फिर भी न छिपा पाने पर उसे न्यायोचित ठहराने में लगा देता है. यह भ्रष्टाचार भ्रष्टाचार जैसा नहीं दिखता क्योंकि यह कभी ‘पेड न्यूज’ मार्का खबर बन कर हम तक पंहुचता है तो कभी राडियागेट छाप लाबीइंग बनके जिसकी रिपोर्टिंग के खिलाफ रतन टाटा जैसे (पद्मविभूषण प्राप्त तो होंगे ही) महान भारतीय अदालत चले जाते हैं, और फिर अदालतें तो बनी ही उन्हें राहत देने के लिए हैं. 

नंदी साहब की तरफ वाला भ्रष्टाचार इसलिए भी नहीं दिखता कि उसे दिखा सकने में सक्षम मीडिया में भी वही लोग बैठे हैं जिनका ‘हम’ नंदी साहब का हम है, मधु कोड़ाओं और मायावतियों का ‘उन’ नहीं. सो उन्हें बहन मायावती की सैंडल लाने हवाईजहाज (या हेलीकाप्टर?) भेजना उनके ‘जातीय चरित्र का हिस्सा लगता है जबकि जयललिता जी की सैंडिलें एक व्यक्ति के भ्रष्टाचार का. वह इसलिए भी नहीं दिखता कि लालू यादव का मजाक बनाने में, उन्हें भ्रष्ट और मसखरा साबित करने की कोशिश में लगे रहने वाले मीडिया को याद ही नहीं आता कि जब राजीव गांधी के भेजे 1 रूपये में से आम आदमी तक केवल 14 पैसे आम जनता तक पंहुचते थे तब सामाजिक न्याय वाली यह पीढ़ी राजनैतिक परिदृश्य पर ठीक से पैदा तक नहीं हुई थी. 

दिखता तो खैर नंदी साहब, और उनके ‘अपनों’ को यह भी नहीं है कि टाटा, बिड़ला और अम्बानियों से लिए ‘चंदे’ की बदौलत एक एक चुनाव क्षेत्र में 100-100 करोड़ रुपये खर्च कर देने वाली कांग्रेस और भाजपा के सामने सामजिक न्याय की ताकतें अगर भ्रष्ट न हों, तो टिक ही नहीं पाएंगी. कौन से टाटा चंदा देंगे मायावती को? मधु कोड़ा को? सो फिर तय चुनाव सीमा को सीधे सीधे धता बता कर चुनावों को इतना मंहगा बना के सांस्थानिक भ्रष्टाचार को जन्म देने वाले लोग कौन हैं? आशीष नंदी यह सवाल नहीं पूछेंगे. उन्हें पता है कि उनका भ्रष्टाचार नहीं दिखता, बाकियों का दिखता है. 

यही इस बात में सबसे बड़ा पेंच है. मैं पहले भी लगातार यह कहता रहा हूँ, कहता रहूँगा कि जिस देश की 70 प्रतिशत से ज्यादा आबादी 30 रुपये प्रति दिन से कम में जीने को मजबूर हो वहां आम जन का मसला भूख होगी भ्रष्टाचार नही. ऐसे समाज में भ्रष्टाचार तो सिर्फ उस आभिजात्य वर्ग का सवाल हो सकता है जो अब अपने ‘काम करवाने के लिए’ कोई पैसा खर्च नहीं करना चाहता, न टैक्स में न घूस में. कहने की जरूरत नहीं है कि सामाजिक न्याय की ताकतें ही उसकी इस चाहत में सबसे बड़ी बाधा हैं और उनको रोकने का जो तरीका उसे समझ आता है वह है उनके संघर्षों को ट्रिवीअलाइज़’ करना, उसे हास्यास्पद बना देना. और इसीलिए वह कभी अन्ना हजारे जैसे घोषित वर्णाश्रम समर्थकों और अरविन्द केजरीवाल जैसे आरक्षण विरोधियों को मसीहा बनाकर पेश करता है तो कभी उसकी मदद को आशीष नंदी जैसे गांधीवादी बुद्धिजीवी दौड़ पड़ते हैं. 

इस देश के गणतंत्र को असली खतरा जाति व्यवस्था और ऐसे अन्य प्रतिगामी मूल्यों से हैं और उन्हें हराने का इकलौता उपाय सामाजिक विविधता बढ़ा कर अब तक शोषित-वंचित रहे तबकों को शक्ति और सत्ता में उनकी जायज हकदारी सुनिश्चित करना. पर यह हुआ तो अब तक सत्ता में काबिज लोगों की कीमत पर ही होगा और इसीलिए वे भ्रष्टाचार से गणतंत्र बचाने जैसे कारनामे अंजाम देंगे. 

Comments

  1. नंदी साहब की ......... तक नहीं हुई थी!

    bahut hi zabardast argument hai Samar Bhai...

    your articles have a quality of indulging readers...

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  2. I really wonde how the likes of Nandy have cheeks to show of their hatred so blatantly.
    Samar very well written, n perfectly summed up.
    Thanx

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  3. अपरंच ...
    यह सब तो ठीक है मगर मैं अपने एक फेसबुकी मित्र के इस बयान पर चौका कि जब यह कहा जाता है कि 'अमुक को इसलिए भ्रष्टाचार में फसाया गया है क्योंकि वह दलित है " तो यह भ्रष्टाचार को जाति से ही जोड़ना तो हुआ ! फिर नन्दी के बयान पर इतना गुल गपाड़ा क्यों?
    राजनीति तो अवैध काले धन की टकसाल है -ज्यादातर वहां भ्रष्ट है क्या दलित क्या गैर दलित!

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  4. बीसवीं सदी में पले बड़े
    ओ धर्म के ठेकेदारों तुम
    मन्दिर के द्वारे खड़े हुए ,
    उन मासूमों की बात सुनो
    बचपन से इनको गाली दे , क्या बीज डालते हो भारी
    इन फूलों को अपमानित कर क्यों लोग मनाते दीवाली ?

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