किसी मीटिंग में जाना था उस दिन. शायद लाल बहादुर वर्मा सर के घर. सो
आराधना को साथ ले लेने के वादे में तय समय से कुछ घंटे भर की देरी से हम डब्लूएच
उर्फ महिला छात्रावास परिसर(जेल सी ऊंची चारदीवारी में कैद तीन महिला छात्रावासों
का साझा नाम, जो कोई नहीं लेता था) के गेट पर पँहुचे. मैडम गुस्से से उबल रही
थीं ही हमें देखते ही फट पड़ीं. ये वक़्त है आने का और न जाने क्या क्या. और हम थे
कि कुछ सुन ही न पा रहे थे. और ये लीजिए जनाब, अचानक हम पर एक नगमा नाजिल हुआ –
सांवली सी इक लड़की आरजू के गाँव में गुलमोहर की छाँव में. मोहतरमा हतप्रभ. इतनी कि पूछ भी न सकीं कि हुआ क्या है. हमीं से रहा न गया तो हमने कहा ऊपर देखें. सच में
हुजूर-सरकार गुलमोहर की छाँव में खड़ी थीं. इसके बाद गुस्से का क्या हुआ खबर नहीं.
वे क्रान्ति के दिन थे. जागती आँखों में दुनिया को बदल डालने के सपने
देखने के दिन. वे दिन थे जब हम गोली दागो पोस्टर का रूमान भर आँख जीते थे. वे दिन थे
कि ताजा ताजा शुरू की गयी दीवाल पत्रिका (संवाद- दीवाल्रें भी बोलती हैं) के परों
पर सवार हमारी हौसलों की परवाज बड़े बड़े अखबारों से टक्कर लेती थी. ऐसे ही दिनों की
एक दोपहर आराधना से पहली मुलाक़ात हुई थी. ऐसी कि दशक भर से ज्यादा पहले हुई वो
पहली मुलाकात स्मृति में फोटो सी दर्ज है.
हुआ यह था कि हम अपने साइकोलोजी डिपार्टमेंट के पोर्टिको में क्लास की
कुछ लड़कियों के साथ बातें करते करते पत्रिका चिपकाने में मुब्तिला थे और मोहतरमा इलाहाबाद
विश्वविद्यालय के मनोविज्ञान विभाग से बरास्ते संगीत विभाग होते हुए डब्लूएच जाने
वाली ‘लव लेन’ से उल्टी दिशा पीएमसी उर्फ पिया मिलन चौराहा उर्फ प्राक्टर ऑफिस
होते हुए अपने संस्कृत विभाग की तरफ बढ़ रही थीं. साथ पूजा भी थी. फिर मोहतरमा की
नजर दीवाल पत्रिका पर पड़ी और हमें इलहाम हुआ कि मोहतरमा करीब दसेक फीट की दूरी से
उसे पढ़ने की कोशिश किए जा रही हैं.
अपने लिए तो बस इतना ही बहुत था. पढ़ने की कोशिश यानी राजनैतिक
सक्रियता की संभावनाओं से लैस यानी हमारे संगठन के लिए एक और साथी. अब जैसा भी लगे
तब दुनिया पर अपनी नजर ऐसी ही पड़ती थी. बायें झुकाव है तो बंदा अपना है वर्ना
वर्गशत्रु से कम कुछ भी नहीं. खैर, मन में एक और सदस्य का सपना लिए हम इनकी तरफ
बढ़े और गुजारिश की कि करीब से पढ़ लें. उस एक नजर में आराधना बहुत सादा सी लगी थी.
बहुत सादा और बहुत ईमानदार. और बहुत साहसी भी वरना एक अनजान लड़के का अपनी तरफ बढ़ना
इलाहाबाद जैसे शहर में लड़कियों को आज भी सिहरा देता है और हमारी जिंदगियों के टकरा
जाने का ये हादसा सन 2000 यानी की पूरे बारह साल पहले हुआ था.
खैर, उन्होंने खड़े खड़े पूरी पत्रिका पढ़ डाली और बस इतना कहा कि अच्छी
है. हमारा स्टैण्डर्ड जवाब था कि आप भी कुछ लिखें. सो उन्होंने वो भी किया, एक
अच्छी सी कविता लिख के दे डाली हमें जो पत्रिका के अगले अंक में छपी भी. यह हमारी
दोस्ती की शुरुआत थी. सिर्फ इनकी और मेरी नहीं बल्कि इनके पूरे गैंग से मेरी
दोस्ती की शुरुआत. चार लड़कियाँ (नाम पूछ के डालूँगा) और मैं.
अब भी याद है कि ‘विजिटिंग डेज’ में मेरे डब्लूएच पँहुच के ‘काल’
लगाने पर दीदी लोग कैसे अचम्भे से देखती थीं. चार लड़कियाँ.. इनमे से ‘इसकी वाली’
कौन है सोचते हुए? और फिर इन लड़कियों की किसी और द्वारा काल लगाने पर और भी
आश्चर्य में पड़ जाने वाली दीदियाँ. सोचते तो खैर और भी ‘रेगुलर विजिटर्स’ भी यही
थे. चौकेली आँखों में सवाल लिए हुए. और भी ज्यादा इसलिए कि विश्विद्यालय में अपनी
थोड़ी बहुत पहचान भी थी, थोड़ी इसलिए कि अपन एक तेजतर्रार मार्क्सवादी छात्रनेता के
बतौर जाने जाते थे और बहुत इसलिए कि उस दौर में भी अपनी ‘गर्लफ्रेंड’ की काइनेटिक
एसएक्स4 पर पीछे
बैठ के घूमा करते थे. वह भी उस शहर में जो मजनू पिंजड़ों के लिए मशहूर था. बहुत
इसलिए भी कि यह कारनामा अंजाम देते हुए भी अपन पीसीएस और गुंडों दोनों की फैक्ट्री
ताराचंद छात्रावास के वैध अन्तःवासी थे और इसलिए घोषित ‘मर्द’ थे.
दीदियों का ये भ्रम, खैर, न दूर होना था न हुआ पर अपनी दोस्ती परवान
चढ़ती गयी. ऐसे कि दीदियों को भरमाने वाली ये सादा सी लड़की बहुत सारे भरम तोड़ती थी.
नारीवाद के ‘इसेन्शियली’ पश्चिमी होने का भरम. बहनजी कहे जाने वाली लड़कियों के ‘बहनजी’
होने का भरम. और अपने मामले में संस्कृत उर्फ देवभाषा के सिर्फ प्रतिक्रियावादी
होने का भरम. एक हम थे कि संस्कृत को सीधे खारिज किये बैठे थे और एक ये थीं कि उसी
संस्कृत में गार्गी, मैत्रेयी, अपाला और लोपामुद्रा को ढूंढें पड़ीं थीं.
अब इसका क्या करें कि एक रोज इस खोज के रास्ते में हमारा ताजे ताजे
ब्रेकअप के बाद भटकने, यानी की सरस्वती घाट जाने का दिल हुआ और हम एक स्कूटर ले के
डब्लूएच के गेट पर हाजिर. काल लगाई तो पता चला कि मैडम के साहब ने भी काल लगाईं
है. खैर, मैडम हाजिर हुईं तो अपना कहना ये था कि यार तुम दोनों तो रोज साथ रहोगे,
अपना आज का ब्रेकअप है, मन बहुत उदास है, चलो घूम के आते हैं और मैडम तैयार. ये और
बात कि साहब ने आज तक माफ ना किया हमें उस दिन के लिए. आज भी उनके मुस्कुराते हुए
चेहरे के साथ चिपकी गुस्से से उबलती आँखें वह दिन याद दिला देती हैं. और आराधना की
वह आँखें भी जिनमे दोस्त के लिए ‘उनको’ छोड़ के चले जाने का साहस था.
याद तो ये भी है कि स्कूटर पर बैठने के बाद जो डरते डरते मोहतरमा ने
हमारे कंधे पर हाथ रखा तो बेसाख्ता उनसे कह बैठे थे कि इतना मत डरो भाई, कोई पति
थोड़े हैं हम तुम्हारे. उस वक्त हम शायद एडीसी, यानी कि इलाहाबाद डिग्री कालेज,
कीडगंज के सामने थे. और मैडम का हँसना, कि इलाके का ट्रैफिक थम सा गया था.
पर अच्छा यह लगता है कि आराधना ने अपनी आजादी से कभी कोई समझौता न
किया. न किसी दोस्त के लिए, ना साहब के लिए. समझौता तो उसने अपनी असहजता से भी न किया.
जैसे कि उस रोज जब हम कॉफीहाउस के फेमिली केबिन में बैठे थे और इलाहाबाद जैसे छोटे
शहरों में निजता की कमी का मारा वह जोड़ा आराधना को बहुत असहज कर रहा था. काफी देर
देखते रहने के बाद मैंने कहा था कि अब बस भी करो और अपनी जगहें बदल ली थीं कि उस
जोड़े के सामने मोहतरमा की पीठ आ जाये. और उस दिन के सालेक बाद अपने जेनयू रसीद हो
जाने के बाद की शाहर वापसी में किसी कैफे (शायद दर्पण?) में बैठे हुए एक जोड़े की
वैसी ही हरकतों को लेकर बिलकुल सहज आराधना भी दिखी थी.
वो आराधना जिसे बाद में दिल्ली आना था. जिसे जेनयू की पोस्ट-डाक
शोधार्थी होना था. पर आराधना अपना नारीवाद यहाँ के बहुत पहले सीख आयी थी. बिना
अंग्रेजी किताबें पढ़े. अंग्रेजी किताबें पढ़ चुकी आराधना के बारे में फिर कभी.
मिलना हुआ नहीं कभी इस सादा सी लड़की से, पर इसके लेखन के माध्यम से जैसे बिलकुल ऐसी ही छवि है इसकी मेरे मन में, जैसी आपने यहाँ बताई है.एक साहसी दोस्त और ईमानदार व्यक्तित्व.
ReplyDeleteआज तो रुला दिया तुमने. अभी-अभी प्रशांत की बक-बक से तंग आकर मुझे उसको ब्लाक करना पड़ा. एक और अपना छूट गया. किस्मत ने बहुत से अपनों को छीना है मुझसे, पर तुम्हें साथ पाती हूँ तो किस्मत से शिकायत नहीं होती. ऐसे ही साथ रहना मेरे दोस्त.
ReplyDeleteतुम भी क्या याद करोगी , आराधना , समर ने तुम्हें याद किया है:-)
ReplyDelete(उधार के शब्द हैं पर बड़े काम के हैं)
बहुत उम्दा
ReplyDeleteमेरी नई रचना
ये कैसी मोहब्बत है
खुशबू
हमारी भी मुलाकात हुई ,कल परसों ही शायद ,हुआ ये की मोहतरमा को हमारी कोई बात दिल तक जा लगी ,बे साख्ता उन्होने वही बहादूरी दिखायी जैसा की मजमून उपर दर्ज़ है ,हमारी बाते इनकी वाल तक पहुची और फ़िर पहुची तो साब उनका विरोध भी हुआ ,फ़िर एक और इमानदार और बहादुर कारनामा ,इन्होने छोटे समर मतलब कि हमें अपने खुद के पहल से दोस्ती कर ली ,और फ़िर बाते हुई ,लगा ही नही कि हम एक दुसरे को नही जानते ,और बला की तंग दिली कि यहां भी समर अनार्या ही मिले ,आज कल समर अनार्या ही सब ओर मिला करते हैं ..अराधना आपको याद है ना ,सवालों की कुन्जी भेजनी है आपको ताकी हम भी पहाड़ों मे बे तरतीब से फ़ैले जहां में सांस ले सके !
ReplyDeleteअपनी एक धारणा, खालिस अनुमान होने की असहजता से मुक्त हुई !
ReplyDeleteबेहतरीन संस्मरण है समर भाई। हमारी भाषा का एक अच्छा संभावनाशील लेखक लिखने मे ज्यादा नहीं लेकिन थोड़ी कंजूसी तो कर ही रहा है
ReplyDeleteशिखा जी- शुक्रिया के सिवा कह भी क्या सकता हूँ?
ReplyDeleteआराधना- अब रोओ मत भाई. और रही ब्लाक करने की बात तो Good Riddance to Bad rubbish सिर्फ मुहावरा भर थोड़े ही है.
प्रकांत- या पी आर कान्त(?) :)
दिनेश जी- शुक्रिया
अनस- अच्छा लगा कि तुम्हारी दोस्ती भी हो ही गयी. अब इनसे खूब बतियायो, बहुत कुछ सीखने को मिलेगा.रही हर जगह समर अनार्य मिलने की बात तो मियां हम भी खादी जैसे हैं जो व्यक्ति नहीं विचार हैं. :P
ReplyDeleteसुन्दर..ऐसे ही लिखता रहा कीजिये भाई. बहुत खूब..वाकई उम्दा...अद्भुत.
ReplyDeleteअली सैयद साहब- धारणा क्या थी भाई, हमें भी ये जानने का हक है.
ReplyDeleteसंदीप भाई- संभावनाओं का तो पता नहीं बस ये है कि अपने से लिखना तभी होता है जब दिल और दिमाग दोनों लिखने पर एक राग हों. कोशिश करूंगा कि कंजूसी का आरोप कम लगे.
हमेशा बहुत अपनी सी लगी है, यह सादी सी लड़की
ReplyDeleteइन दिनों संभावनाओं से लबरेज कई युवा अतीत प्रेमी हो संस्मरण मोड में चले गए हैं -क्या ऋतुराज की कोई भूमिका तो नहीं ?
ReplyDeleteअरे नहीं अरविन्द भैया, कोई संस्मरण मोड नहीं है यह. आराधना की मेरे ढॅपे खुले हुए जिक्र वाली तमाम पोस्ट्स देख रहा था एक दिन, लगा कि फिर हम भी लिख देते हैं. बस, इतनी सी बात है.
DeleteNice sharing. Sweet memories.
ReplyDeleteखूबसूरत यादें .......पढ़कर जानकर बहुत अच्छा लगा !
ReplyDeleteइलाहाबाद विश्वविद्यालय और उससे जुड़े हर गली कूचे ,गुलमोहर की छाँव और आगे तक बढ़ते हुये......ए.डी.सी.,कीड्गंज,सरस्वती घाट सबसे नाता है हमारा..।
ReplyDeleteबहुत खुशी मिली आपको पढ़ते हुये....! बहुत उम्दा शैली है आपकी..। बधाई मित्र !
apne kisee dost ke baare mei bahut hi sahaj saral sunder par bindaas post.
ReplyDeleteखूब!
ReplyDeleteएकाएक इस खूबसूरत लेख पर नज़र पडी.
ReplyDeleteअनूप शुक्ल जी- बहुत शुक्रिया.
ReplyDeleteआशुतोष कुमार दा- आप 'वरिष्ठ कामरेडों' के बरबाद किये हुए हम लो गैर खूबसूरत लिख भी कैसे सकते हैं. :P
रश्मि रवीजा- जी, है ही यह पागल ऐसी. और हम भी कम थोड़े न हैं.
ReplyDeleteb hut achcha likha hai.
ReplyDeleteVinnie
बहुत अच्छा लिखा है।
ReplyDelete
ReplyDeleteशानदार लिखा....हमेशा की तरह....
ReplyDeleteशानदार.....हमेशा की तरह....
ReplyDeleteवाकई क्या खूब जीते हैं जनाब आप😊
ReplyDeleteथोड़ी सी ज़िन्दगी उधार दे दीजिए ना...!!!😝😐
We are pebbles down a stream
ReplyDeleteresidues of one another
shall remain