सहमति की उम्र का सवाल

 [दैनिक जागरण, राष्ट्रीय संस्करण में  22-03-2013 को प्रकाशित]

सपनों और संभावनाओं से भरी एक युवा लड़की के सामूहिक बलात्कार और निर्मम हत्या के दंश से अभी उबर भी न सके देश में बहस का यौन संबंधों में सहमति की उम्र तक सिमट जाना दुर्भाग्यपूर्ण है. खासतौर से इसलिए भी कि उस अमानवीय अपराध के बाद भी स्त्रियों की सुरक्षा के सरकारी दावों के बावजूद बलात्कारों का सिलसिला ख़त्म नहीं बल्कि तेज ही हुआ दिखता है. फिर इस बहस में भी दिलचस्प बात यह है कि सहमति की उम्र को लेकर हो रही इस बहस में संस्कृति, समाज, नैतिकता, धर्म  और परिवार सब कुछ है बस वैयक्तिक यौनिकता का मूल मुद्दा बिलकुल गायब है. मतलब यह कि जिन दो व्यक्तियों के बीच सहमति का सवाल है उनकी अपने शरीर और यौनिकता पर खुदमुख्तारी (एजेंसी/अभिकर्तत्व) को छोड़ सबकुछ बहस में है.

इस नजरिये से देखें तो यह बहस आज से करीब 150 साल पहले औपनिवेशिक भारत में इसी मुद्दे पर हुए विमर्श से भी प्रतिगामी है. बेशक तब की बहस किसी सामूहिक बलात्कार की घटना को लेकर नहीं बल्कि बेमेल विवाहों में बालिका वधुओं में यौन संबंधों के दौरान मारे जाने को लेकर शुरू हुई थी और 1860 में क़ानून बना कर यौन सहमति की न्यूनतम उम्र 10 वर्ष निर्धारित करने में प्रतिफलित हुई थी पर वहां रुकी नहीं थी. इसके कुछ ही दौर बाद १८८० में रुख्माबाई नाम की महिला के बालविवाह के बाद बालिग़ होने पर पति के घर जाने से इनकार करने पर इस बहस को स्त्री की यौन सार्वभौमिकता की नारीवादी समझ तक पंहुचा दिया था भले ही उस दौर के नारीवाद के पास यह शब्द न रहा हो.  कुछ ही दिनों बाद 1889 में बालिका वधु फूलमनी की यौन संबंध के दौरान लगी चोटों के कारण हुई मृत्यु यह बहस को प्रतिगामी धार्मिक परम्पराओं के स्त्रियों के स्वतन्त्र नागरिक होने के बतौर मिले आधुनिक अधिकारों से सीधी मुठभेड़ तक ले आयी थी.  बेशक उस बहस में भी राष्ट्रवादी संघर्ष में ‘प्रबुद्ध सामंती’ सोच वाली पितृसत्तात्मक ताकतें भारतीय परम्परा और धर्म के तर्कों का इस्तेमाल कर यौन सहमति की उम्र के 10 से बढ़ा कर 12 साल किये जाने का तीखा विरोध कर रही थीं पर फिर भी बहस के मूल सवाल बहुत साफ़ थे. वह स्त्री यौनिकता के नियंत्रण की कोशिश कर रही पितृसत्तात्मक ताकतों के खिलाफ यौन सार्वभौमिकता तक जाने वाले स्त्री अधिकारों के बीच संघर्ष था.

उस दौर से बहुत आगे आ चुके इस समाज में इस बहस को कायदे से यौनिक स्वतंत्रता और नागरिकता से हासिल होने वाले मूल अधिकारों से जुड़ना चाहिए था. पर इसके ठीक उलट यह बहस सहमति की उम्र घटाने से परिवारों के टूट जाने जैसे कयासों, इससे होने वाले नैतिक क्षरण जैसे धार्मिक तर्कों से लेकर खाप पंचायतों जैसी संविधानेतर संस्थाओं के नैतिक पुलिस बनकर इसका विरोध करने तक सिमट कर रह गयी है. यहाँ तक कि यह तथ्य भी कि यौन सहमति की उम्र घटाई नहीं जा रही थी बल्कि 1983 से ही वह 16 साल ही थी भी इस बहस से गायब है.

सो सवाल यह बनता है कि सहमति की उम्र किन तर्कों और तथ्यों के आधार पर तय की जानी चाहिए और इसे कितना होना चाहिए जबकि दुनिया के तमाम देशों में यह उम्र 13 से लेकर 18 वर्ष के बीच निर्धारित है. इस सवाल का जवाब सामाजिक विकास के सूचकांकों और समाज में किशोरों की स्थिति के अंतर्संबंधों में छिपा है. अगर वह अपनी मर्जी से, बिना किसी भय के सम्बन्ध बना सकते हैं, गर्भ ठहर जाने जैसी आपात स्थिति में बिना किसी सामाजिक विरोध के स्वास्थ्य सेवाओं तक पंहुच सकते हैं, परिवार के विरोध में होने पर सरकार की कल्याणकारी योजनाओं की शरण ले सकते हैं तो फिर इसे 13 भी कर देने पर कोई ख़ास दिक्कत नहीं है.

पर फिर, दिक्कत यही है कि समाज की स्थिति ऐसी नहीं है. ग्रामीण क्षेत्रों में स्वास्थ्य सेवाओं की पंहुच की कौन कहे जब कुपोषण का आलम यह है कि प्रधानमंत्री को यह समस्या राष्ट्रीय शर्म लगती है और राष्ट्रपति को सबसे बड़ा अपमान, तो किशोरों की स्वास्थ्य स्थिति का अनुमान आसानी से लगाया जा सकता है. साफ़ है कि ऐसी स्थिति में सहमति की उम्र निर्धारित करने में खासी सतर्कता बरतने की जरूरत है.

इसके उलटे दूसरा पहलू यह भी है कि क्या यौन हिंसा से निपटने में लगातार विफल हो रही सरकारों और समाजों को सहमति से बने संबंधों का अपराधीकरण करने की अनुमति दी जा सकती है? याद करें कि हम एक ऐसे समाज में जी रहे हैं जहाँ सर्वोच्च न्यायालय तक पंहुच अपनी सुरक्षा सुनिश्चित करने  वाले प्रेमी युगल मनोज और बबली की पुलिस की उपस्थिति में निर्मम तरीके से असम्मान हत्या कर दी जाती है और हरियाणा का राजनैतिक नेतृत्व परम्परा और धर्म के नाम पर हत्यारों के साथ खड़ा मिलता है. संबंधों की उम्र 16 से बढ़ा कर 18 करना कहीं ऐसी बर्बर संस्थाओं को और प्रश्रय देगा इस बात में कोई शक नहीं है.

सहमति की उम्र बढ़ाना केवल असम्मान हत्याओं के लिए बदनाम प्रदेशों के लिए ही गलत साबित नहीं होगा बल्कि कम से कम नगरीय भारत के सार्वजनिक क्षेत्र में बढ़ती स्त्री उपस्थिति की वजह से किशोर-किशोरियों के बीच बढ़ते संवाद के खिलाफ भी खड़ा होगा. हमारा समाज यौनिकता से खारिज समाज नहीं है, कोई भी समाज हो भी नहीं सकता. फिर आज के किशोरों के लिए टेलीविजन से लेकर फिल्मों तक यौन उद्दीपकों की कमी भी नहीं है. ऐसे में सहमति से बने संबंधों का अपराधीकरण कर किशोर को बलात्कारी बनाकर हम समाज को कहाँ ले जायेंगे यह सोचने की बात है. इन संबंधों के अपराधीकरण में एक और बड़ा नुक्ता फंसता है. दिल्ली गैंगरेप केस याद करें तो उसमे बर्बरता से शामिल किशोर को भी बाल अदालत में ही ले जाया गया है और यही सही भी है. अब इसके बरक्स सहमति से बने संबंधों के आधार पर बलात्कारी मान लिए जाने वाले किशोर के बारे में सोचें और बात साफ़ हो आएगी. यहाँ यह साफ़ कर देना उचित होगा कि मैं सिर्फ और सिर्फ सहमति से बने संबंधों की बात कर रहा हूँ, किसी भी प्रकार के दबाव से बनाए गए संबंधों की नहीं. इन दबावों में शादी के झूठे वादे कर हासिल की गयी सहमति भी शामिल है और मैं मानता हूँ कि उसे अभी की तरह ही अपराधी की उम्र देखें बिना बलात्कार ही माना जाना चाहिए.

सरकारों की जिम्मेदारी है विधि के शासन पर आधारित क़ानून व्यवस्था बनाये रखना और उसे बलात तोड़ने वालों को सजा दिलवाना जिसमे वह अक्सर बुरी तरह से असफल होती दिखती हैं. उसका काम किसी अपराध में न शामिल दो युवाओं की नैतिक पहरेदारी करना नहीं और इसीलिए सहमति की उम्र 16 ही रहनी चाहिए जैसी वह 1983 से थी. सरकार को भी इसमें छेड़छाड़ करने की जगह रोज स्त्रियों पर रोज बढ़ती जा रही यौन हिंसा पर काबू करने की कवायद करनी चाहिए, वही उनका असली काम भी है.  

Comments

  1. कुछ समय पहले हरियाणा के पूर्वमुख्यमंत्री ओमप्रकाश चौटाला ने कहा था (एक महिला मनोवैज्ञानिक या मनोचिकित्सक ने भी) कि लड़कियों के विवाह की उम्र घटा कर सोलह साल कर दो, बलात्कार की समस्या पर अपने आप रोक लग जाएगी...

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  2. समर,इस ऐतिहासिक परिप्रेक्ष्य और विधिवत विवेचन के लिए आभार -मगर भारत एक दुहरी सोच ,मापदंड वाला पाखंडियों का देश है और उस पर सेक्स से जुड़े सवाल तो हमारी दुहरी मानसिकता की चुगली खाते हैं!लोगों के अपने तईं नैतिक मानदंड दूसरे होते हैं औरों के लिए दूसरे -मुझे और आपको भी पता है कि वयः संधि के किशोर किशोरियां व्यामोहित हो संदर्भ और परिणामों से अनजान मासूम से यौन सम्बन्ध लेते हैं और अवांछित गर्भ धारण तक हो जाते हैं -उन मामलों में क्या यह कानून उन्हें अपराधी मानेगा ? और फिर इस क़ानून की जानकारी कितने कानों और कहाँ तक पहुंचेगी? कई मासूम लोगों का भयादोहन पुलिस आदि करेगी वह अलग !

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  3. मैं इस मुद्दे पर अभी तक एक राय नहीं बना पायी हूँ. अब भी दुविधा की स्थिति में पड़ी हूँ.
    जब सहमति से यौन सम्बन्ध की आयु सोलह हो, इसके बारे में सोचती हूँ तो ये डर लगता है कि कहीं ज़बरन सम्बन्ध को भी डरा-धमकाकर 'सहमति से बने सम्बन्ध' कहलवाकर लोग बलात्कार जैसे अपराधों से बच न जायं.
    और जब अठारह की आयु के बारे में सोचती हूँ, तो खाप पंचायतों का ध्यान आता है. कि कहीं सहमति से बने सम्बन्ध को 'बलात्कार' सिद्ध करके पंचायतें किशोर युवक-युवतियों को परेशान न करें.
    मुझे पता है कि आज के किशोर-किशोरियों को पहले की अपेक्षा मिलने और निकट आने के बहुत स्थान मिल गए हैं और यौन-सम्बन्ध बनने स्वाभाविक भी हैं, लेकिन फिर भी यह ध्यान देने की ज़रूरत है कि यह बलात्कार का कानून है और यौन-शोषण से सम्बन्धित है. यौन-शोषण की समस्या 'यौनिक स्वतंत्रता' से अलग नहीं है, लेकिन उससे बड़ी समस्या ज़रूर है.
    दूसरी बात हमारे युवा स्वतंत्र हो गए हैं, लेकिन अभी इस स्वतंत्रता का इस्तेमाल करने लायक खुलापन हमारे परिवारों में नहीं है. घर में इस मुद्दे पर बात तक तो होती नहीं कि उन्हें यौन-सम्बन्धों के विषय में सावधान किया जा सके. इसलिए मुझे सहमति से यौन-सम्बन्ध की आयु अठारह वर्ष अपेक्षाकृत सही लगती है.

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  4. अच्छा आलेख है। हालाँकि मैं इस बात का समर्थक हूँ कि यह उम्र 18 वर्तमान परिस्थितियों में 18 होनी चाहिए। लेकिन इस के साथ ही सरकारों व अभिभावकों पर यौन शिक्षा की जिम्मेदारी का संकल्प भी होना चाहिए था।

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