कर्नाटक विधानसभा चुनावों में कांग्रेस की भारी
जीत एक बड़ी परिघटना है. ऐसी परिघटना जो सिर्फ भारत जैसे त्रुटिपूर्ण लोकतंत्र में
ही हो सकती थी. वरना सोचिये कि भारतीय सीमा के अन्दर चीनी घुसपैठ और कांग्रेसनीत
संप्रग गठबंधन सरकार की निगहबानी में हुए तमाम घोटालों में मामागेट के जुड़ने के
बीच हुए इन चुनावों में कोई सजग नागरिक कांग्रेस को विकल्प मानने के बारे में सोच
भी कैसे सकता है? बीते साल के भ्रष्टाचार विरोधी मध्यवर्गीय उभार को याद करें तो
यह जीत और स्तब्धकारी लग सकती है, पर वस्तुतः है नहीं. मूल रूप में यह जीत भारतीय
समाज में चल रहे अंतर्मंथन को , खारिज नहीं प्रतिध्वनित ही कर रही है.
बेशक कुछ लोग इसे बी एस येदुरप्पा के विद्रोह कर
भाजपा को नुक्सान पंहुचाने से जोड़कर देख सकते हैं पर आंकड़ों पर सरसरी नजर भी इस
तर्क को ध्वस्त कर देती है. भाजपा को मिले मतों में येदुरप्पा की कर्नाटक जन पक्ष
को मिले मतों को जोड़ भी दें तो भी वह बुरी तरह से हारती क्योंकि पिछले चुनावों की
तुलना में भाजपा को करीब 13 प्रतिशत का नुकसान है. फिर अगर यह सिर्फ
भाजपा की हार होती तो जनता दल सेकुलर का प्रदर्शन और अच्छा होता और कांग्रेस को
स्पष्ट बहुमत मिलने की जगह यह त्रिशंकु विधानसभा होती.
भ्रष्टाचार को ख़त्म करने की जगह उसमें सक्रिय
हिस्सेदारी में लगे एक राजनीतिक दल को यह समर्थन कहाँ से आता है? सीमा की सुरक्षा
से लेकर सीमापार की जेलों में बंद अपने नागरिकों की सुरक्षा कर पाने तक के हर
मोर्चे पर असफल रहे दल को क्या सोच कर कर्नाटक की जनता ऐसी भारी जीत दे देती है?
और जवाब यह है कि बाकी भारत की ही तरह कर्नाटक में भी जनता समरूप जनता नहीं बल्कि अपने
अपने हितों के अनुसार सामुदायिक और वर्गीय विभाजनों में बँटी हुई जनता है. इस जनता
का मूल अंतर्विरोध वर्गीय और अस्मितागत संघर्षों के बीच वर्चस्व की लड़ाई है. और फिर इस अंतर्विरोध में फंसे सामाजिक-आर्थिक
रूप से निम्नवर्गीय शोषित बहुमत की असली समस्या भ्रष्टाचार नहीं, अपना अस्तित्व
बचाए रहने की जद्दोजहद है.
इस जनता को भी, बेशक, भ्रष्टाचार से फर्क पड़ता
है. पर फिर, इस जनता को प्रभावित करने वाला भ्रष्टाचार रेलवे बोर्ड में बड़ी कमाई
के लिए बड़े पदों पर होने वाली नियुक्ति वाला भ्रष्टाचार नहीं, टू-जी, कॉमनवेल्थ
खेलों और कोलगेट वाला भ्रष्टाचार नहीं बल्कि पुलिस थानों से लेकर अदालतों तक छोटी
घूसों वाला ‘छोटा’ भ्रष्टाचार है. अब कहने की जरूरत नहीं है कि उस ‘बड़े’ स्तर वाले
भ्रष्टाचार के बारे में भाजपा और कांग्रेस के बिलकुल एक सा होने के बारे में जनता
को कोई शक नहीं रह गया है. उसे पता है कि हर पवन बंसल के बरक्स भाजपा में भी एक
(पूर्व) बी एस येदुरप्पा हैं और संप्रग सरकार वाले शरद पवार के सामने एक नितिन
गडकरी खड़े हैं. ऐसे में भ्रष्टाचार के सवाल पर कांग्रेस की यह जीत न केवल
विकल्पहीनता की जीत है बल्कि एक ईमानदार राजनैतिक विकल्प की अनुपस्थिति का स्वीकार
भी है.
पर इस जीत का एक और मतलब भी है. यह कि अस्मितागत
पहचानों के बहुलवादी संघर्ष अब धीरे धीरे साम्प्रदायिक राजनीति द्वारा किये जाने
वाले ध्रुवीकरण पर भारी पड़ने लगे हैं. भाजपा को कायदे से यह सन्देश उसको प्राणवायु
देने वाले उत्तर प्रदेश और बिहार जैसे प्रदेशों में अपने सिमटते जाने से ही समझ
लेना चाहिए था. कभी राम मंदिर जैसे भावनात्मक मुद्दों पर भारी जन उभार खड़ा कर पाने
वाला यह दल की अपने इन पूर्व गढ़ों की जमीन कांग्रेस ने नहीं बल्कि सामाजिक न्याय
के विमर्श के साथ लड़ रहे अस्मितावादी (और एक हद तक जातीय बुनियाद वाले भी) दलों ने
छीनी थी. और साफ़ शब्दों में कहें तो धर्म नाम के बड़े महा-आख्यानी विमर्श को उससे
छोटी पर वैयक्तिक स्तर पर ज्यादा करीबी पहचानों ने मात दे दी है. कर्नाटक में भी
छोटे ही स्तर पर सही यह हुआ है.
वहां भी चुनाव में धर्म की जगह लिंगायत और
वोक्कालिंगा जैसी जातीय पहचानें बड़ी भूमिका निभाती हैं और यही वह जगह है जहाँ
नितिन गडकरी को बचाने की हर संभव करने वाली भाजपा का येदुरप्पा के साथ व्यवहार एक
भ्रष्ट मुख्यमंत्री को सजा की तरह नहीं बल्कि एक समुदाय के साथ अपमान की तरह देखा
जाता है. अब ऐसे में वोक्कालिंगा जैसे अन्य समुदाय सशक्त तरीके से किसी और दल के
साथ खड़े हों तो परिणाम लगभग तय ही हो जाते हैं.
भाजपा ने वहां से यह सबक भले न सीखा हो उसे यह
तो देखना ही चाहिए था कि इस देश में घृणा और नफरत पर आधारित राजनीति को वह जनता
नकार रही है जो उस राजनीति से सबसे ज्यादा प्रभावित होती है. उसके लिए चुनाव साफ़
भी है, आखिर दंगों से लेकर साम्प्रदायिक हिंसा के तमाम और प्रतिफलन उसकी ही दिहाड़ी
मारते हैं उसकी ही जिंदगी को मुश्किल में डालते हैं. उसे यह भी दीखता है कि
‘लुटियन’ दिल्ली की कोठियों में रहने वाले उच्च वर्ग से लेकर गुडगांव जैसे शहरों
में ‘गेटेड कम्युनिटीज’ में रहने वाला मध्यवर्ग अक्सर उस हिंसा से बचा रहता है.
ऐसे में नरेन्द्र मोदी को मुख्य प्रचारक बना कर,
उनके समर्थन में सोशल मीडिया से लेकर अपने राष्ट्रीय सम्मेलनों तक में उन्माद खड़ा
कर भाजपा आम जनता को डरा ही रही थी उसे अपने करीब नहीं ला रही थी. दीवाल पर लिखी
इबारत साफ़ थी कि 2002 के बाद हुए चुनावों में भाजपा ने गुजरात
चाहे तीन बार जीता हो देश दो बार हारा है. इसमें यह दंश और जोड़ दें कि 2004
तक सत्तासीन रही भाजपा को यह हार एक वंशवादी नेतृत्व वाली सिर से
पाँव तक भ्रष्ट राजनैतिक दल से मिली है तो तस्वीर और साफ़ हो जाती है.
वह तस्वीर जो भाजपा के ही सहयोगी जनता दल
यूनाइटेड के नीतीश कुमार को साफ़ दिखती है. उन्हें पता है कि बिहार में वह तभी तक
जीत सकते हैं जब तक एक ऐसी विभाजनकारी शख्सियत को दूर रखें और वह उन्होंने किया
भी. लोकसभा चुनाव के करीब आते जाने के इस दौर में नीतीश कुमार के मोदी पर बढ़ते
हमलों में भी यह सन्देश स्पष्ट है, इस हद तक कि रथयात्रा के जिम्मेदार रहे
लालकृष्ण आडवाणी को स्वीकार कर सकने वाला दल भी मोदी के खिलाफ किसी हद तक जा सकता
है. ठीक यही सन्देश भाजपा को 2006 में उदीषा में हुई साम्प्रदायिक हिंसा
के बाद बीजू जनता दल के उसका साथ छोड़ देने से भी लेना चाहिए था.
और यह सब तब हो रहा है जब वैश्विक भू-राजनीति के
चलते लाटिन अमेरिका को छोड़ दुनिया दक्षिणपंथ उभार पर है. फिर भाजपा के साथ ऐसा
क्यों हो रहा है? इसलिए क्योंकि दुनिया भर में दक्षिणपंथ नहीं, विनम्र दक्षिणपंथ
जीत रहा है, वह दक्षिणपंथ जो सामुदायिक हमलावर छवि को तोड़ते हुए आर्थिक रूप में
दक्षिणपंथी हुआ है. कमाल यह है कि भारत में मनमोहन सिंह के लाये आर्थिक दक्षिणपंथ
की विचारधारा पर कांग्रेस का ही कब्ज़ा है और स्वदेशी छोड़ विनिवेश मंत्रालय तक बना
देने के बावजूद भाजपा उससे यह जगह छीन नहीं पायी है.
कर्नाटक की हार भाजपा के आपसी लड़ाई का नतीज़ा थी और कुछ नहीं. जिस दिन भी दोनों गुट एक हो जायेंगे, दक्षिण में फिर से दक्षिणपंथ लहलहाएगा. सदा की तरह विशिष्ट रूप में लिखा गया गलत विश्लेषण.
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