खेतों में नहीं उगते माओवादी.

क्यों कोई बनता है माओवादी शीर्षक से दैनिक जागरण, राष्ट्रीय संस्करण में
30 मई २०१३ को प्रकाशित लेख का विस्तारित रूप.
दैनिक समवेत शिखर में 15 जून 2014 को पुनर्प्रकाशित]

हत्यायें हमेशा घृणित होती हैं. बर्बर तरीके से की गयी हत्यायें और भी ज्यादा क्योंकि हर हत्या इंसानियत कम करते हुए सबको थोड़ा कम इंसान और थोड़ा ज्यादा पाशविक बनाती है, हत्यारे को भी, शिकार को भी और देख रहे लोगों को भी. इसीलिये सुकमा में परिवर्तन यात्रा से लौट रहे काफिले पर बर्बर और अमानवीय हमला कर 22 लोगों को मौत के घाट उतार देने वाला माओवादी हमला एक कायराना और घृणास्पद हरकत है जिसकी तीखी भर्त्सना नहीं होनी चाहिए बल्कि ‘निर्दोषों की हत्या के लिए खेद जताने वाले उनके माफीनामे के बावजूद जिसके जिम्मेदार लोगों को सजा भी मिलनी ही चाहिए. (माओवादियों ही नहीं बल्कि फर्जी मुठभेड़ों में बार बार निर्दोष आदिवासियों को मार आने वाले सैनिकों के साथ भी यही होना चाहिए.)

वजह यह कि ऐसे बर्बर हमलों को किसी आधार पर न्यायोचित नहीं ठहराया जा सकता फिर वह आधार चाहे  राज्य और माओवादियों के बीच चल रहे इस लगभग गृहयुद्ध में फंस गए निर्दोष और निरीह आदिवासियों के ऊपर वहशियाना हमलों, हत्यायों और बलात्कारों के जिम्मेदार महेंद्र करमा की उपस्थिति ही क्यों न हो. महेंद्र करमा भले ही दोष सिद्ध अपराधी न हो पर इन अपराधों में उसकी संलिप्तता इतनी असंदिग्ध रही है कि उसके बनाए सलवा जुडूम को माननीय सर्वोच्च न्यायलय ने गैरकानूनी क़त्ल करने वाला मिलिशिया बता के भंग कर दिया था. पर यह भी माओवादियों ही नहीं किसी को भी उनकी जान लेने का अधिकार नहीं देता. इस बात को और साफ़ करें तो भले ही देश का क़ानून दुर्लभतम मामलों में ‘विधि द्वारा स्थापित सम्यक प्रक्रिया के अनुसार’ अपराधियों के जीवन का अधिकार छीन लेने की अनुमति देता है परन्तु मानवाधिकार विमर्श तो उसके भी खिलाफ ही खड़ा है. अब ऐसे में किसी की भी हत्या को कोई उचित कैसे ठहरा सकता है? करमा राज्य का अपराधी था और उसे राज्य से ही सजा मिलनी चाहिए थी बशर्ते राज्य खुद ही अपराधियों का आना हो गया हो. 

पर यह कह चुके होने के बाद भी यह हमला तमाम बड़े सवाल खड़े करता है और उन सवालों से सीधी मुठभेड़
किये बिना राज्य और माओवादियों दोनों की तरफ से आम नागरिकों की जान की कीमत पर लड़े जा रहे इस युद्ध को ख़त्म करने की कोई संभावना नहीं बनेगी. उनमे से पहला सवाल यह है कि सैकड़ों की तादाद में आकर अपनी भी जान की कीमत पर हमला करने वाले यह माओवादी कौन हैं? बेशक राज्य अपने भोथरे तर्क में अकसर उन्हें ‘बाहरी’ बताने की कोशिश करता है पर फिर ‘बाहरी’ होने का यह तर्क भी बस आंध्र प्रदेश तक पंहुचता है और आंध्र भी किसी और देश का नहीं भारत का ही हिस्सा है. मतलब साफ़ है कि यह माओवादी भी भारत के ही नागरिक हैं और उनकी जंग अपने ही राष्ट्र के खिलाफ जंग है.

दूसरा सवाल यह कि अपने ही राष्ट्र के खिलाफ लड़ रहे यह लोग कहाँ से आते हैं? यह तो तय है कि माओवादी उन्हें खेतों में नहीं उगाते, न ही उनके पास माओवादी लड़ाके तैयार करने वाली कोई असेम्बली लाइन वाली फैक्ट्री है सो वह भी अपने ही समाज से आते होंगे. फिर ऐसा क्या है जो उन्हें ऐसे नैराश्य से भर रहा है, उनको अपना जीवन देने और दूसरों का लेने वाली अतिवादी और अंतहीन हिंसा की तरफ धकेल रहा है? ऐसा क्या है जो उनकी नजर को इस हद तक बाँध के रख रहा है कि वह समझ ही नहीं पा रहे हैं कि उनके इस ‘वर्ग संघर्ष’ में उनके ठीक सामने खड़ा दुश्मन उनके ही वर्ग के किसी पुरबिया किसान का बेटा होता है या किसी तरह से जीवन चला लेने के लिए बेहद कम तनख्वाह देने वाली नौकरी की वर्दी पहने उत्तर पूर्व का कोई गरीब आदिवासी नौजवान होता है. बेशक सुकमा हमले में माओवादियों के मुताबिक शासक वर्ग से आने वाले कुछ लोग भी मारे गए हैं पर अक्सर तो वह जंग से बहुत दूर सुरक्षित स्थानों में बैठ पैदल सिपाहियों की ही आहुति दे रहे होते हैं.

इस हमले पर आयी प्रतिक्रियायों पर ही गौर करें तो यह नुक्ता और साफ़ हो जाएगा. सोचिये कि अगर दंतेवाड़ा के चिंतलनार में 76 जवानों को मारा जाना लोकतंत्र पर हमला नहीं था तो यह वाला क्यों है? इसलिए क्योंकि वह जो मारे गए थे देश का राजनैतिक नेतृत्व नहीं बल्कि पैदल सिपाही थे? क्या इसलिए कि इस देश का लोकतंत्र नेताओं के अपने शरीरों में सिमट गया है? मतलब यह कि निशाने पर नेता हों तो निशाने पर लोकतन्त्र है (संसद हमला- करमा काण्ड) और वर्दी पहने सिपाही तो बस एक छोटा मोटा हादसा?

तीसरा सवाल यह कि अपने घरों के भीतर सुरक्षित बैठे खबरिया चैनलों द्वारा पैदा किये गए उन्माद के सहारे बदला लेने पर उतारू शहरी मध्यवर्गीय को क्या इस मुद्दे पर बोलने का नैतिक अधिकार भी है या नहीं? दूसरों की जान की कीमत पर बदला लेना बहुत आसान होता है, दूसरों की जान की इज्जत कर समस्या को ऐसे सुलझाना कि जानें जाने की नौबत ही न आये बहुत मुश्किल. और ऐसे सुलझाने के रास्ते में बिजली पानी जैसी शहरी मध्यवर्ग की वह सहूलियतें आ जाती हैं जो आदिवासी इलाकों से आदिवासियों को ही बेदखल किये बिना पूरी नहीं होतीं. और आसान शब्दों में कहें तो यह विकास बनाम आदिवासियों के विस्थापन का सवाल है जो ऐसे हिंसक मोहभंग का सबब बनता है.

इस मोहभंग का मूल कारण यही है कि देश की सत्ता ने, फिर वह किसी भी राजनैतिक दल की क्यों न हो, शांतिपूर्ण और अहिंसक आन्दोलनों की आवाजों को सुनना बंद कर दिया है. शहरी मध्यवर्ग भले न देख पा रहा हो, बस्तर के आदिवासी साफ़ देख पा रहे हैं कि कैसे राज्य सत्ता ने नर्मदा घाटी के लाखों आदिवासियों के शांतिपूर्ण आन्दोलन को ही नहीं माननीय सर्वोच्च न्यायालय के जमीन के बदले जमीन का मुआवजा देने तक उन्हें विस्थापित न करने के फैसले तक को दरकिनार कर उन्हें डुबो दिया। वह देख रहे हैं कि कैसे ओडिशा के नियमगिरि से पश्चिम बंगाल के नंदीग्राम तक कारपोरेट हितों के लिए समुदायों की बलि चढ़ाई जा रही है. फिर वह इस बलि के पीछे राडियागेट से कोल-गेट तक जाने वाला राजनैतिक नेतृत्व का भ्रष्टाचार भी देख रहे हैं. वह देख रहे हैं कि कैसे विचारधारा और दलीय राजनीति के खेमों के पार जाकर राज्य प्रशासन शांतिपूर्ण प्रतिरोधों का पुलिसिया दमन कर रहे हैं. उन्हें समझ आ रहा है कि हीराकुंड और भाखड़ानांगल से लेकर नर्मदा घाटी तक इस देश में हुए हर विकास की कीमत आदिवासियों से बिना उनको न्यायोचित मुआवजा दिए वसूली गयी है और अब तो यह कीमत उनके अस्तित्व तक ही आ पंहुची है.

उन्हें इस व्यवस्था से न्याय की उम्मीद नहीं बची है और यही वह मोहभंग है जिसका फायदा माओवादी उठा रहे हैं. दूसरे शब्दों में कहें तो यह भ्रष्ट नेतृत्व के दौर में आदिवासियों का इन्साफ से उठ गया यकीन है जो उनके हाथों में माओवादी बंदूकें पकड़ा रहा है. सलवा जुडूम को नागरिकों द्वारा नागरिकों का क़त्ल करने वाली निजी सेना बताने के बावजूद किसी अपराधी को दंड न देने वाले सर्वोच्च न्यायालय के फैसले से उनके अत्याचारों का शिकार गैरमाओवादी आदिवासियों को क्या सन्देश गया होगा? या फिर उन तमाम मुठभेड़ों से जिनमे अर्धसैनिक बल निर्दोष नागरिकों की फर्जी मुठभेड़ों में हत्या कर आते हैं और सजा तो दूर उनके खिलाफ जांच तक नहीं होती? याद रखें कि ऐसी अंतिम घटना सुकमा हादसे के सिर्फ हफ्ते भर  पहले हुई थी जिसमे सीआरपीएफ ने किशोरों समेत निर्दोषों को गलती से मार देने की बात स्वीकारी भी थी.

इसीलिए यह लड़ाई दमन के खिलाफ न्याय मांग रहे इसी देश के नागरिकों की लड़ाई है और सत्ता और दमन से इसे हार ही सकती है जीत नहीं. आदिवासियों को उनकी जमीन पर रहने का हक दीजिये, उनके जंगलों पर उनका संविधानसम्मत अधिकार सुरक्षित करिए और फिर देखिये कि कोई माओवादी उन्हें कैसे बरगला( आपके अनुसार) पाता है. जंगें फौजों से नहीं यकीन से जीती जाती हैं और जिस दिन राज्य ने अपने ही नागरिकों का वह यकीन वापस जीत लिया उस दिन माओवाद अपने आप ध्वस्त हो जाएगा. इस मसले का और कोई दूसरा, सैनिक समाधान नहीं है और जो लोग ‘श्रीलंका समाधान’ याद दिला रहे हैं वह यह समझ लें तो बेहतर कि श्रीलंका में लड़ाई सिंहल बहुमत और तमिल अल्पमत नाम के दो समुदायों में थी. अब वह भी आदिवासियों को ‘अन्य’ मानते हों तो बेशक सैन्य समाधान करने की सोचें. 

पर फिर वह यह भी याद रखें कि माओवादी भी यही चाहते हैं क्योंकि राज्य निर्दोषों का जितना दमन करता है उन्हें उतने कैडर मिलते हैं और जंगल में दोषी-निर्दोष पहचानना लगभग असम्भव है, इतना असंभव की चिंतलनार में मारे गए 76 जवानों की हत्या के आरोप में गिरफ्तार किये गए सभी दस आरोपियों को इसी जनवरी में अदालत ने बेक़सूर बता कर बाइज्जत बरी कर दिया था. सोचिये कि बेवजह गिरफ्तार होने और पुलिसिया यातना सहने के बाद अब उनकी सहानुभूति कहाँ होगी?

Comments

  1. sainiko ko to vaise hi istemal kiya jata hai, jaise jagirdari aor samanti log apne karindo ko apni rayyat pr aatank banaye rakhne aor unko apna bandhuva mazdoor banaye rakhne ke liye istemal krte the, karinde palne ki soch aaj bhi sarkar ko usi mansikta me le jaa rahi hai. aam aadmi ko aadmi se ladao aor desh pr shasan karo, loktantra ke nam hai lekin logo ka gala kata ja raha hai, logo ke adhikar aor unki zindagi ki khushiya chhini ja rahi hain. vicharo me badlav nahi aaya, angrez to fir bhi inse achchhe the, jo bato ko samajhne ki koshish krte the, ye to apne swarth ko doosro ko jhoot ka sahara lekar samjhane ki aaj tk koshish kar rahe hain, aor apna ghar daulat se bhar rahe hain.

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  2. बहुत बड़ी गड़बड़ है।
    पूरे देश में जीरो बटा सन्नाटा है। मुझे अपने शहर की 10 लाख से अधिक की आबादी में एक व्यक्ति नहीं मिला जिसे इस कांड में मरने वालों के प्रति सहानुभूति हो। माओवादियों के हाथों मारे गए सैनिक बलों को मिलने वाली सहानुभूति जितनी भी नहीं।

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  3. तथापि हिंसा -नरमेध का औचित्य कैसे सिद्ध किया जा सकता है समर?

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  4. अरविन्द दा- किसी का बचाव नहीं कर रहा हूँ, बस यह कह रहा हूँ कि यह हो क्यों और कैसे रहा है।

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  5. desh me satta ab aam aadmi ke hito ko dhyan dene ke bajay corporate ki hito ka dhyan rakh rahi hai, ye desh ke loktantra ke liye bahut khatarnak hai,

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  6. समय बड़ा कारसाज है वह बेहिसाब का भी हिसाब कर देता है , खैर छोडिये आम आदमी दुखी नहीं है , आम पुलिस भी दुखी नहीं है , आम नेता से ले कर ख़ास नेता और अफसर ठेकेदार सप्लायर बेहद दुखी है ...........

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  7. समय बड़ा कारसाज है वह बेहिसाब का भी हिसाब कर देता है , खैर छोडिये आम आदमी दुखी नहीं है , आम पुलिस भी दुखी नहीं है , आम नेता से ले कर ख़ास नेता और अफसर ठेकेदार सप्लायर बेहद दुखी है ...........

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  8. समय बड़ा कारसाज है वह बेहिसाब का भी हिसाब कर देता है , खैर छोडिये आम आदमी दुखी नहीं है , आम पुलिस भी दुखी नहीं है , आम नेता से ले कर ख़ास नेता और अफसर ठेकेदार सप्लायर बेहद दुखी है ...........

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  9. kaafi umda article hai...kaafi kuchh sikhne ko mil jata hai aapke articke se..laal salam

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  10. Jinhe aisa lagta hai ki naxali jangal me maze loot rahe hain to wo khud hi kyon nahi chal dete jangal ki or apna karobar badhane...mujhe aisa lagta hai ki hamare aas-paas jo tathakathit shoshak log paaye jate hain wahi ashantushton ko paida karte...inki badmashi ki bhi had hai ki ye ashantushton ko to paida karte lekin inki ashantushti inhe bardast nahi hoti...ye naye kalevar ke samant hain jinki badmashi taad pana jara mushkil kaam hai...baharhal bahut achchha lekh laga samar bhaiya aapka...ek baar padh liya lekin dubara jaroor padhoonga...jo samajh me nahi aaya use dubara samjhne ki koshish karoonga.................jai hind...............

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  11. Bahut badiya article h Samar bhaiya

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  12. Bahut badiya article h Samar bhaiya

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