सत्ता जंगल में माओवादियों को निर्दोष आदिवासियों से अलग पहचानती कैसे है?

कवासी लखमा एक आदिवासी हैं, उन लाखों सामान्य आदिवासियों की तरह जो मध्य भारत में चल रहे लगभग गृहयुद्ध में फंसे हुए हैं. पर फिर, वह उनमे से एक नहीं भी हैं. वह छत्तीसगढ़ के एक विधायक भी हैं, भले ही राज्य में विपक्षी दल कांग्रेस का होने की वजह से बहुत ज्यादा ताकतवर न हों पर हैं तो विधायक. लखमा भी सुकमा से लौट रहे उसी कांग्रेसी काफिले का हिस्सा थे जिसपर दरबा घाटी में माओवादियों ने घात लगाकर वहशियाना हमला किया था. पर यहाँ जरा ठहरें, वहशियाना? क्या उस हमले को जिसमे माओवादियों ने सैकड़ों लोगों को छोड़ दिया, कुछ घायलों की मरहमपट्टी की, कुछ को पानी पिलाया वहशियाना हमला कहा जा सकता है? पर छोड़िये, माओवादियों के ऊपर हवाई बमबारी मांगते वहशी एंकरों के दौर में जुबान किसी की भी फिसल सकती है, मेरी भी.

बखैर, लखमा साहब उसी काफिले का हिस्सा थे जिसके राष्ट्रीय स्तर के नेताओं से लेकर तमाम लोग बागी बंदूकों की गोलियों का शिकार हुए. बल्कि हिस्सा ही नहीं, वह काफिले की अग्रिम पंक्ति में मौजूद कारों में से एक में थे. मौके से आयी बेवकूफाना और अक्सर एक दूसरे की बातों को खारिज करती आँखों देखी रिपोर्टों के मुताबिक उसी कार में जिसमे प्रदेश कांग्रेस अध्यक्ष नन्द किशोर पटेल अपने बेटे के साथ मौजूद थे. माओवादियों ने लखमा का अपहरण भी पटेल और उनके पुत्र के साथ किया था. और लखमा की मानें तो उनके मना करने के पहले ही नंदकिशोर पटेल जी अपना असली परिचय माओवादियों को दे चुके थे. उसके बाद की बातें कुछ धुंधली जरूर हैं पर फिर जितना हिस्सा साफ़ है वह यह कि माओवादियों ने पिता पुत्र की निर्मम हत्या करने के पहले लखमा और कार ड्राइवर को छोड़ दिया था. ठीक वैसे ही जैसे महेंद्र करमा को पकड़ने वाले दस्ते ने वहां मौजूद और तमाम लोगों को छोड़ दिया था.

पर फिर, यहीं आकर लखमा और किसी और में समानता ख़त्म हो जाती है. यही वह जगह है जहाँ करमा के साथ वाले छोड़ दिए गए लोगों के ठीक उलट लखमा संदिग्ध हो जाते हैं, मीडिया में रोपी जा रहे षड़यंत्र सिद्धांतों का मुख्य निशाना हो जाते हैं.  हद यह कि जब कोई इस हमले के चश्मदीद, महेंद्र करमा के बेहद करीबी और सलवा जुडूम के बड़े नेता सत्तार अली तक से कोई नहीं पूछता कि वह क्यों छोड़ दिए गए, लखमा शक्की आँखों में किरकिरी की तरह चुभ रहे हैं. लखमा को छोड़ देने की हजार वजहें हो सकती हैं. सबसे बड़ी यह कि लखमा अक्सर पुलिस द्वारा पकड़े गए निर्दोष आदिवासियों की आवाज उठाते थे, उन्हें छुड़ाने की कोशिश करते थे. पर न, यह कोई नहीं देखेगा. यह भी कि अंततः वह भी आदिवासी हैं, माओवादियों से गोंडी में बात कर रहे थे और हो सकता है कि माओवादियों ने उन्हें यही समझ कर छोड़ दिया हो. 


लखमा पर शक होना लाजिमी है. वह आदिवासी हैं, इसीलिए सदैव संदिग्ध हैं. भले ही इस गृहयुद्ध में उन्होंने राज्य का सत्ता का पाला चुन लिया हो, उनकी विश्वसनीयता असंदिग्ध हो ही नहीं सकती. और यही है जो इस युद्ध की नियति भी है और निमित्त भी. यह वह युद्ध है जहाँ महेंद्र करमा जैसे ‘मांझी’ (अति-संपन्न, अन्यों को उधार बांटने वाले) आदिवासियों की आवाज बन जाते हैं. वे जिन्हें टीक तस्करी से लेकर अति गंभीर अपराधों में संलिप्तता के चलते जेल में होना चाहिए था वे ‘माननीय महेंद्र करमा जी’ हो जाते हैं. इसके ठीक विपरीत आम आदिवासी जंगल से उठाई लकड़ी की ‘चोरी’ के आरोप में गिरफ्तार होता है, बिना जमानत जेल में सड़ता है.

बेशक करमा की हत्या गलत है, कायराना है. पर फिर जो समाज अपने एक हिस्से को न्याय से वंचित कर रहा होता है वह समाज कंगारू कोर्ट्स भी पैदा कर रहा होता है. वह समाज जो अपने एक हिस्से पर हवाई बमबारी की मांग कर रहा होता है, वह समाज जो लाखों आदिवासियों को सिर्फ ‘कोलैटरल डैमेज’ मान उनके सामूहिक आखेट की तैयारी कर रहा होता है वह अपनी कब्र भी खुद ही खोद रहा होता है. वह समाज जो ‘श्रीलंका समाधान’ करने की हुंकारें भर रहा होता है वह खुद को तीस बरस लम्बी हिंसक सुरंग में भी धकेल रहा होता है.

बेशक माओवादी हाथों में हथियार हैं, पर फिर सीआरपीएफ भी तो गुलदस्ते लिए नहीं घूम रही न. माओवादी संविधान नहीं मानते पर यह राज्य तो संविधान की कसम खा कर बैठा है? वह कैसे मरने दे रहा है सैकड़ों निर्दोषों को? कैसा गृहमंत्री है जो 16 निर्दोषों की हत्यायों पर सिर्फ ‘वेरी सॉरी’ कहकर चुप बैठ जाता है, वर्दी वाले हत्यारों की सजा की कौन कहे जांच तक नहीं करवाता.

यही वह जगह है जहाँ यह युद्ध अटका पड़ा है. जंगल में आदिवासी और माओवादी पहचानना इतना आसान नहीं है साथी. ठीक वैसे जैसे शहरों की संभ्रांत बस्तियों वाले नागरिकों से झुग्गी झोपड़ियों वाली भीड़ पहचानना. ठीक वैसे जैसे सीआरपीएफ जब तब अपने त्योहार मना रहे आदिवासियों को माओवादी समझ उनपर गोलियां बरसा आती है. ठीक वैसे जैसे लखमा आदिवासी हैं सो शक के घेरे में हैं.

ठीक वैसे जैसे वह 10 आदिवासी थे जिन्हें पुलिस ने चिंतलनार में 76 सीआरपीएफ जवानों की हत्या के आरोप में गिरफ्तार किया था और जो तीन बरस बाद इस साल जनवरी में बाइज्जत बरी हो गए. सोचिए कि पुलिस वालों की हत्या के आरोपी उन निर्दोष आदिवासियों से पुलिस ने थाने में कैसा सुलूक किया होगा और उस सुलूक के बाद उनकी सहानुभूति किधर होगी.  आप निर्दोष पकड़ते रहिये, मारते रहिये, माओवादी पैदा होते रहेंगे.

कर सकिये तो आदिवासियों पर शक करना बंद करिए. कर सकिये तो उन पर गोलियां बरसाना बंद करिए. कर सकिये तो उनके मुर्गे चुराना बंद करिए. कर सकिये तो उनकी बेटियों से बलात्कार करना बंद करिए. कर सकिये तो उन्हें उनकी ही जमीनों से बेदखल करना बंद करिए. कर सकिये तो उनके संसाधन जिन्दलों, टाटाओं, अम्बानियों, बजाजों को देना बंद करिए. आप यह कर पाए तो ख़त्म हो जाएगा माओवाद.

पर न. आप यह करेंगे नहीं. आपके पास भी तो पैदल सिपाही बहुत हैं न, आपका युद्ध अपनी जान दे कर लड़ने के लिए. 

Comments

  1. नक्सल समस्या की तह तक जाता एक आलेख.

    ReplyDelete
  2. जमीनी हकीकत है यह.

    ReplyDelete
  3. वे सब कवासी लखमा पर ऐसे टूट पड़े हैं गोया "ठहर गये काफिले पर फटेहाल बरसती हुई गोलियां कवासी लखमा को पहचान पहचान कर जीवित छोड़ती जा रहीं थीं"

    ReplyDelete
  4. Mujhe samajh me nahi aa raha hi ki , aapki lekh ki tarif kaise karu? Sunder nahi likh sakti , adbhut bhi thik nahi lag raga.Bebak kahna choti tarif hogi.

    ReplyDelete

Post a Comment