एक था आडवाणी उर्फ़ प्रधानमंत्री न हुए सपनों का शोकगीत


जी हाँ. एक था आडवाणी. बिलकुल एक था टाइगर वाले अंदाज में. अब कहने को तो मैं भी ‘मुख्यधारा’ की मीडिया की तरह उसे आडवाणीजी भी कह ही सकता था पर फिर उसकी याद आती है तो उसके रथ के पहियों से खुदी खून की नहरें याद आती हैं और मैं किसी पोलिटिकल करेक्टनेस के लिए हत्यारों को जी नहीं कह सकता. वैसे भी सभ्यता के विमर्श दूसरों के खून से इतिहास लिखने वालों पर लागू नहीं होते.  

सो साहिबान, बात हो रही थी आडवाणी की. लौहपुरुष की. महाशक्तिशाली की. उस आदमी की जिसने जिन्दगी भर दूसरों को त्याग का उपदेश देते हुए भी अपनी नजरें एक कुर्सी पर गड़ाये रखीं. एक बार तो खैर बिचारा बहुत करीब भी पंहुच गया था पर फिर उसके और उसकी कुर्सी के बीच एक ब्राह्मण खड़ा था. बेचारे लौहपुरुष को कुर्सी नहीं‘उप’ का ठेंगा जरुर मिला था.  

वैसे साहिबान ये लौहपुरुष बड़े अजीब किस्म का लौहपुरुष है. ऐसा कि इसका मजाक वह आदमी भी उड़ा के चला जाता है जिसका मजाक बनाते इस देश के सवा अरब लोग नहीं थकते. समझे कौन? अरे वही अपने मनमोहन साइलेंसर सिंह. ईमानदार प्रधानमंत्री साहब. अब यह मजाक न लगा हो तो असली मजाक सुनिए. साइलेंसर भैया ने एक बार भरी संसद में आडवाणी को परमानेंट प्राइममिनिस्टर इन वेटिंग का तमगा पकड़ा दिया था और तब से विद्वान् यह मानते हैं कि साइलेंसर सिंह का भारतीय राजनीति में इकलौता योगदान यही है.  

अब आप ज्यादा दिमाग लगा के यह न पूछने लगिएगा कि नयी आर्थिक नीतियाँ उनका भारतीय राजनीति को योगदान है या नहीं. मशीन और उसमे लगे नटबोल्ट मिस्त्री से आजाद होकर योगदान नहीं करते साहब और आप अपने साइलेंसर भैया विश्वबैंक और आईएमएफ की मशीन के नटबोल्ट से ज्यादा कुछ समझेंगे तो सवाल मुझ पर नहीं आपकी बुद्धि पर उठेगा. याद करिए कि साइलेंसर सिंह की नीतियों को लौहपुरुष वाली भाजपा ने और उत्साह से आगे बढ़ाया था. इतना कि रामभक्तों ने विनिवेश मंत्रालय नाम से देश बेचने का मंत्रालय ही बना दिया था. बाकी खबर यह है कि बनाना तो वह ‘देश बेचो मंत्रालय’ चाहते थे लेकिन नाम सुनने में थोड़ा कम स्वदेशी लगता.

देखिये. फिर भटक गया. सो साहिबान मसला यह कि सारा देश जिन साइलेंसर भैया का मजाक उड़ाता है वही साइलेंसर भैया भरी संसद में लौहपुरुष की पगड़ी उछाल के चले गए और उनके सारे गण इधर उधर देखते रहे. क्या सुषमा दीदी क्या यशवंत से लेकर जसवंत तक, बचाने तक न आया कोई मुआ.

फिर तो भैया पूछो ही मत. प्रधानमंत्री की कौन कहे हर ऐरा गैरा नत्थू खैरा लगा आडवाणी की टोपी उछालने. ऐसा कि किसी का खेलने का मन हो गया तो उसने उछाल दी लौहपुरुष की पगड़ी. किसी का मसखरी का मन हुआ तो उसने निकाल लिया जिन्ना का जिन्न बोतल से और दीवाली के राकेट टाइप दाग दिया आडवाणी के ऊपर. लौहपुरुष के साथ वही हुआ था जो बाहर रखे लोहे के साथ होता है. लौहपुरुष जंगी हो गए थे. न न, युद्ध वीर मार्का जंगी नहीं, लोहे पर जो लगती है न, भूरी भूरी वह वाले जंगी.

अब जंग ऐसी लगी की उनके चेले तक उनसे मसखरी पर उतर आये. हाय दुर्दिन! शुरुआत भी की तो किसने? उस मोदी ने जिसके फेकू होने की पहचान तब तक सार्वजनिक न हुई थी.  जिसको ठीक दस बरस पहले इसी गोवा में बचाने के लिए गलत पार्टी में बहुत गलत आदमी आडवाणी, गलत पार्टी में सिर्फ गलत बाजपेयी से भिड़ गए थे. वह भी ऐसे कि बाजपेयी बिचारे मार फेंचकुर फेक के राजधर्म चिल्लाएं चाहे रोम वाले नीरो की बांसुरी अहमदाबाद में बजाएं, आडवाणी न सुनें तो न सुनें. बस.

चेला बच गया साहब. और फिर चुकाया चेले ने अहसान. ऐसे की धीरे से इशारा किया गुरु को कि दद्दा, बहुत हो गया अब. प्रधानमंत्री बनने के गए दिन तुम्हारे सो रिंग में फेंकी अपनी टोपी उठा लो. दद्दा सुनें क्यों? चेले ने दिया फिर जोर का झटका धीरे से. नहीं आया दिल्ली में 2011 में हुई राष्ट्रीय कार्यकारिणी की बैठक में. कह दिया कि नवरात्रि मनाने में व्यस्त हैं. अब रामभक्त आडवाणी इस देवीभक्त का करते भी क्या.

करते तो बिचारे लौहपुरुष उनका भी क्या जिन्होंने मोहम्मद अली जिन्ना की मजार पर जाकर उनको सेकुलर होने का सर्टिफिकेट दे आने के जुर्म में उनको धकिया के, बेइज्जत करके कुर्सी से उतार दिया था. कैसे समझाते उन्हें कि जिन्ना मरहूम को सेकुलर सर्टिफिकेट की जरूरत हो न हो, आडवाणी बिचारे का कम से कम सेकुलर दिखना जरूरी था. उप था ठेंगा हटा प्रधानमंत्री पद को जाने वाली गली इसी रास्ते से गुजरती थी आखिर. पर संघियों ने माफ़ न किया अपने बुजुर्ग को. पहला गुनाह यह कि एक झटके में बुढ़ऊ ने उनकी बरसों की विचारधारा की मिट्टी पलीद कर दी थी. पर गुनाह-ए-अज़ीम ये कि सही इतिहास से नफरत करने वाले आरएसएस के इतिहास में पहली बार उनके किसी शोहदे ने सच को सच कहा था. ऐसे संगीन जुर्म की माफी होती है कहीं?

सो संघी टूट पड़े बेचारे पर. ऊपर से हवाओं में खून की महक भी तो थी. प्रधानमंत्री पद के एक उम्मीदवार को निपटा देने का मौका भी तो था. भले चुनाव पर चुनाव हारते रहें, भाजपाइयों से प्रधानमंत्री पद का सपना देखने का लोकतान्त्रिक अधिकार कैसे छीन सकता है कोई? सो साहिबान, भाईलोगों ने बुजुर्गवार को नेता विपक्ष पद से दफा किया फिर भाजपा अध्यक्ष से भी. मिशन कम्प्लीट वाली स्टाइल में.  

लेकिन आडवाणी न समझें तो न समझें. भाई ने फिर रथ निकाल लिया. अबकी बार भ्रष्टाचार के खिलाफ. बस बेचारा यह भूल गया कि इतिहास खुद को दोहराता है तो पहले त्रासदी फिर प्रहसन हो जाता है. 2011 का भारत 1992 का भारत नहीं था. यह टीवी पर रामायण-महाभारत देखने से बहुत आगे निकल आया समय था, तब जब जनता बिग बॉस में सन्नी लियोनी को देख भी अचंभित नहीं होती थी. यह मेटाडोर और असली रथ में फर्क समझने लगा भारत था. और फिर बेचारा भ्रष्टाचार पर बोलने निकला भी तब था जब बी एस येदुरप्पा माननीय मुख्यमंत्री थे.

खैर, प्रहसन तो यह भी था कि राम मंदिर के रास्ते कुर्सी तक पंहुचने के सपनों वाली यह यात्रा आडवाणी को अन्ना हजारे की नक़ल करने की हद तक उतार आयी थी. उस आडवाणी को जो हत्यारी भीड़ का ही सही, नेता तो था. उस आडवाणी को जिसके रथ के पीछे भीड़ दौड़ती तो थी ही भले ही इरादा सिर्फ मासूमों और बेगुनाहों के क़त्ल का हो. पर बेचारा आडवाणी करता भी क्या? हत्यारों का सबसे बेहतर नेता होने का तमगा भी उससे उसके चेले ने छीन लिया. अब चुनाव चाहे घटिया का ही हो, इंसानी फितरत सबसे बेहतर के साथ जाने की ही है.

सो भाईलोगों ने आडवाणी के रथ को काला झन्डा दिखाया, आडवाणी के भाषणों पर हँसे. कुछ ने तो रथ पर अंडे भी फेंके. भले लोग थे लेकिन, आडवाणी के शाकाहारी होने की खबर मिलने पर अण्डों को सड़े टमाटरों से बदल दिया. हद यह कि बेचारे लौहपुरुष को यह बेइज्जती उस पंजाब में भी झेलनी पड़ी जहाँ उसकी पार्टी अकालियों के साथ साझे की सत्ता में है. आलम यह कि आज टमाटर नहीं पड़े तो कल से बेहतर दिन. जयप्रकाश नारायण के शहर से खूनी रथयात्रा शुरू करने वाले के साथ यही होना भी चाहिए था.

मुझे बेचारे आडवाणी से कोई सहानुभूति नहीं है. मेरे मुल्क को जादूगरों, महाराजाओं और संपेरों का देश होने के अभिशाप से आगे बढ़ने के लिए आडवाणी जैसों का सार्वजनिक जीवन से बेइज्जत होकर जाना जरुरी भी है. 

Comments

  1. Ek secular bharteey ki 'Aah' hai ye lekh jise advani-marka khooni rajneeti ne 90 k baad kabhi chain se jeene nahi diya.
    Aur isi wajah se Advani ki is se bhi adhik durgati hona zaroori hai, warna us yukti ka kya hoga; "jo boya wo kata" !?

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  2. boya ped babul ka to aam kahan se paaye...

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  4. Jo bowo ge bhaiya wahi to kaato ge.......

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  5. मजेदार सटायर :)

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  8. Aapke ab tak ke padhe huye articles me ye mujhe best laga... lekin advani ke emotional hisse ke baare me batana aap bhul gye... bhale hi rath yatra me pahiyo ne khoon ke nishaan chore ho.. lekin ye wahi advani hai jo film 'taare zameen par' dekhte huye ro pade the... iss "sensitive" nature ko darkinar kaise kiya ja sakta hai??

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  9. Advaniji ne kab kisi k khoon ko bahaya hai ya use justify kia hai??? Haan Maoiston ko ji kehne waalon se Advani ji ke liye ji nikal sakta hai Kya??? aur kaunsa Aapke Mooh se jee sunane ko upaase baithe hai Advani ji...!!! Hum to aapko bhaiya kehte hai samar bhaiya, so jee lagane ki jarurat nahi..........!!!

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