जेएनयू उन बेशर्म, बाजारू और साम्प्रदायिक आँखों में चुभता हुआ भारत है. : जेएनयू 2

[ इस लेख का कुछ सवाल जेएनयू से भी शीर्षक से दैनिक जागरण में प्रकाशित पहला हिस्सा यहाँ पढ़ें]

जेएनयू.. यानी की जवाहरलाल यूनिवर्सिटी नाम की वह जगह जो कोई विकल्प नहीं है (There is no alternative- TINA) वाले देश बेचने निकले गद्दार व्यापारियों की आँखों में चुभती है. जेएनयू... यानी की वह जगह जो इसके पहले भारत को हिन्दू राष्ट्र बना देने निकले संघ कबीले की आँखों में गड़ती थी. इस कदर कि उसके प्रवीण तोगड़िया जैसे हरकारे इसे मदरसा बता के बंद कर देने के ऐलान करते रहते थे. जेएनयू यानी कि वह जगह जो उसके भी पहले भारत पर खानदानी राज चलाने के सपने देखने वाली इंदिरा गांधी और उसकी कांग्रेस की आँखों में चुभती थी. इस कदर कि इमरजेंसी के दौरान जितना कहर जेएनयू ने झेला उसकी किसी एक और विश्वविद्यालय पे बरपे कहर से तुलना करने की कोशिश करेंगे तो निराशा ही हाथ लगेगी.

अब सोचिये कि ये जेएनयू इतनी आँखों में क्यों चुभता है? सोचिये कि ‘धर्मनिरपेक्ष’ कांग्रेस और धर्मांध भाजपा के मन में इस विश्विद्यालय के लिए बराबर नफरत क्यों पलती है? इसलिए कि जेएनयू ने अपनी पैदाइश के बाद से ही अपने लिए जनता से कटे बुद्धिजीवियों का अड्डा होना नहीं बल्कि जनता के खिलाफ खड़ी हर राजनीति का सचेत प्रतिपक्ष होना चुना. और फिर प्रतिपक्ष तानशाही की ख्वाहिशों वाले हुक्मरानों की आँखों में चुभे न तो और क्या करे?

जेएनयू को अपनी रवायतें किसी बिरसे में नहीं मिलीं थी बल्कि जेएनयू के छात्रो ने अपना खून पसीना बहा के उन्हें गढ़ा है. वह रवायतें जो छात्रावासों की मेसों में हो रही गरमागरम बहसों के बीच किसी नए छात्र की तुर्श होती आवाज पहचान लेती थीं और फिर उसके ही खेमे के वरिष्ठ छात्र उसे डपट देते थे कि मियाँ.. ये जेएनयू है. यहाँ बहस बहस की तरह की जाती है संघियों और जमातियों की तरह नहीं सो हाथ जेब में डालो और जुबान चलानी शुरू करो, वह भी पढ़ लिख के.

वह रवायतें जो उच्च शिक्षा में आरक्षण लागू होने के लगभग दो दशक पहले ही जेएनयू में प्रोग्रेसिव एडमिशन पालिसी ((प्रगतिशील प्रवेश नीति) लागू करवा चुकीं थीं. यह भी कि यह उन्होंने प्रशासन से मिली किसी भीख की तरह नहीं बल्कि तब के आरक्षण विरोधियों के बर्बर और खूनी हमले झेलते हुए हासिल किया था. यह भी कि इस विषय पर आयोजित पहली यूनिवर्सिटी जनरल बॉडी मीटिंग (यूजीबीएम) हार जाने के बाद तब के जेएनयूएसयू ने आरक्षण विरोधी प्रस्ताव को लागू करवाने से इनकार करते हुए इस्तीफ़ा दे दिया था और फिर से प्रगतिशील एडमिशन पालिसी के लिए समर्थन जुटाने में लग गया था. फिर इस नीति में केवल सामाजिक रूप से पिछड़े हुए जातीय और सामाजिक समूह नहीं बल्कि सभी महिलायें और आर्थिक रूप से पिछड़े हुए क्षेत्रों से आने वाले छात्र भी शामिल थे.

जेएनयू मतलब वह सोच जिसने विशाखा विरुद्ध स्टेट ऑफ़ राजस्थान मुक़दमे में उच्चतम न्यायालय के फैसले के बाद जेंडर न्याय के लिए एक कमेटी बनाने के लिए न केवल संघर्ष किया बल्कि उसे छात्र-छात्राओं की यूजीबीएम से जीत के बनवाया भी. जेएनयू मतलब वह सोच जिसमे यौन उत्पीड़न को ईव टीजिंग या छेड़छाड़ (जैसे लड़कियों को भी इस ‘छेड़छाड़’ में मजा आता हो) वाले सहजबोध (common sense) वाले समाज में नवागंतुक छात्रों को यह सवाल दे दिया कि किसी लड़की को कितने सेंकंड तक घूरने पर ‘जीएसकैश (GSCASH उर्फ़ जेंडर सेंसिटाइजेशन कमेटी अगेंस्ट सेक्सुअल हैरेसमेंट) लग सकता है. (इसका सामान्य जवाब 8 सेकण्ड बना पर वह कैसे और क्यों बना इस पर फिर कभी).

न, यह मजाक की बात नहीं है. बेशक जीएसकैश केवल ‘केस’ करने तक सीमित नहीं है. उसकी जिम्मेदारी सबके संवेदीकरण तक जाती हैं पर फिर ‘मर्दों’ को डरा देना भी क्या कोई छोटी उपलब्धि थी? वह भी हिन्दुस्तान जैसे पितृसत्तात्मक समाज में? जेएनयू मतलब वह जगह जो देश की बलात्कार राजधानी दिल्ली में होने के बावजूद पूरे देश में महिलाओं के लिए सबसे सुरक्षित जगह थी, और इन दो हादसों के बावजूद है.

जेएनयू. यानी कि वह जगह जो साम्प्रदायिकता के खिलाफ लड़ाई का गढ़ है. वह सोच जो एसएसआर गिलानी को दिल्ली हाईकोर्ट से बाइज्जत रिहा होने के बाद न केवल एक पब्लिक मीटिंग के लिए बुला सकती है बल्कि उस मीटिंग पर एबीवीपी के हिंसक हमले को झेलकर सफलतापूर्वक वह मीटिंग करवा भी सकती है. जेएनयू मतलब वह जगह जो गुजरात 2002 के बाद भी संघी ख्वाहिशों का नकार बनी रह सकती है.

अब ऐसे में जेएनयू उन बेशर्म बाजारी साम्प्रदायिक आखों में न चुभेगा तो कौन चुभेगा? अफ़सोस बस यह कि इस बार यह मौका उन्हें हमारी गलतियों की वजह से मिला है. उन गलतियों का जिनका जिक्र पिछले लेख में किया है. पर फिर, जेएनयू हैं हम. गलतियों को स्वीकारने और उनसे लड़ने का नैतिक साहस है हममें. 



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