शर्मिंदा हैं कि तुम्हे हमारी चूकों की सजा मिल रही है जेएनयू.

[कुछ सवाल जेएनयू से भी शीर्षक से दैनिक जागरण में 08-08-2013 को प्रकाशित लेख का विस्तारित रूप]

अपनी जनपक्षधरता को लेकर सदैव चर्चित रहने वाली जवाहरलाल नेहरु यूनिवर्सिटी (जेएनयू) एक बार फिर चर्चा में है. अफ़सोस कि इस बार यह चर्चा एक सप्ताह के भीतर छात्राओं पर परिसर के भीतर हुए दो यौनहिंसक हमलों के लिए है. बेशक इन निंदनीय हमलों से बलात्कार राजधानी के नाम से मशहूर दिल्ली में होने के बावजूद देश भर में महिलाओं के लिए सबसे सुरक्षित जगह के बतौर जाने जाना वाला यह विश्विद्यालय ही नहीं बल्कि समूचा देश स्तब्ध है, आहत है. पर सवाल बनता है कि क्या इन दो घटनाओं से जेएनयू के अब तक के इतिहास को खारिज करते हुए इसे अपराध विश्विद्यालय घोषित करने जैसी सनसनी फ़ैलाने की कोशिशें जायज हैं?

इसी सवाल के जवाब में वह सूत्र मिलेंगे जो पूरे विश्विद्यालय की चरित्र हत्या करने की कोशिश कर रही ताकतों के असली मकसद के साथ साथ उनकी राजनीति को बेनकाब करते हैं. आखिर जेएनयू भारत का पहला विश्विद्यालय नहीं है जिसमे ऐसी घटनाएं हुई हैं. अब अगर यौन अपराधों के विश्विद्यालयवार आंकड़ें बनाने पर ही उतरना हो तो साल दर साल भारत के सर्वश्रेष्ठ विश्वविद्यालयों में शुमार होने वाला  दिल्ली विश्विद्यालय जेएनयू से बहुत आगे है पर उसे कभी यौन अपराध विश्विद्यालय नहीं घोषित किया गया.

बेशक इस तुलना की जरूरत पड़ना ही इस विश्वविद्यालय के लिए शर्म का बायस भी है और इस बात का सबूत भी कि जेनयू अपनी जिम्मेदारियाँ निभाने में कहीं तो चूक गया है. आखिर को जेएनयू इस देश के जनपक्षधर प्रतिपक्ष की रवायतें निभाने के लिए नहीं बल्कि उन्हें बनाने के लिए जाना जाता रहा है. पर फिर इन हमलों को लेकर लगभग निंदा अभियान चला रहे जमावड़े पर नजर डालें और तस्वीर कुछ बदलती दिखती है. उसमें विपरीत ध्रुवों पर खड़े हुए राजनैतिक लोग एक असम्भव से गठबंधन में हैं. उसमे वेब मीडिया के नाम पर पीत पत्रकारिकता कर रही दैनिक भास्कर जैसे बेशर्म मीडिया समूह हैं. कोल गेट दलाली से लेकर रियल एस्टेट घोटालों के लिए जांच की जद में घिरे वह बिकाऊ अखबार जो अपनी वेबसाइट्स पर अपराध नहीं बल्कि जेएनयू पर केन्द्रित स्त्रीद्वेशी शीर्षकों के साथ तथ्यहीन और अश्लील ख़बरें चलाती हैं जिनमे पहले हमले के आरोपी के सुसाइड नोट का ‘हमारे बीच बहुत कुछ था’ सेक्स किये जाने में बदल जाता है.

गोकि वेब मीडिया की अनैतिकता के इस दौर में यह पूछना बेमानी ही है कि मौत से जूझ रही एक लड़की के निजी जीवन पर ऐसी असंवेदनशील, तथ्यहीन और हमले से बिलकुल असंगत टिप्पणी करने का साहस वह कहाँ से लाते हैं. हाँ ऐसे शीर्षक दो बातों की तरफ इशारा जरूर करते हैं. पहला यह कि कुछ मीडिया प्रतिष्ठान अपनी वेबसाइटों पर आवाजाही बढाने के लिए पत्रकारीय नैतिकता से समझौता करते हुए किसी भी हद तक गिरने को तैयार हैं. दूसरा यह, कि जब सिनेमा से लेकर सोशल मीडिया तक पर अश्लील और अन्य आपत्तिजनक चीजों के खिलाफ जांच और कारवाई की व्यवस्था मौजूद है तो वेब मीडिया के लिए ऐसी कोई प्रक्रिया क्यों नहीं है?

खैर, अब इन घटनाओं की रोशनी में जेएनयू से भी कुछ सवाल बनते हैं. यह कि आर्थिक सुधारों से लेकर यौन हिंसा और जातीय उत्पीड़न तक का कोई विकल्प नहीं है के नारों के दौर में प्रतिरोध का एक जीवंत ढांचा देने वाले इस विश्विद्यालय को अचानक क्या हो गया है? पत्रकार दोस्त अरविन्द शेष के शब्दों में पूछूँ तो जिस जेएनयू के अन्दर के सामाजिक व्यवहार के आदर्श प्रतिमानों को समाज में फैलना चाहिए था, लगातार गिर रहे नैतिक मूल्यों वाला समाज उस जेएनयू में कैसे फैलने लगा है?

इस सवाल का जवाब खोजने के लिए थोड़ा ठहरना पड़ेगा. सोचिये तो कि जहाँ देश के बाकी विश्विद्यालयों में अपराध ज्यादातर राजनीति की वजह से होते रहे हैं, जेएनयू के दामन पर एमएमएस स्कैंडल, रैगिंग से लेकर इन हमलों तक सारे दाग यहाँ चुनावों पर प्रतिबन्ध लगने के बाद लगे हैं. कमाल यह, कि प्रतिबन्ध भी उस लिंगदोह कमेटी की सिफारशों के आधार पर उच्चतम न्यायालय के फैसले के बाद लगे जिसने जेएनयू चुनाव प्रक्रिया को आदर्श बताया था.

क्यों लगी थी लिंगदोह कमेटी को जेएनयू की राजनीति आदर्श? क्योंकि हमारी राजनीति छात्रनेताओं और छात्रों में कोई अन्तर न रखते हुए संवाद की राजनीति रही है. उस संवाद की जिसके असर से वाम तो छोडिये ही दक्षिणपंथी रुझान वाले संगठन भी नहीं बच सके. इसीलिए जेएनयू की राजनीति में आपको ड्रेसकोड के खिलाफ फतवे नहीं बल्कि अपने अपने खेमे के विचारकों को बुला कर देर रात तक चलने वाली गोष्ठियां और भोजन के दौरान बांटे जाने वाले वैचारिक पैम्फलेट मिलते रहे हैं. सतत संवाद की यही प्रक्रिया है जिसमे रात में निकलने वाले जुलूसों में नारे लगाती हुई छात्राओं को देखना पितृसत्तात्मक समाज से आये छात्रों को पहले अचंभित करने से शुरू करके एक दिन उनमे से एक के नेतृत्व में नारे लगाने, उनके चुनाव के लिए प्रचार करने तक ले जाता रहा है.

इस पूरी प्रक्रिया में आपस में होने वाला संवाद जेएनयू छात्रों को राजनैतिक सम्बन्ध से शुरू होकर सुखदुःख साझा करने वाली उस दोस्ती तक ले जाता रहा है जो संकट के समयों में एक दूसरे का हाथ थाम लेने का बायस बनती थी. (अकारण ही नहीं है कि वैचारिक शत्रुता के बावजूद गहरी दोस्ती के जितने उदाहरण अकेले जेएनयू में मिलेंगे उतने शायद पूरे देश में मिलकर भी नहीं होंगे). चुनाव बंद होने का सबसे गहरा असर इसी संवाद पर पड़ा था. सुप्रीम कोर्ट के मुकदमे में उलझे हुई छात्रनेताओं और छात्रों के बीच एक दूरी बनी थी. यही दूरी है जिसमें जेएनयू अपने हजारों छात्रों में से में से दो ही सही, अपराधियों में बदलते हुए देख भी पहचान नहीं सका. यह एक गंभीर चूक थी. प्रतिरोध की परम्परा के गढ़ जेएनयू के लिए ऐसी चूक जिसकी कोई सफ़ाई नहीं सिर्फ बिना शर्त माफ़ी बनती है.  

उन्हें इस चूक का जवाब भी देना होगा कि वह कहाँ असफल रहे. आखिर प्रतिबन्ध चुनावों पर लगा था, राजनीति पर नहीं और चुनाव राजनीति का बस एक छोटा सा हिस्सा है. बेशक उन्होंने पुरानी पीढ़ियों की तरह जान लगा के लड़ाइयाँ लड़ी ही नहीं बल्कि जीती भी हैं पर कहीं तो कुछ था जो बाकी रह गया. यह भी ठीक है कि इसके लिए बड़ी हद तक छात्रों को अपने कमरों और कम्प्यूटरों तक समेटती जा रही नवउदारवादी दौर की घटती सामाजिकता जिम्मेदार है पर यह कह के भी जेएनयू अपनी जिम्मेदारी से न बच सकता है न उसे वर्तमान पीढ़ी पर डाल भाग सकता है. जेएनयू के मूल्यों का छीजना अचानक नहीं हुआ है.

इस छीजन के जिम्मेदार हम सब हैं जो अपने वक्तों में इसे रोक नहीं पाए और जेएनयू के वर्तमान नेतृत्व पर इतनी बड़ी जिम्मेदारी डाल गए. इन हादसों की शर्मिंदगी हम सब के माथे पर है. और इसी लिए हम सब को इन चुनौतियों से जूझ कर और जीत आकर अपनी उन दो दोस्तों से माफ़ी मांगनी हैं जिन्होंने इस वक्ती चूक का खामियाजा भुगता है.

हमें यकीन है कि जेएनयू ये कर लेगा. उसे करना ही होगा. सिर्फ इसलिए नहीं कि यह हमारा, जेएनयू का मसला है. हम सबको मिलकर यह करना होगा क्योंकि इन हादसों की आड़ में जेएनयू पर हमले कर रही, जेएनयू की चरित्र हत्या करने की कोशिशें कर रही बाजारू और बेशर्म ताकतें जानती हैं कि जेएनयू इस देश का सबसे जनपक्षधर प्रतिपक्ष है और इसे ध्वस्त किये बिना वह अपने इरादों की सफलता को लेकर निश्चिन्त नहीं हो सकतीं. और इसीलिए हम भी लगातार गहराते जा रहे संकट के बीच यह मोर्चा हार नहीं सकते. 

Comments

  1. चूक नए आगन्तुकों पर ध्यान देने में हुई है जो हमारे पुंसवादी समाज से विषदन्त ले कर आते हैं। ये विषदन्त टूट कर गिर जाने तक ध्यान तो रखना पड़ेगा।

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