माजी और मुस्तकबिल के बीच ठिठके हुए शहर में.. (हांगकांग 2)


[दैनिक जागरण में अपने कॉलम 'परदेस से' में 'हसरतों का शहर' शीर्षक से 28-09-2013 को प्रकाशित]  

अद्भुत शहर है हांगकांग. समंदर और बारिशों का शहर, पहाड़ों और जंगलों का शहर. कंक्रीट और टनेल्स का शहर. ऐसा शहर जिसमे खबर ही नहीं होती कि कौन से मोड़ से बसें आसमान छूती इमारतों से उपजती 'संवृत-स्थान-भीति' ('हिंदी में claustrophobia) से निकल क्षितिज के अन्त तक जा रहे समंदर के बराबर वाली सड़क पर दौड़ने लगें. ऐसा शहर जिसके  आर्थिक ह्रदय 'सेन्ट्रल'  नाम के कंक्रीट के जंगल के बीचों बीच एक असली हरा सा जंगल महफूज़ ही नहीं बल्कि गुलज़ार भी है.

यह पूरब और पश्चिम के ठीक बीच ठिठका हुआ ही नहीं बल्कि माजी और मुस्तकबिल के बीच की किसी अनजान सी जगह पर भी खड़ा हुआ शहर है. वह शहर जो अमिताव घोष की इबिस श्रंखला में आने के बहुत पहले ही 70 के दशक के हिंदी सिनेमा के रास्ते हिंदी समाज की सांस्कृतिक स्मृतियों का हिस्सा बन चुका था. हांगकांग का दक्षिण एशियाई स्मृतियों का हिस्सा होना लाजमी भी था. 

सांस्कृतिक, सामाजिक और ऐतिहासिक रूप से पड़ोसी और प्रतिद्वंदी चीन का हिस्सा होकर भी ब्रितानी उपनिवेश होने की वजह से भारतीय उपमहाद्वीप के शहरों जैसा यह शहर तब उनकी हसरतों का सर्वनाम होता था. फिर हिन्दुस्तान का बम्बई हो या पाकिस्तान का कराची, दोनों एक दिन हांगकांग हो जाने के सपने देखते थे. इन सपनों में विश्व अर्थव्यवस्था के एक बहुत महत्वपूर्ण केंद्र होने की और समूचे पूर्व के समुद्री व्यापार को नियंत्रित करने की सकारात्मक ख्वाहिशें थीं. फिर इनमे विश्व अपराध के नियंत्रण के मामले में इतालियन माफिया को चुनौती दे सकने वाले वह अंतर्राष्ट्रीय आपराधिक सिंडिकेट्स बना पाने की ख्वाहिशें भी थीं जिन्हें 'ट्रायड्स' के नाम से जाना जाता था.

खैर, अपने को इस शहर से 2007 से शुरू हुई पहली मुठभेड़ों से ही मुहब्बत होने लगी थी. थोड़ी वजह यह रही होगी कि इस शहर की तमाम जगहें कम से कम नाम से जानी पहचानी सी लगती थीं. हांगकांग की 'कनाट' रोड पर भागती बस में बैठे हुए स्मृतियाँ कब दिल्ली के कनाट प्लेस पंहुचा दें, पता ही नहीं चलता था. पर फिर इससे भी बड़ा एक कारण था. यह कि इस शहर में मैंने, और ज्यादातर परिचितों ने, कभी नस्लभेद नहीं झेला. दिन हो या फिर देर रात, सिर्फ रंग की वजह से किसी की चुभती हुई आँखें अपने बदन पर महसूस नहीं कीं. बेशक यहाँ भी यह अजीब अनुभव बार बार होता रहा कि बस में आपके बगल बैठा कोई व्यक्ति, खासतौर पर स्त्रियाँ, दूसरी जगह खाली होते ही वहां चली जाएँ पर उसके पीछे शायद थोड़ी असहजता और ज्यादा दक्षिण एशियाई पुरुषों के सामान्य चरित्र की वजह से बनी उनकी छवि ही जिम्मेदार है.

हाँ, इस शहर में एक चीज तो अजीब थी, है. यह कि सैद्धांतिक रूप से चीन का हिस्सा होने के बाद भी यह शहर उससे बिलकुल अलहदा था. सप्ताहांतों में बगल के चीनी शहरों में चले जाने से लेकर लम्बी छुट्टियों में बीजिंग से सियान तक में पर्यटकों से लेकर नागरिकों तक पर कड़ी निगरानी के अनुभवों के ठीक उलट हांगकांग में हासिल असीम आजादी चौंकाती भी थी और सोचने पर मजबूर भी करती थी. इस लिए भी कि 1842 में ‘सदा के लिए’ ब्रिटेन को सौंप दिया गया यह द्वीप 1997 में वापस चीन का हिस्सा बनने के बाद सांस्कृतिक रूप से न सही पर राजनैतिक व्यवस्था के स्तर पर तो उधर जा ही सकता था.

और 70 लाख की आबादी वाला यह शहर है जो अपने एक लाख से ज्यादा नागरिकों के साथ ‘राष्ट्रीय शिक्षा पाठ्यक्रम’ के खिलाफ जुलाई 2012 में सड़कों पर उतर पड़ा था. हांगकांग के बच्चों में 'राष्ट्र' (माने चीन) के प्रति प्रेम जगाने के घोषित उद्देश्य से शुरू की गयी इस नयी शिक्षानीति के इतने बड़े विरोध ने तब बेतरह चौंकाया था. इसलिए नहीं कि इतने लोग सड़कों पर उतर पड़े थे, बल्कि इसलिए कि यह पूरी तरह से पूंजीवादी और भौतिकवादी संस्कृति वाले इस शहर के लोगों को देख कर कभी नहीं लगा था कि वह इस स्तर पर राजनैतिक चेतना से लैस हैं.

यह चेतना इस बार फिर तब दिखी थी, जब हांगकांग में छिपे व्हिसलब्लोवर एडवर्ड स्नोडेन को वापस सौंप देने की अमेरिकी सरकार की मांग का विरोध करने के लिए मूसलाधार बारिश के बीच सड़क पर उतर आये हजारों हांगकांग निवासियों में मैंने खुद को भी पाया था. और यह सब तब जब हांगकांग में विधि का शासन (Rule of Law) जरूर है पर सच्चा लोकतंत्र नहीं है.  यहाँ की विधायिका में सीधे मतदान से चुने गए हिस्से से काफी बड़ा हिस्सा ‘फंक्शनल कांस्टिच्येंसी’ के नाम से जाने जानी वाले दबाव समूहों का है. 

इस शहर का परिचयपत्रधारी ‘निवासी’ होने के अनुभव ऐसे ही सवालों से टकराने के अनुभव हैं. हांगकांग का नाम सुनते ही दिमाग में समन्दर किनारे बहुमंजिला कांच की इमारतों वाले विक्टोरिया हार्बर की फ़िल्मी छवि के बरअक्स तीन तरफ पहाड़ियों से घिरे हुए उस गाँव के अनुभव जिसमे मैं रहता हूँ. उस गाँव के जिसमे हमारे वालों से बहुत छोटे ही सही केले के बागान हैं, जहाँ खेती होती है. लोकतंत्र के बिना विधि के शासन वाले हांगकांग से है.

आइये. मेरी आँखों से देखते हैं इस शहर को. उस चीन को भी जहाँ मैं और हांगकांग के निवासी ‘घूमने’ जाते रहते हैं और जो यहाँ से बहुत ‘करीब’ से दिखता है. 

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