मद्रास कैफे: इतिहास से मजाक कर गढ़ा गया शहादत का मिथ

जीवित मिथकों की कमी से जूझते समाज का सच है मद्रास कैफे. उस समाज का जिसमे प्रधानमंत्री बनने के सपने देखता एक साम्प्रदायिक हत्यारा अपनी तरफ से नायक खोजने में असफल होकर अपने विरोधियों के नायक वल्लभभाई पटेल को चुराने की कोशिश करता है. उस समाज का भी जिसमे कोयले से लेकर कामनवेल्थ तक में दलाली करने वाली एक भ्रष्ट पार्टी मद्रास कैफे में अपने एक असफल राजनेता की हत्या का विमर्श बदल कर उसे शहीद बनाने की कोशिश करती है. वैसे फ़िल्में ऐसे मिथक गढ़ने का पुराना तरीका रही हैं. यकीन न हो तो ‘नो वन किल्ड जेसिका’ याद करिये जिसमे राडियागेट की जिम्मेदार बरखा दत्त को फिर से नायिका बनाने की कोशिश की थी.

खैर, पहली नजर में मद्रास कैफे बेहद बकवास फिल्म लगी थी. और अब बहुत ईमानदारी से मान रहा हूँ कि मैं गलत था. हुआ यह था कि मेरी राजनीतिक समझ फ़िल्म देखने की सलाहियत पर जरा भारी पड़ गयी थी. सो पहले फिल्म पर राजनीति से आजाद कुछ बातें कर लें.

पहली यह कि स्त्री पुरुष संबंधों के मामले में यह एक नयी जमीन तोड़ने वाली फिल्म है. वह फिल्म जिसमे रॉ एजेंट विक्रांत (जॉन अब्राहम) और युद्ध पत्रकार जया के बीच रिश्ते अंत तक पूरी तरह दोस्ताना और व्यावसायिक रहते हैं और बिजली कड़कने से लेकर किसी और वजह से बेडरूम तक नहीं पंहुचते. याद करने की बहुत कोशिश की पर ‘मर्द और औरत के बीच एक ही रिश्ता हो सकता है’ जैसे महान सहजबोध (कॉमनसेंस) वाले समाज में और कोई फिल्म नहीं याद आई जिसमे ऐसी सहजता हो.

वैसे मैं कोई तकनीकी विशेषज्ञ नहीं हूँ पर इतना जरुर कह सकता हूँ कि फिल्म में कहीं कुछ ख़ास खटका नहीं. मद्रास कैफे का दक्षिण भारत दक्षिण भारत जैसा ही लगा और जाफना जाफना जैसा (जितना डॉक्यूमेंट्री फिल्मों में देखा है.) अभिनय भी सधा हुआ ही है, शायद इसलिए भी कि इस मामले में सबसे कमजोर कड़ी नर्गिस फाखरी को ज्यादा कुछ करना नहीं था और जो करना था वह एक ही भाव में करना था. इसके अलावा फिल्म बहुत मानवीय लगी, यहाँ ‘हीरो’ अतिमानव नहीं, क्लाइमेक्स में ‘एक्स पीएम’ के सभास्थल तक पंहुच जाने के बावजूद एक सामान्य इंसान जैसा ही लगा. अतिमानव नहीं. वैसा जो अपनी पत्नी के साथ आम इंसान जैसा होता है या फिर जिसका अपहरण हो सकता है और उसके बाद वह अकेले ही पूरे एलटीएफ को ख़त्म कर नहीं चला आता.

फिल्म में एक बात और शानदार है. यह कि हिन्दुस्तान का पाकिस्तान के अलावा भी एक पड़ोसी है जो अपनी सामरिक स्थिति की वजह से रणनीतिक रूप से बहुत महत्वपूर्ण है. यह भी कि ‘एक्स पीएम’ को महान, दूरदर्शी और शहीद बनाने की कोशिश में एलटीएफ को ‘विशुद्ध आतंकवादी’ संगठन बना देने के हादसे को स्क्रिप्ट ने अपने तईं बचा लेने की कोशिश बहुत की है. अब यह कोशिश सफल नहीं हुई यह और बात. हाँ अंत में किसी का आतंकवादी उसके लोगों के लिए क्रांतिकारी होता है यह कह यह गलती कम करने की कोशिश भी की गयी और यह ठीक बात है.

बस, इतना ही है इस फिल्म के बारे में जो ठीक है. बाकी सब कुछ फंतासी है, असली इतिहास के साथ भद्दा मजाक है. सोचिये तो, श्रीलंका के तीन दशक लम्बे गृहयुद्ध पर आधारित फिल्म न उस गृहयुद्ध की राजनीति से उलझती है न एलटीएफ के इतिहास से. उलझना तो छोड़िये, इस फिल्म से श्रीलंका के गृहयुद्ध की समझ बनाने वाले (और अफ़सोस, अब ज्यादातर लोग इतिहास किताबों से नहीं मसाला फिल्मों से ही समझते हैं) कभी नहीं जान पाएंगे कि एलटीएफ, यानी की लिट्टे, इंदिरा गाँधी की गलती का नाम है. ठीक भिंडरावाला की तरह, यह संगठन भी भारत सरकार की कूटनीतिक गलतियों ने खड़ा किया था. कि न केवल लिट्टे की पूरी ट्रेनिंग तमिलनाडु में हुई थी बल्कि बाद में लम्बे दौर तक भारत सरकार ही उन्हें हथियारों से लेकर हर चीज में मदद करती रही थी. पर फिर, इस पहलू के सामने आने से एक्स पीएम उर्फ़ राजीव गाँधी को मूल्यों के लिए शहीद बनाना जरा मुश्किल हो जाता.

मुश्किल तो खैर इंडियन पीस कीपिंग फ़ोर्स के जाफना में किये गए बर्बर व्यवहार के सामने आने से भी होती. फिल्म बिना विचारधारा पर कुछ कहे लिट्टे की बर्बरता दिखाती रहती है और शान्ति सेना को छोड़ देती है. यह भी कि लिट्टे के हथियार न रखने के पीछे क्या वजहें थीं और कैसे आइपीकेएफ अन्य बागी समूहों के साथ काम कर रही थी. लिट्टे का वह दौर उसी श्रीलंका में, उनकी अपनी ही सरकार द्वारा अल्पसंख्यक तमिलों ही नहीं बल्कि बहुसंख्यक सिंहल समुदाय के 30000 से ज्यादा लोगों की हत्या का इतिहास भी है. जनता विमुक्ति पेरामुना के ऊपर किये गए उस हमले के शिकार लोगों को आजतक न्याय नहीं मिला है यह बात और सही, पर उस दौर में श्रीलंका सरकार का व्यवहार देख रही लिट्टे से हथियार रखवाने की उम्मीद करना उनसे आत्महत्या की उम्मीद करना जैसा ही था. 

खैर, इन सारी बातों से लिट्टे के भविष्य में एक पूरी तरह से बर्बर आतंकवादी संगठन बन जाने और उसके द्वारा मानवता के विरुद्ध किये गए अपराधों की भयावहता कम नहीं हो जाती. पर फिर, गृहयुद्ध का अंत ध्यान से देखने वाले हम सभी लोग यह भी जानते हैं कि वह अंत भी मानवता के विरुद्ध श्रीलंका सरकार द्वारा किया गया अपराध था.

फिल्म तो खैर 1991 के चुनावों के बारे में भी पूरा सच नहीं बोलती. बेशक कांग्रेस ठीकठाक सीट लाती दिख रही थी पर पूर्ण बहुमत तो उसे राजीव गाँधी की हत्या के बाद उमड़ी सहानुभूति लहर से भी नहीं मिल सका था. इस फिल्म के पास खुद को बचा लेने का एक मौका था. फिल्म अगर अंतर्राष्ट्रीय षड़यंत्र वाले पहलू को खोजती, समझती तो. सोवियत संघ के पतन के बाद तेजी से बदलती वैश्विक कूटनीति का पहलू एक रास्ता खोलता जहाँ से सिर्फ यह हादसा नहीं बल्कि और भी बहुत कुछ खोज पाते. यही वह जगह है जहाँ फिल्म पूरी तरह से असफल मजाक बन जाती है. इतिहास दृष्टि के साथ मजाक. सत्य के साथ मजाक. 

काश, कि वे समझ पाते कि मजाक से न इतिहास बनते हैं न मिथक गढ़े जा सकते हैं. 

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