चैनी खैनी इन चुंगकिंग मैंशंस [हांगकांग 3]

['चुंगकिंग की गाथा' शीर्षक से दैनिक जागरण में मेरे पाक्षिक कॉलम 'परदेस से' में प्रकाशित]

कहने को बस एक इमारत है चुंगकिंग मैंशंस. विश्व के सबसे धनी शहरों में से एक हांगकांग के सबसे रईस पर्यटक इलाके के ठीक दिल पर खड़ी एक जर्जर हो रही इमारत. दुनिया की सैर पर निकले यूरोपियन बैकपैकर्स (बहुत कम पैसे वाले यायावर) के आशियाने वाले गेस्टहाउसों से शुरू कर हांगकांग में बसे हुए दक्षिण एशियाई समुदाय की मसालों से लेकर चैनी खैनी तक की जरूरतें पूरी करने वाली छोटी छोटी दुकानों से भरी हुई वह इमारत जो हांगकांग में होकर भी हांगकांग की नहीं है. 

हांगकांग की तो खैर यह इमारत कभी नहीं थी, बावजूद इस शहर का नाम लेते ही आँखों में वैसे उभरने वाला विक्टोरिया हार्बर जैसे आगरा सुनकर ताजमहल उभरता है यहाँ से दस कदम भी दूर नहीं है. चुंगकिंग मैंशंस सच में इस शहर का हिस्सा नहीं इसका शाश्वत अन्य है, इसका प्रतिपक्ष है. ऐसे की इस इमारत का नाम लेने पर सिर्फ यहीं नहीं बल्कि दुनिया भर के घुमक्कड़ों की आँखों में रोमांच, सिहरन, भय, चाह से लेकर न जाने कितने भाव तिर जाते हैं. इंटरनेट पर ऐसे ही तफरीह में पढ़ी गयी बात याद करूं तो इस इमारत में रहने का अनुभव हांगकांग की सुरक्षा में विकासशील देशों की सड़कों के भय को जीने का अनुभव है. 

वजह? कुछ यह कि पहली नजर में देखें तो बहुत तेज भागते इन वक्तों में ठिठका हुआ सा बम्बई दिखता है इस इमारत में. या फिर पठानी कुर्तों की बहुतायत पर गौर करें तो कराची. वह भी आज का नहीं, वक़्त तो बढ़ते जाने की इजाजत दे खुद १९८० में ठिठक गया कराची. पर फिर अगल बगल से गुजरते बाकी चेहरों पर नजर पड़ती है और समझ आता है कि इतने सारे अफ्रीकी, यूरोपियन और बाकी दुनिया के लोगों की मौजूदगी वाली ऐसी जहाँ मूलनिवासी चीनी ही सबसे कम दिखते हैं. ऐसी भी जिसका ऐसा बहुसांस्कृतिक चरित्र होने के बावजूद अंदाज पूरा बम्बैया है. 

बंद इमारतों में धूम्रपान पर कड़ी सजा देने वाले शहर में फकीराना अंदाज में धुंए के छल्ले उड़ाते हुए दुकानदार,
मंहगी घड़ियों की सस्ती प्रतिकृति बेचते भारतीय चेहरे, अपने बेहद सस्ते गेस्टहाउसों में ले जाने को लेकर लगभग झगड़ते नेपाली और चीनी, चटक कपड़ों में बेलौस हंसी हँसते अफ्रीकी युवक, अपरिचित चेहरों की तरफ उम्मीद से देख रही सेक्स वर्कर्स, लिफ्ट के सामने पंक्तिबद्ध खड़े यूरोपियन पर्यटक, भारतीय/पाकिस्तानी दुकानों में मसाले खरीदती स्त्रियाँ, दुनिया में शायद और कोई एक इमारत नहीं होगी जहाँ इतने देशों के, इतने अलग अलग समुदायों के अपने व्यवहार और मानसिकता में बिलकुल अलग लोग एक साथ, एक छत के नीचे मिलें. 

पर फिर इस इमारत का दक्षिण एशियाई चरित्र पूरा होता है इस बात से कि इसमें घुसने से हांगकांग पुलिस भी डरती है. जी हाँ, जब तक कोई बड़ा अपराध न हो जाय उनकी यही कोशिश रहती है कि यहाँ न उलझना पड़े. कमाल यह कि यह ख्वाहिश महांगकांग के आम नागरिकों की इस इमारत को लेकर असहजता का विस्तार भर है. उस अर्बन लीजेंड का विस्तार जिसमे इस इमारत से लोगों के खो जाने की कहानियाँ हैं, आग लगने का डर है, अपने ही शहर में अल्पसंख्यक सा महसूस करने की प्रताड़ना है. वह भी जिसमे खासतौर पर तम्बाकू उत्पादों की छोटीमोटी तस्करी है. जिसमे अपने परिवारों को बहुत पीछे छोड़ इस पूरी ‘मर्दाना’ इमारत में फंस गए अकेले युवाओं की हर स्त्री को लगभग खा जाने वाली निगाहें हैं. 

इन तमाम कहानियों के परे असल में यह इमारत एक अदम्य जिजीविषा का नाम है, मुश्किल हालात में भी बेहतर जिंदगी के सपने देखने की जिद और उन्हें पूरा करने की जद्दोजहद है. अफ्रीका के युद्ध की विभीषिका झेल रहे देशों से आने वाले उन व्यापारियों की जिंदगी का सच जो चीन से सस्ते सामान खरीद अपने देशों में बेच अपनी जिंदगी ढर्रे पर ले आने की कोशिश में लगे रहते है. इसकी कहानी नेपाल के गृहयुद्ध से लेकर तालिबानियों से भागे अहमदिया नौजवानों तक की कहानी है जो यहाँ अवैध आप्रवासी होने के डर के साथ जीकर भी उतना कमा लेते हैं जितने का सपना भी उनके देशों में आँखों में आने से इनकार कर दे. और फिर दुनिया भर से आये उन शरणार्थियों का भी जो संयुक्त राष्ट्र संघ की मानवाधिकार परिषद में पड़ी अपनी अर्जियों के फैसले अपने हक में होने के इन्तेजार में स्थगित सी जिंदगियां जी रहे होते हैं. 

सच कहें तो यह इमारत हांगकांग का ही नहीं बल्कि वित्तीय पूँजी के हमलावर वैश्वीकरण का प्रतिपक्ष भी है. उस पूँजी के वैश्वीकरण को तेज करते हुए भी लोगों के लिए राष्ट्रीय सीमाएं पार करना कठिनतर बना देने वाली विश्वव्यवस्था के खिलाफ पूँजी से खारिज लोगों के वैश्विक आवागमन को सुनिश्चित करने में लगी एक इमारत जो बैंकर्स की जगह रसोइयों को जगह देती है, उन्हें दुलराती है. अकारण नहीं है कि काठमांडू के थमेल में किसी में हांगकांग के बारे में शुरू हुई बात को चुंगकिंग मैंशंस तक पंहुचना ही होता है. 

अपनी रसोइयों से लेकर जिंदगी की तमाम जरूरतों के लिए इस इमारत में पंहुचना तो खैर हम दक्षिण एशियाई लोगों की नियति ही है. अच्छा यह लगता है कि इस इमारत में 2007 में शुरू हुए अपनी भटकन में तब बिलकुल गायब स्थानीय नागरिक अब ‘रेस्टोरेंट्स’ में ‘इंडियन करी’ खाते दिखने लगे हैं. अफसोस कि उनके स्वाद तक पंहुचने के चक्कर में हमारी थालियों के मसाले कम हो गए हैं पर नयी दोस्ती की इतनी कीमत तो चुकाई ही जा सकती है न?

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