मेट्रो में मंडेला (हांगकांग 7)

[दैनिक जागरण में अपने पाक्षिक कॉलम 'परदेस से' में 07-12-2013 को प्रकाशित]


सुबह-ए-हांगकांग भी कमाल शय है. बेतरह, लगभग बेसबब भागते हुए भी कहीं न पंहुचने वाली सुबहें. रोजबरोज मिनी बसों से लेकर डबल डेकर बसों से होकर मेट्रो जिसे यहाँ एमटीआर कहते हैं से टकराने की सुबहें. अपने साथ भागते कुछ अजनबी चेहरों के पहले आशना होने और फिर उनसे मुस्कुराहटों का रिश्ता बन जाने की सुबहें. और अचानक उनका दिखना बंद कर देने पर इस भारी अहसास की सुबह कि हमने तो उनका नाम तक नहीं पूछा था. सोमवार से शनिवार तक भागते हुए ऑफिस पंहुचने की वह सुबहें जो बेपनाह भीड़ का समन्दर पार करने की यातना और अपने घर की तन्हाई से निकल जिन्दा इंसान देखने के सुकून के बीच डोलती रहती हैं. हफ्ते भर भागना और फिर इतवार को नींद पूरी करना, यही तीन तरफ समंदर और चौथी तरफ चीन से घिर फ़ैल न पाने को मजबूर इस शहर की ऊँची होती जा रही इमारतों में कैद बाशिंदों की नियति है. इसीलिए बाकी विश्व नगरों का पता नहीं पर हांगकांग की सुबहों में सूरज नहीं बस सफ्ताहांत का इन्तेजार होता है.

इन सुबहों में अक्सर उनींदी आँखों में भरे सपनों वाली उन लड़कियों से मुठभेड़ हो जाती है जो तिल रखने की जगह न होने की हद तक भरी मेट्रो में भी मेकअप पूरा करने की जगह ढूंढ लेती हैं. उन अधेड़ होते जोड़ों से भी जो साथ साथ अलग ऑफिसों की तरफ भागते हुए घरेलू काम बाँट लेते हैं. इन सुबहों में कोई कोना पकड़ अपने प्लेस्टेशन में इस कदर डूबे लड़के भी होते हैं जो हर रोज अपना स्टेशन छूट जाने से ठीक पहले हडबडाहट में उठते हैं और लगभग कूदते हुए बाहर जा रही भीड़ में खो जाते हैं. पर फिर इन सुबहों का सबसे खूबसूरत बिम्ब होते हैं प्यार में डूबे हुए वे जोड़े जिनके लिए अपने सिवा और कुछ नहीं होता.

इतने सारे दृश्यों में अक्सर एक दृश्य साझा होता है, मेट्रो में चल रही टेलीविजन स्क्रीनों को देख रही उचकी हुई गर्दनों का दृश्य. वह स्क्रीन जिसपर सिर्फ कैंटोनीज भाषा में आ रहे विज्ञापनों, फ़ुटबाल मैचों और घुड़दौड़ों के बीच कभी कभी  वह खबरें भी आ जाती हैं जो न आतीं तो वह डब्बा हमें बस लोरी सुनाने वाली मशीन भर लगता. कमाल यह कि इन खबरों के आने का पता हमें स्थानीय निवासियों के सर घुमा लेने से चलता है. उनकी निगाहें स्क्रीन से हटीं तो समझ जाइए कि खबरों का वक़्त है और फिर सिर्फ दृश्यों के आधार पर खबर क्या है का अंदाज़ लगाइए. इतने सालों की समझ का हासिल है कि कोई टाइफून या बड़ा सेलेब्रिटी न आ रहा हो तो इस शहर को सच में खबरों की ज्यादा परवाह नहीं होती. शायद इसलिए भी कि यहाँ या तो अखबार बहुत मंहगे बिकते हैं या फिर विज्ञापनों के बीच शहर की एकाध खबरें देने वाले मुफ्त बांटते हैं.

आज मगर और दिन था. उचकी गर्दनों को नीचे न आते देख चौंक स्क्रीन पर देखा तो पहले जैकब जुमा और फिर नेल्सन मंडेला नजर आये और फिर भाषा की जरुरत ही नहीं रही. यही खबर थी मन जिससे महीनो से बचना चाह रहा था. बाबासाहेब भीमराव अम्बेडकर को न देख सके हम जैसे लोगों के लिए मंडेला इस युग के अंतिम महानायक थे. वह 37 साल लम्बी कैद जैसी यातनाएं झेल भी रंगभेदी सरकार से जीवन भर लड़ उसे परास्त करने वाले ऐसे योद्धा थे जिनमे जीत के बाद दुश्मन को माफ़ कर एक नयी शुरुआत कर सकने का नैतिक साहस था.

पर फिर ख्याल आया कि खबर बड़ी है सो टीवी पर है पर ये हांगकांग को क्या हो गया? अपनी भौतिक सुविधाओं में डूबे रहने वाले इस शहर की आँखों में मंडेला के लिए ऐसी मुहब्बत किन राहों से और क्यों कर पैदा हो गयी होगी? हांगकांग तो आखिर क्रिकेट भी नहीं खेलता, आईसीसी खेलने वाली यहाँ की टीम में तो बस दक्षिण एशियाईयों से ही बनती है. नजर फिर घुमाई और गर्दनें अब भी उचकी हुईं थीं. यह मंडेला की ताकत थी. एक ईमानदार लड़ाई लड़ जीत हासिल कर मिसाल बन जाने की वह ताकत जिसका असर तीन समंदर पार हांगकांग पर भी था.


या यह हांगकांग की भी ताकत थी. आखिर को सतह पर पूरी तरह गैरराजनीतिक इस शहर में कुछ तो है जो इसे राजनैतिक अधिकारों के प्रति उन्माद की हद तक संवेदनशील बनाये रखता है. कुछ तो है जो निजता के अधिकार की रक्षा के लिए अमेरिकी सरकार से लड़ जाने वाले एडवर्ड स्नोडेन को उसके यहाँ सुरक्षित होने का यकीन दिलाता है. कुछ तो है जो फिर हांगकांग प्रशासन पर बढ़ते अमेरिकी दबाव को देख तूफानी बारिश वाले दिन हजारों हजार निवासियों को स्नोडेन के समर्थन में सड़कों पर उतार लाता है. काश, यह चेतना सारी दुनिया में फ़ैल जाए सोचते हुए अपना स्टेशन आ गया था. और आज बाहर निकल ऑफिस की तरफ बढ़ते हुए हांगकांग थोड़ा और अपना, थोड़ा और प्यारा लगने लगा था. 

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