दुःख की भाषा

[दैनिक जागरण में अपने पाक्षिक कॉलम 'परदेस से' में 07-12-2013 को प्रकाशित] 
ऑफिस की सामान्य मीटिंग्स में बैठे हुए फोन पर आये सन्देश ने अन्दर तक दहला दिया था. हम लोगों का बड़े भाई जैसा दोस्त खुर्शीद अनवर नहीं रहा. उसने आत्महत्या कर ली थी. यह खबर सच नहीं लगी थी, बिलकुल भी नहीं. तीन महीनों से उसकी जान बचाने के लिए लड़ रहे थे हम सब, नहीं वह ऐसा नहीं कर सकता. पर फिर सच को आपके लगने से क्या मतलब? 
और फिर खाली आँखों में उतर आये आंसुओं के साथ समझ आया था कि परदेस में सबसे बड़ा दुःख होता है अकेले रहना और फिर उनमें भी निजी त्रासदी के ऐसे पल निकालना. दुःख के पल निकालना. वे पल जब आप अन्दर से टूट रहे होते हैं और कोई कन्धा नहीं होता आपके पास. आपकी मेट्रो में भर भर आ रही आँखें आपके लिए सहानुभूति नहीं कौतूहल का बायस बनती हैं. 
बेशक आंसुओं की कोई भाषा नहीं होती, उन्हें सब समझते हैं. पर फिर आंसू पोंछने के लिए बढे हाथों को तो भाषा की जरुरत पड़ती है न, वरना कैसे बाँट पाएंगे आप उनसे अपना दुःख. इससे भी ज्यादा त्रासद है फिर यह देखने को मजबूर होना कि दिसंबर माने वर्षांत में आपके पास रोने के लिए भी छुट्टियाँ बची हैं या नहीं. क्या करेंगे फिर आप?
पर फिर घर रह कर और अकेला ही हो सकते हैं आप सो बाहर निकल पड़ा. निरुद्देश्य भटकते हुए भीग भीग जाती आँखें लगातार बस एक ही चीज ढूंढ रही हैं, किसी दोस्त का कंधे पर हाथ. डबलडेकर बस की ऊपरी डेक पर बैठे हुए साथ चलता जो समन्दर हमेशा बहुत प्यारा लगता रहा था आज अपना सारा नमक ले मेरी आँखों में उतर आया था. 
सोचा कि और लोग कैसे झेलते होंगे ऐसे बड़े आघात पर फिर पूछता भी तो किससे? पर दुखी तो यहाँ भी होते होंगे लोग? जीवन का नियम है अपनों का एक दिन चला जाना. इनकी तो संस्कृति भी हमारे जैसी नहीं है कि नाते रिश्तेदारों से लेकर मोहल्ले वाले तक सुख दुःख दोनों में लगभग अवैध अतिक्रमण की हद तक घुसे रहते हों. यहाँ तो ज्यादातर लोग बड़ी दुनिया के भीतर अपनी बहुत छोटे सी निजी दुनिया बना लेते हैं जिसमे बहुत कम लोग होते हैं? परिवार और बहुत करीबी कुछ मित्र. अपने गाँव में ही मुश्किल से किसी को किसी से बात करते देखता हूँ. वह भी बावजूद इस सच के कि अपना गाँव पूरा ‘मिस्टर और मिसेज चैन’ लोगों का गाँव है, माने यहाँ सब किसी जमाने में एक ही रहे कुनबे के वंशज हैं.  
बेशक कुछ सामाजिक उत्सव हैं जब वह एक साथ बारबेक्यू करते हैं, नाचते गाते हैं पर ऐसे अवसर बहुत कम होते हैं. फिर हांगकांग की पागलों की तरह भागती जिंदगी इतना मौक़ा भी कहाँ देती है. सुबह ऑफिस के लिए भागने से शुरू हो गयी शाम घर पंहुचने वाली इन जिंदगियों में परिवार के लिए ही वक़्त निकालना मुश्किल होता है फिर लोग समाज के लिए कैसे निकालें. 
हाँ, कुछ आप्रवासी समुदाय इस मामले में बहुत बेहतर हैं. उनके यहाँ दुःख की किसी घडी में पूरा का पूरा समुदाय साथ आ खड़ा होता है. इस मामले में सबसे बेहतर फिलीपीनी हैं पर नेपाली, पाकिस्तानी और बांग्लादेशी भी कुछ कम नहीं है. हाँ सबसे बुरे में बेशक हम भारतीय जो वस्तुतः एक समुदाय हैं ही नहीं पहले पायदान पर खड़े होंगे. यहाँ मैंने बंगाली एसोशियन देखा है, पंजाबी देखा है, गुजराती देखा है पर भारतीय नहीं देखा. वैसे देखा तो उत्तर प्रदेश और बिहार का भी नहीं है पर उसका जिक्र फिर कभी. 
किसी गुजर गयी साथी घरेलू नौकरानी साथी के शरीर को फिलिपीन्स भेजने के लिए अपने बहुत नाकाफी से वेतन से भी पैसे इकठ्ठा करते हुए देखा है और नशे में किसी से टकरा गए दक्षिण भारतीय के साथ थाने में बैठे उसके दोस्तों को भी. एक बात जो हमेशा चौंकाती है वह यह भी कि त्रासदी के इन पलों में कैसे वही लोग चट्टानी एकता के साथ खड़े हो जाते हैं जो बहुत छोटी छोटी बातों पर एक दूसरे से लड़ते रहते थे, जलते रहते थे. 
अनजाने में ही मैं फिर चुंगकिंग मेंशन पंहुच आया था. शायद मन में कहीं यह विचार छिपा रहा हो कि अपने निजी दुःख की इन घड़ियों में अपने समुदाय को कम से कम देख पाना भी दुःख थोड़ा तो कम करेगा, थोड़ा तो संभालेगा. जिस दुकान से ज्यादातर घरेलु सामान खरीदता हूँ उसके मालिक के यह पूछने पर कि सब खैरियत, ठीक नहीं लग रहे आप शायद थोडा संभला भी. पर उनको क्या बताता कि गलत किया खुर्शीद भाई ने, उन्हें लड़ना था आरोपों के खिलाफ. लड़ाई अधूरी नहीं छोडनी चाहिए थी कामरेड को. 

लौटते हुए मन में खुर्शीद भाई की यादों के साथ वही खयाल भी था कि चीनी लोग दुःख कैसे सहते हैं.   

Comments

  1. कुछ नहीं सिर्फ इक खुर्शीद मरा है यारो !
    बड़ा खुद्दार था, ऊपर से, गिरा है यारो !

    बड़ा बदनाम था,कुछ खौफ नहीं खाता था
    इन दिनों नशे में,सूरज से लड़ पड़ा यारो !

    तुम्हें मरने नहीं देंगे, ये वचन देते हैं !
    बड़ी शिद्दत से कोई, तीर लगा है यारो !

    आज खुशियां मनाएंगे, तमाम कंगूरे !
    आज दोबारा इक कबीर, मर गया यारो !

    हज़ारों बरस में इक बार जनम लेता है !
    अब कहाँ दूसरा,खुर्शीद मिलेगा यारो !

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  2. पर उनको क्या बताता कि गलत किया खुर्शीद भाई ने, उन्हें लड़ना था आरोपों के खिलाफ. लड़ाई अधूरी नहीं छोडनी चाहिए थी कामरेड को.

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  3. ऐसे वक़्त में परदेस बहुत ही विवश कर देता है...मचल के रह जाता है इन्सान..

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  4. झेल लो भाई अपने इस भाई को याद कर के जो देश में भी उसी वेदना से गुजर रहा है.

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