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हाँ, मैंने इस पागल लड़की को बारहा 'प्रपोज' किया है. हर ब्रेक अप के बाद. ये मोहतरमा भी कभी पीछे नहीं रहीं। अपने साहब से हर लड़ाई के बाद इनका भी प्रणय निवेदन पंहुचा है मुझ तक. क्या करें टाइमिंग ही मैच नहीं हुई. मगर दोस्त हम सच में जानलेवा टाइप बने रहे. रात ११ बजे मुखर्जीनगर में अपने दोस्तों की महफ़िल बरखास्त कर मोहतरमा के दरवाजे पर. इनके हमें बेरंग लौटा देने की तमाम कोशिशों को धता बता समर साहब तख़्तनशीं और फिर छोटी से फरमाइश,.... चाय पिलाओ न यार. अब बात चाय से शुरू हो तो खाने तक तो जाती ही है.
हाँ, मैंने इस पागल लड़की को बारहा 'प्रपोज' किया है. हर ब्रेक अप के बाद. ये मोहतरमा भी कभी पीछे नहीं रहीं। अपने साहब से हर लड़ाई के बाद इनका भी प्रणय निवेदन पंहुचा है मुझ तक. क्या करें टाइमिंग ही मैच नहीं हुई. मगर दोस्त हम सच में जानलेवा टाइप बने रहे. रात ११ बजे मुखर्जीनगर में अपने दोस्तों की महफ़िल बरखास्त कर मोहतरमा के दरवाजे पर. इनके हमें बेरंग लौटा देने की तमाम कोशिशों को धता बता समर साहब तख़्तनशीं और फिर छोटी से फरमाइश,.... चाय पिलाओ न यार. अब बात चाय से शुरू हो तो खाने तक तो जाती ही है.
दिक्कत बस एक. मोहतरमा हद दर्जे की टीवीखोर हैं. और फिल्मों के मामले में बेहद शानदार इनकी पसंद को इडियट बॉक्स से टकरा के न जाने क्या हो जाता है. इनसे न हुई सी मुहब्ब्त के सितम हमने क्राइम पेट्रोल और सीआईडी जैसे न जाने कितने सीरियल्स देख के झेले हैं. सितम तो खैर इन्होने एक और किया है हम पर और वो भी नाम बदल बदल के किया है. कभी कली खिला के तो कभी प्यार से सोना कहके (हमें नहीं) तो कभी सीने पर गोली दाग के (हमारे नहीं). और इन सारी खूबसूरत जीवों को हमसे न जाने कौन सा रश्क था. तीन के तीनों हमसे उतना जलते थे जितना साहब भी न जले होंगे कभी. हमेशा हमारे खिलाफ साजिशों में जुटे रहते। एक बार तो मेरा मोबाइल तक चबा गयी थीं सोना साहिब। पर भौंकने और घूरने से डर जाएँ तो काहे के समर. सो हमने भी कभी मोहतरमा के कुत्ता प्रेम को अपनी न हुई मुहब्ब्त के आड़े न आने दिया। जूझते रहे.
देखिये न. यही होता है इस लड़की का जिक्र करने पर. बात भौंकने तक न पँहुची तो क्या पँहुची। बखैर, बात को वापस लाते हैं इनके दौलतखाने तक. वो दौलतखाना जो दिल्ली की शायद सबसे मिली जुली आबादी वाला इलाका होने की वजह से बेहद दिलचस्प बन गया है. उस इलाके में जहाँ पूर्वोत्तर भारत से लेकर ठेठ पुरबिया आँखें तक आईएएस बनने के सपने ले कर आती हैं फिर कुछ चमक और ज्यादातर आँसुओं के साथ लौट जाती हैं. और हम हैं कि उसी इलाके में मोहतरमा के घर में घुसने के बाद जाने किन गलियों से इलाहाबाद रसीद हो जाते हैं. सड़कों पे ठंडी सी आग लगाये बैठे अमलतास वाले इलाहाबाद, दहकते गुलमोहर वाले इलाहाबाद। हर बार मन जैसे शरीर छोड़ के अचानक साइकोलोजी डिपार्टमेंट के सामने कि सड़क से छात्रसंघ भवन कि तरफ निकल जाता था और वापस पकड़ने की कोशिश करो तो नामौजूद से रिक्शे पर बैठ कॉफी हॉउस जाने की जिद सी करने लगे.
उस इलाहाबाद जहाँ कुल 14 पतझड़ पहले इनसे मिले थे. हाँ, बिलकुल ठीक ठीक याद है, सावन नहीं पतझड़ में ही. तब कहाँ पता था कि मोहतरमा हॉकी की प्रदेश स्तरीय खिलाड़ी रही हैं और लोगों की आँखों में आँखें डाल बात करने वाला हौसला कुछ वहाँ से भी निकलता है. वे अजब दिन थे और हम दोनों अजब लोग. वैसे कहना दोनों नहीं पाँचों बनता है, बोले तो मैं और ये चार सहेलियाँ जो तमाम कयासों का बायस थीं. इनमे से समर वाली कौन है और जो भी है बाकी तीनों से जलती क्यों नहीं जैसे सवालों के शगूफों सा उछलने के दिन. पढ़े हुए नारीवाद को समझने, और वह भी एक हिंदी बोलती हुई लड़की से समझने के दिन। प्रेमिका छोड़ किसी लड़की के गले लगने की कल्पना मात्र से सिहर उठने वाले दिन. और फिर भी इलाहाबाद की माशाअल्लाह सड़कों पर लगे किसी धक्के से स्कूटर पर सट आई सकुचाई आराधना से पूछना कि 'डरती हो? छू जाने से अपवित्र हो जाओगी? या फिर एडीसी (इलाहाबाद डिग्री कॉलेज) के सामने अचानक स्कूटर रोक इनका हाथ अपने कंधे पर रख देने वाले दिन. 'मैडम, अपवित्र होने से ज्यादा खतरनाक होगा आपका सड़क पर लुढ़क जाना।' और फिर ठहाका लगा के हँस पड़ना, बीच सड़क पर. वे सच में पाश को जीने के दिन थे, भरी सड़क पर लेट कर न सही स्कूटर पर ही ऐसे कारनामों से वक्त के बोझिल पहियों को जाम कर देने के दिन.
तब कहाँ पता था कि यही छुईमुई सी लड़की एक दिन नारीवाद का पुनर्पाठ करेंगी। दिल्ली वाली आराधना इलाहाबाद वाली आराधना से बहुत आगे निकल आयी आराधना थी. अपने होने से बिलकुल सहज हो गयी आराधना। नारीवाद पहले नारों और फिर तमाशे में बदल देने वालों के बरअक्स संस्कृत परम्परा में नारीवाद के उत्स खोजती आराधना। मेरे संस्कृत का मजाक बनाने पर लड़ जाती आराधना। तमाम बार आर्थिक से लेकर जाती जिंदगी की जद्दोजहद में कमजोर पड़ भी किसी से मदद न मांगती आराधना। पुरबिया समाज की मर्दवादी सोच के खिलाफ अकेली खड़ी, खुद को विद्रोह का झंडा बनाये बैठी आराधना।
और फिर मेरे प्रपोजल्स पर ठहाके लगा बैठती आराधना। जिंदगी भर का हासिल हो तुम यार. इस पुरबिये को मर्द से इंसान बना देने वाला हासिल। स्त्री-पुरुष सम्बन्धों की मध्ययुगीन सोच वाले समाज से आने वाला ये छोरा जिंदगी भर साथ रहेगा तुम्हारे। तुम उसका न हुआ प्रेम जो हो. और बहुत हुई दोस्त भी.
dont want to sound like a die hard regionalist which i am not, but still ye purabiyon ka ishaq poorabiye hi samjh sakte hian:
ReplyDeletewoh meri rooh ki chadar mein aakar chhup gaya aise '
jo woh nikle to rooh nikle , jo rooh nikle to woh nikle!
इस दोस्ती की दास्तां ने Erich Segal की लिखी नॉवेल Doctors की याद दिला दी ,जो कुछ ऐसी ही दोस्ती की कथा है ...किताब का किस्सा तो ख़त्म हो गया (अर्थात एक मुकाम तक पहुँच गया ) इस दोस्ती की कहानी चलती रहे..
ReplyDeletepata nahi chalta - aapko padhte hue hamesha ye lagta hai ki ab aaj ke baad nahi padhunga.............. fir bhi padhta hoon. meri aisi hi ladai nirmal varma ke sath thi. har baar na chahkar bhi padha hai unhe............. bus achcha lagta hai.....
ReplyDeleteनिर्मल वर्मा जी बड़े लेखक हैं भाई पर हमसे ये लड़ाई क्यों?
Deletemeri jo ladai nirmal varma ke sath hai - wahi aapse bhi - na chahkar bhi aapko padhne ka man karta hai.... har baar....
ReplyDeleteबेहतरीन
ReplyDeleteUmda likhe hain samar ji.
ReplyDeleteग़ज़ब बहुत ही लाज़वाब लिखे हैं समर भैय्या।
ReplyDeleteमुझे सबसे शानदार लगता है आपका छोटा कोष्ठक लगाकर सफाई देना।
AKM
क्या कहें? नि:शब्द मैंने पहले कभी कुछ भी ऐसा नहीं पढ़ा ।अतुलनीय।।।।
ReplyDeleteGulmohar ki chanw me khadi sanwali si ladki or yah ek hi h h naa??😊
ReplyDeleteHow special, intense and straight from the heart ! kudos to you both !
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