भ्रष्टाचार पर निर्णायक हमला हो सकती है मुकेश अम्बानी पर एफआईआर

[दैनिक जागरण, राष्ट्रीय संस्करण में में भ्रष्टाचार के खिलाफ सीधी जंग शीर्षक से 13-02-2014 को प्रकाशित] 


सत्ता कोई भी हो, उसका अपना चरित्र होता है और उसकी राजनीति का अपना व्याकरण. वह व्याकरण जिसको दरकिनार कर कोई नयी इबारत लिखने की कोशिश बदलाव चाहने वालों के लिए बहुत मुश्किल होती है तो सत्ता के अस्तित्व के लिए बेहद खतरनाक. इसीलिए सत्ता ऐसी किसी भी स्थिति को आने से पहले ही रोक देना चाहती है जो यथास्थिति से लाभान्वित होने वाले हितों को नुकसान पंहुचा सके. फिर चाहे तानाशाही वाले समाजों में किसी भी विरोध को बेरहमी से कुचल देने की कवायदें हो, या उदारवादी लोकतान्त्रिक समाजों में क़ानून और व्यवस्था बनाये रखने के नाम पर विरोध को हाशिये पर भेज देने की साजिशें, दोनों का असली इरादा यथास्तिथि बनाये रखना ही होता है. व्यवस्था आपको मुहावरों से खेलने की इजाजत दे सकती है, नए नारे गढ़ने देती है, आक्रामक जनपक्षीय राजनीति करने का भ्रम पैदा करने दे सकती है पर आपको इन भ्रमों को असली राजनीति में लाने की अनुमति नहीं दे सकती. यही वजह है कि स्थिर समाजों में राजनीति की दशा और दिशा दोनों बदल सकने वाली स्तब्धकारी और अभूतपूर्व घटनाएं कम ही होती हैं.

भारतीय राजनीति में आम आदमी पार्टी (आप) का आना पहली नजर में ऐसी कोई घटना नहीं लगी थी. भ्रष्टाचार के खिलाफ मध्यवर्गीय गुस्सा, सदाचारी उपदेशक, नैतिक पुलिस, विचारधाराहीन जनरंजक... आप अलग अलग लोगों के लिए अलग अलग नामों वाली कुछ ही दिन में अपने ही बोझ तले बिखर जाने को अभिशापित घटना थी. फिर दिल्ली विधानसभा चुनावों में शानदार प्रदर्शन के बाद बनी आप सरकार के शुरुआती कामों ने स्थापित राजनैतिक दलों के दिल में पैदा हुई चिंता को वक्ती खीज में बदलना शुरू कर दिया था. प्रशासन से ज्यादा सादगी का प्रहसन, बहुमत की तानाशाही के साथ जाकर खिड़की गाँव में अल्पसंख्यक अश्वेतों के खिलाफ लगभग रंगभेदी कार्यवाही, (अ)सम्मान हत्याओं के लिए बदनाम खाप पंचायतों का समर्थन करने जैसे काम हों या कांग्रेस को समर्थन वापसी पर मजबूर करना, आप लोकसभा चुनावों में फायदे के लिए सरकार की शहादत देने के इरादे में ही नजर आ रही थी, कोई बड़ा बदलाव करने के नहीं. जिंदल और बजाज जैसे उद्योगपतियों के चंदे से खड़े हुए आन्दोलन से जन्मी आप ने तमाम बड़े औद्योगिक घरानों को छोड़ सिर्फ रिलायंस समूह पर हमले कर आलोचकों को इसे भारतीय पूंजीपतियों के आपसी अंतर्विरोध का नतीजा बताने का मौका भी दिया था. बची खुची कसर आप ने अस्तित्व में आते ही पार्टी के भीतर व्यापार उद्योग मंडल बना कर पूरी कर दी थी .भ्रष्टाचार जैसा बड़ा मुद्दा ही क्यों न हो, भारत जैसे बहुलताओं वाले देश में सिर्फ एक मुद्दा आधारित राजनीति के लिए वैसे ही कोई बड़ी जगह नहीं है. फिर आप तो वहां भी भटकी हुई सी ही लग रही थी.

पर फिर अरविन्द केजरीवाल सरकार नें रिलायंस इंडस्ट्रीज के चेयरमैन मुकेश अम्बानी, पेट्रोलियम मंत्री एम वीरप्पा मोइली और पूर्व पेट्रोलियम मंत्री मुरली देवड़ा पर के जी बेसिन में प्राकृतिक गैस का दाम बढ़ाने में हुए कथित ‘घोटाले’ को लेकर पुलिस प्राथिमिकी दर्ज करवा देने का निर्णय ले लिया. यह वैसी ही घटना है जो राजनीति के स्थापित और व्यवस्था को स्वीकार्य व्याकरण से गंभीर विचलन है और राजनीति की दशा और दिशा दोनों बदल सकती है. पहले तो इसलिए कि इस प्राथिमिकी ने भ्रष्टाचार के मामलों में नेतृत्व के उत्तरदायित्व (command responsibility) के सिद्धांत को भारत में पहली बार लागू किया है वरना ऐसे मामलों के सामने आने पर भी कुछ छोटे खिलाड़ियों को सजा दे मामले को रफा दफा कर दिया जाता था. फिर याद करिए कि इस देश में इतने बड़े औद्योगिक समूह के मालिक के खिलाफ कोई सीधी कानूनी कार्यवाही कब हुई थी? कोयला घोटाले में कुमारमंगलम बिड़ला पर हुए मुकदमे के अलावा कुछ याद आना मुश्किल होगा. पर वह मुकदमा सरकार ने नहीं किया था, वह तो सर्वोच्च न्यायालय के आदेश के बावजूद बिडला को बचाने की कोशिश कर रही थी. स्वतंत्र भारत के इतिहास में एक चुनी हुई सरकार के बड़ी पूँजी से टकरा जाने का यह पहला उदाहरण है. बेशक राजीव गांधी में वित्त मंत्री विश्वनाथ प्रताप सिंह ने भी इसी रिलायंस इंडस्ट्रीज पर 1986 में ऐसी ही कार्यवाही की थी, पर फिर वह उस कार्यवाही में अकेले थे और उन्हें पहले वित्त मंत्रालय से निकाल रक्षा मंत्रालय में भेज दिया गया था और फिर कांग्रेस से ही निष्काषित कर दिया गया था. इन दोनों कार्यवाहियों में एक बड़ा अंतर यह भी है कि केजरीवाल की तरह वी पी सिंह हिचकिचाती सी शुरुआत करने वाले नौसिखिया नहीं, उत्तर प्रदेश के मुख्यमंत्री से लेकर तमाम केन्द्रीय मंत्रालय संभाल चुके तपेतपाये राजनेता थे. 

वैसे भी वी पी सिंह की कार्यवाही ईमानदार छवि वाले एक राजनेता की भ्रष्टाचार में संलिप्त होने के आरोप झेल रहे औद्योगिक घराने पर तब की गयी कार्यवाही थी जब भ्रष्टाचार भारतीय राजनीति का आम सच नहीं बना था. फिर तब आज खुद रिलायंस के मीडिया के एक बड़े हिस्से के मालिक होने के उलट तब मीडिया, खासतौर पर इंडियन एक्सप्रेस लगातार उसके खिलाफ लिख रहा था. उस नजर से देखें तो वित्तीय पूँजी से केवल मध्यवर्गीय ही सही, आम जनता का यह पहला सीधा टकराव है. और यही कारण है कि बेहद आम सी दिखती यह घटना भारतीय राजनीति में एक बहुत बड़ा उलटफेर कर सकने वाली घटना हो सकती है. फिर न्यायिक सक्रियता के इस दौर में इस कानूनी कार्यवाही के बाद मामला आप के हाथ से भी निकल ही गया है. यह जंतरमंतर जैसे बाड़ों में कैद होने को भारत के लोकतान्त्रिक होने का भ्रम बनाए रखने और इसीलिए स्वीकार्य धरना प्रदर्शन नहीं, उस सबसे बड़े औद्योगिक समूह पर सीधी कार्यवाही है जिसे सत्ता के गलियारों की फुसफुसाहटों में भारत की सबसे बड़ी राजनैतिक पार्टी, रिलायंस पार्टी ऑफ़ इंडिया कहा जाता है.

साफ़ कहूं तो यहाँ मसला रिलायंस का नहीं बल्कि नब्बे के दशक में नवउदारवादी रास्ते पर चल पड़े भारत की सामाजिक-आर्थिक व्यवस्था के मूल अंतर्विरोधों का हैं. बीते ढाई दशकों ने इस देश और इसकी राजनीति को बेतरह बदल दिया था. सत्ता और जनता के बीच ही नहीं, बल्कि अमीर और मध्यवर्ग तक के बीच एक अदृश्य दीवार खड़े कर देने वाले इस समय नें व्यवस्था को अपने अजेय होने का विश्वास दिला दिया था. यह वह समय भी था जिसने देश में वामपंथियों को छोड़ सारे राजनैतिक दलों को अर्थनीति के सवाल पर एक जगह ला खड़ा किया था. फिर वह चाहे नवउदारवाद लाने वाली कांग्रेस हो, कभी स्वदेशी का राग जपने वाली भारतीय जनता पार्टी या फिर समाजवादी धारा से आने वाला बीजू जनता दल, निजीकरण, उदारीकरण और वैश्वीकरण इस दौर का अकाट्य सच बन गए थे. यहाँ से देखें तो न यह अकारण लगेगा था न विडम्बना कि, 1986 में कथित टैक्सचोरी को लेकर रिलायंस के खिलाफ मीडिया अभियान का नेतृत्व करने वाले अरुण शौरी ने ही 2003 में अटल बिहारी वाजपेयी सरकार में विनिवेश मंत्री के बतौर पूर्व सार्वजनिक क्षेत्र कंपनी इंडियन पेट्रोकेमिकल्स कारपोरेशन लिमिटेड की 26 प्रतिशत शेयर पूँजी रिलायंस समूह को बेंचने के समझौते पर हस्ताक्षर किये थे. यहीं से अब इस प्राथमिकी पर वामपंथियों को छोड़ भाजपा समेत सभी दलों की चुप्पी समझने के रास्ते भी खुलेंगे. तस्वीर पूरी करनी हो तो बस वीरप्पा मोइली का वह बयान याद करें कि पेट्रोलियम आयात लॉबी भारत के हर पेट्रोलियम मंत्री को तेल के आयात को कम कर सकने वाले फैसले लेने के खिलाफ धमकाती है. अब सोचिये कि दुनिया की अगली महाशक्ति बनने का सपना देख रहे भारत के केन्द्रीय मंत्री को देश के भीतर ही धमका सकने वाली लॉबी का प्रभाव इतना है, तो उस पूरे अर्थतंत्र का राजनीति पर किस कदर कब्जा होगा.


इस प्राथमिकी के बाद आयोजित भ्रष्टाचार रोकने के लिए ही बनाये गए केन्द्रीय सतर्कता आयोग के स्वर्ण शताब्दी समारोह में वित्त मंत्री पी चिदंबरम के नियामक संगठनों को औद्योगिक घरानों पर बहुत गंभीर या स्पष्ट आपराधिक मामला न होने पर कार्यवाही न करने की सलाह देकर राजनैतिक नेतृत्व का डर साफ़ साफ़ दिखा दिया है. सोचिये कि स्पष्ट आपराधिकता तो जांच से ही निर्धारित होगी और इसीलिए जांच से बचने का क्या मतलब हुआ? इस छोटी सी प्राथिमिकी ने भारतीय राजनीति के बीते तीन दशकों के उस व्याकरण को हिला कर रख दिया है जिससे बाहर निकलना जनता के लिए बेहतर होगा, यथास्थितिवादी सत्ता और विपक्ष के नहीं. इसीलिए एक जनपक्षधर राजनैतिक विकल्प की संभावना अभी जिन्दा संभावना है. आप द्वारा शुरू की गयी सही, यह लड़ाई लोकतंत्र के जीवन का निर्णायक क्षण हो सकती है. वह क्षण जिसमे सिर्फ के जी बेसिन ही नहीं, बल्कि २जी, कॉमनवेल्थ, रादियागेट, कोलगेट जैसे बड़े घोटालों के समय में सांस्थानिक हो चुके भ्रष्टाचार के विरुद्ध एक सीधी लड़ाई की सम्भावना के द्वार खुलते हैं. 

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