विस्थापन की विभीषिका उर्फ़‘कोलन के बड़ेरी कबहु कलेऊ नाहीं होत’

['प्रभात खबर' में 27 फरवरी 2014 को 'विस्थापन की इस पीड़ा को समझिये' शीर्षक से प्रकाशित]
‘कोलन के बड़ेरी कबहु कलेऊ नाहीं होत’ यानी की कोलों की दीवाल, चूल्हों के धुयें से कभी काली नहीं होती कहती हुई ममता कोल की आँखों में कुछ नहीं था. रीवा जिले के जवा ब्लाक  के  गुस्सा नहीं, दर्द नहीं, उन आँखों में बस भीतर तक भेद जाने वाला एक खालीपन था. यह एक सपाट बयान था, ऐसा बयान जो बार बार विस्थापित होते रहने को अभिशापित समुदाय ही इतने निस्सार ढंग से दे सकता था. फिर यह निस्सारता चिपचिपाती गर्मी की उस उदास दोपहर को रीवा जिले के जवा ब्लाक के गोनता गाँव में बैठे हुए हम सभी लोगों के बीच खामोशी बन कर पसर गयी थी.
‘बड़ेरी कलेऊ होय ओकरे पहिले उजड़ जाय क परत’ है कहते हुए यह सन्नाटा फिर से ममता ने ही तोड़ा था. पास के गांवों के सामंतों के बर्बर उत्पीड़न से बचने की कोल आदिवासियों की शाश्वत ख्वाहिश से 1984 में बसा यह गाँव कुल तीस बरस की ममता के अपने जीवन में यह चौथा गाँव था. ऐसे तमाम गांवों में एक जो पहले कुछ के भाग आने, बीच जंगल में झोपड़ियाँ डालने और फिर अपने रिश्तेदारों को बुला लेने की शाश्वत प्रक्रिया से बसते हैं और फिर कुछ लोगों को सरकारी पट्टे मिलने से अभिलेखों में दर्ज हो जाते हैं. बस यह कि एनटीपीसी की एक ताप बिजली घर परियोजना के लिए प्रस्तावित जगह के बीचोंबीच पड़ जाने की वजह से गोनता फिर से संकट में है. आखिर में किसी कोल बस्ती को तीन दशक पूरे करने की इजाजत कैसे दी जा सकती है?
ममता की कहानी अकेले उसकी कहानी नहीं बल्कि ‘लोकतान्त्रिक’ भारत के सामंती बघेलखंड के लाखों आदिवासियों और दलितों की कहानी है. फिर वह उत्तरप्रदेश में दलित और मध्यप्रदेश में जनजातीय पहचान के बीच झूल रहे कोल हों कि आदिम मवासी जनजाति, सभी बार बार विस्थापित होने को अभिशापित हैं. ठीक वैसे जैसे सालों पहले कल्याणपुर नाम के गाँव के ‘दादूलोग’(सामंतों) से भाग कर अपना नया गाँव बिसहर बसा लेने वाले दलित-आदिवासियों के सामने एनटीपीसी ने फिर से उजड़ने की तलवार लटका दी है. इस गाँव के 56 लोगों को सरकारी जमीन का पट्टा भी मिल गया था पर कब्ज़ा नहीं क्योंकि एक सामंत ने उस जमीन को अपना बता कर मुकदमा दायर कर दिया था. अब पट्टे और पहचान के दो किले फतह कर लेने के बाद भी सारी जमीन खाली पड़ी है क्योंकि मामला अदालत में ‘विचाराधीन’ है. ‘सरकार हमका जमीन देत है तौ मुकदमा लड़ेक देत है? ओतने पौरुख होत तो 10 डिसमिल जमीन ताईं रिरियाईत हमरे सब’ कहते हुए हीरालाल की आँखें भी खाली और उदास थीं. 
सीगाँवटोला के मोहनइय्या प्लाट से बरास्ते नोनारी के जवारी और ढाकरा की दोंदर कॉलोनी तक इस इलाके में सिर्फ गांवों के नाम बदलते हैं, उजड़ने की कहानी यही रहती है. फिर चाहे यह उजड़ना आजादी की तलाश में भागते हुए हो या फिर जंगल विभाग द्वारा आदिवासियों को वन भूमि में ‘अवैध अतिक्रमण’ की वजह से, अपने गांवों से विस्थापित यह लोग एक ऐसी जगह खोजते हैं जो बसने के लिए सर्वथा अयोग्य हो. वजह यह कि उपजाऊ जगहों में उजाड़ दिए जाने की प्रक्रिया जरा ज्यादा तेज होती है. फिर वे उस जगह को रहने के काबिल बनाते हैं, बंधुआ मजदूरी से भागने के ख्वाहिशमंद रिश्तेदारों को बुलाते हैं और अगली विकास परियोजना या जंगल विभाग के उस जमीन के ‘वन्यभूमि’ होने के इलहाम होने पर विस्थापित कर दिए जाने तक के लिए वहीँ बस जाते हैं. 
फिर यह बस जाना भी अक्सर बस जाना नहीं होता. इन बसावटों में ‘मौसमी लोग’ भी मिलते हैं जो गर्मियों में काम की तलाश में सपरिवार पास के शंकरगढ़ की सिलिका खदानों में चले जाते हैं तो सर्दियों में रिक्शा चलाने इलाहाबाद या रीवा. जाने वाली इन मंजिलों में गुजरात और मध्यप्रदेश की आटा मिलें हैं तो ललितपुर में कुलीगीरी भी. हाँ, यह पलायन होता बस मौसमी ही है और इसमें भी हालत बदतर ही होते हैं.  अफ़सोस यह कि इस इलाके में विस्थापित न होना अक्सर विस्थापित होते रहने से बड़ा अभिशाप होता है क्योंकि उसका एक ही मतलब होता है कि उस गाँव के दलित-आदिवासी कभी बंधुआ मजदूरी से मुक्त ही नहीं हो सके. लोनी एक ऐसा ही गाँव था जिसके वंचित बाशिंदे पीढ़ियों से इसी गाँव में बसे हुए हैं और अब भी बंधुआ हैं. 
सरकार माने या न माने, किसी युद्ध या प्राकृतिक आपदा की गैरमौजूदगी के बावजूद इतने बड़े स्तर का विस्थापन मानवाधिकार के विमर्श में आतंरिक विस्थापन ही है.  ठीक वैसा ही आन्तरिक विस्थापन जैसा श्रीलंका के तमिलों ने तीन दशक लम्बे गृहयुद्ध के अंतिम दौर में झेला था. श्रीलंका में आतंरिक विस्थापितों की कुल संख्या तीन लाख थी, इससे कहीं ज्यादा लोग सिर्फ बघेलखंड में हर साल विस्थापित होते हैं. 
पर यह लगातार विस्थापन यहाँ की समस्यायों की सिर्फ शुरुआत भर है, उनका अंत नहीं. स्थाई पतों से वंचित इन नागरिकों तक न तो देश की कोई भी कल्याणकारी योजना पंहुच है न उनके बच्चे गरीबी और विस्थापन के इस दुश्चक्र को तोड़ पाने वाली इकलौती राह शिक्षा हासिल कर पाते है. जन्मभूमि की पूजा करने, उसे माँ मानने के दावे करने वाले देश में इन लोगों की कल्पना करिए जिनके पास अपना कहने की की जगह नहीं है. उनके बारे में सोचिये जिनकी जिंदगी बस जिन्दा रहने की जद्दोजहद में लगातार भटकने को अभिशापित होती है. उनके मर गए सपनों के हलफनामों में आपको लोकतंत्र की असफलता का इकबालिया बयान नजर आएगा हैं. 

Comments