क्रान्ति वाले शहर में (बीजिंग 2)

[दैनिक जागरण में अपने पाक्षिक कॉलम 'परदेस से' में क्रान्ति वाला शहर शीर्षक से  15-02-2014 को प्रकाशित]
डिब्बे में बढ़ गयी चहल पहल ने सुबह अचानक जगाया तो पता चला कि बीजिंग हमारे संग संग दौड़ रहा था. मन में उतर आये इस ख्याल ने बचपन के बाद शायद पहली बार गाड़ी की उल्टी दिशा में भागते घरों, पेड़ों को चमत्कृत भाव में देखने पर मजबूर कर दिया था. उम्मीदों भरी उत्तेजना में गहरी सांस ले शहर की हवा फेफड़ों में भर लेने की कोशिश की तो याद आया कि यह ट्रेन ‘‘अंतर्राष्ट्रीय’ होने की वजह से पूरी तरह बंद है सो जितनी हवा, जितनी ऑक्सीजन इसके अन्दर है बस उतनी ही अपना हासिल है. फिर बीजिंग के दुनिया के सबसे प्रदूषित शहरों में से एक होने की याद आई तो ख्याल ने खुद ही ख़ुदकुशी कर ली. 
तैयार हो, नयी बनी दोस्त ने चाय का कप बढ़ाते हुए पूछा था? जवाब दूं उसके पहले दूसरा सवाल हाजिर- ठहरे कहाँ हो? सागा यूथ हॉस्टल में सुन उनके मुंह से शानदार ही निकला था, अरे वो तो ऐतिहासिक शिजिया हुटाँग के पास है. विदेशी बैकपैकर्स में बहुत लोकप्रिय. उसकी छत पर जरुर जाना, बहुत शानदार दृश्य होता है. हुटाँग माने आँगन वाले पुराने तरीके के घरों वाले मोहल्ले जो अब बीजिंग में बहुत कम बचे हैं. इन घरों में आँगन के बाद घर और घर के बाद आँगन के घेरे बनते थे, सामाजिक वर्ग बताते हुए इन घेरों में केंद्र के पास होना आम जनता का आभिजात्य दर्शाता था, वे बोलती रही थीं. आम जनता का आभिजात्य, मैंने चौंक के पूछा था. हाँ, राजमहल वाली फोर्बिडन सिटी और उसके पूर्व में बसे बड़े अधिकारियों और कुलीनों के घर, समर पैलेस और टेम्पल ऑफ़ हेवेन चीन के हुक्मरानों के घर होते थे. हुटाँग उनके बरक्स खड़े आम जनता के आशियाने थे. अब तो ज्यादातर ढहा दिए गए, पर आप का यूथ हॉस्टल एक हुटाँग में ही है. 
सफर की शुरुआत का शानदार होना निश्चित हो गया था. जीवन में यूथ हॉस्टल में रुकने का पहला अनुभव इससे भी शानदार होना था, बस यह मालूम होने में कुछ देर बाकी थी. ट्रेन के अचानक रुकने ने बातचीत का क्रम तोड़ा था. गाड़ी प्लेटफार्म पर लग आई थी और सामने की दीवार पर बड़े, सुर्ख अक्षरों में लिखा बीजिंग चमक रहा था. अपना अपना सामान ले हम बाहर निकल आये थे. मुझसे इमिग्रेशन के बाद मिलना, मेरी दोस्त ने फिर कहा था. 
लीजिये, हम फिर से इमिग्रेशन की लम्बी कतार में खड़े थे. चुनी हुई जलावतनी के बाद की हासिल ये कतारें शुरू शुरू में बेतरह चौकातीं थीं, डराती थीं. पर अब ये सिर्फ एक ऐसे बोझिल इंतज़ार का बायस बनती हैं जिसके आखिर में अपने मुल्क में आपकी आमद से बेवजह खफा सा अक्सर रूखे चेहरे वाला एक अधिकारी खड़ा होता है. इस बार वाला मगर अलग था. इंदु (हिन्दुस्तानी)? हाँ कहने पर अगला सवाल.. क्यों? पर्यटक. कितने डॉलर हैं तुम्हारे पास? २०००- हम दोनों जानते थे कि जवाब झूठा था और यह भी कि हर बैकपैकर हर इमिग्रेशन काउंटर पर यही कहता है. सो उसने हंस के हमारे आने की मुहर लगा दी थी. 
दो मिनट बाद हम बाहर बीजिंग में खड़े थे, असली बीजिंग में. उस बीजिंग में जहाँ कल तक किसी को न जानने के बावजूद एक दोस्त इंतज़ार कर रही थी. हर तरफ दौड़ती और फिर भी कहीं न टिकती उत्सुक निगाहों के साथ हम उसकी तरफ बढ़ चले थे. उन्होंने कुछ बेहद जरुरी वाक्य चीनी भाषा में एक कागज़ पर लिख डाले थे. मुझे यहाँ जाना है, बस अड्डा कहाँ है, मेट्रो स्टेशन का रास्ता बता दीजिये जैसे सादा से वाक्यों के बीच एक वाक्य पर नजर टिकी थी और हमारे होंठों पर खिल आये बेसाख्ता से ठहाके से बीजिंग गूँज उठा था. ‘मैं पूर्ण शाकाहारी हूँ, मांस-मछली कुछ भी नहीं. आपके यहाँ कुछ है ऐसा’?
ट्रेन में बिताये 27 घन्टों में हुई इस एक बात को अब तक याद रखने की यह सादा सी अदा दिल को बहुत गहरे तक छू गयी थी. आपको इस वाक्य की जरुरत सबसे ज्यादा पड़ने वाली है, यहाँ लोगों को शाकाहारी होने का मतलब समझ तक नहीं आता. इस बार मुस्कराहट उनके चेहरे पर थी. हम साथ साथ टैक्सी स्टैंड की तरफ बढ़ चले थे. उन्होंने टैक्सी ड्राईवर को चीनी भाषा में कुछ कहा था, हमें आरएमबी (चीनी मुद्रा युआन को बोलचाल की भाषा में यही कहते हैं) में किराया बताया था, किसी मुश्किल में होने पर बेझिझक फोन करने की ताइद की थी और लीजिये अनजाना सा सफ़र शुरू हो चुका था. 
टैक्सी क्रान्ति वाले शहर की सड़कों पर भाग रही थी. उस क्रान्ति के जिसने पहले वर्गशत्रुओं पर हमले कर एक नयी सुबह का सपना दिखाया था. वह क्रान्ति भी जिसने फिर अपने हथियारों का मुंह अपनी कतारों की तरफ ही घुमा दिया था. सांस्कृतिक क्रान्ति में हुई लाखों मौतों की जिम्मेदार क्रांति, गलत समझदारी पर चीन में गौरैया ख़त्म कर देने वाली क्रांति. टैक्सी अब तियेनएनमेन चौक के सामने से गुजर रही थी. उस चौक पर जिसमें क्रांति ने लोकतंत्र के लिए प्रतिरोध कर रहे छात्रों पर टैंक चलवा तियेनएनमेन का अर्थ –स्वर्गीय शान्ति का दरवाजा- सार्थक कर दिया था. 

तमाम उम्मीदों और असहज सच्चाइयों से मुठभेड़ वाले अगले हफ्ते दिलचस्प होने वाले थे. 

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